Q. संसद में लगातार व्यवधानों ने बहस, जवाबदेही और प्रतिनिधित्व के मंच के रूप में इसकी भूमिका को कमजोर कर दिया है। इस संदर्भ में, यह परीक्षण कीजिए कि संस्थागत सुधार भारत में संसदीय लोकतंत्र को कैसे मजबूत कर सकते हैं। (10 अंक, 150 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • संसदीय लोकतंत्र को सुदृढ़ करने के लिए संस्थागत सुधार
  • इन सुधारों से संबंधित चिंताएँ।

उत्तर

संसद में लगातार होने वाले व्यवधानों ने उसके विमर्शात्मक स्वरूप को क्षीण किया है, कार्यपालिका की जवाबदेही को कमजोर किया है तथा प्रतिनिधिक विधि-निर्माण की गुणवत्ता को प्रभावित किया है। बार-बार स्थगन, बहस के समय में कमी और टकरावपूर्ण राजनीति ने लोकतांत्रिक अवनति की आशंकाएँ बढ़ा दी हैं। ऐसी स्थिति में संसद की प्रभावशीलता और विश्वसनीयता बहाल करने हेतु संस्थागत सुधार अत्यावश्यक हो गए हैं।

संसदीय लोकतंत्र को सुदृढ़ करने हेतु संस्थागत सुधार

  • सशक्त संसदीय समिति प्रणाली: विधेयकों को संसदीय समितियों को संदर्भित करने से विस्तृत जाँच, द्विदलीय सुझाव और प्रमाण-आधारित विधि-निर्माण संभव होता है, जो सदन की अव्यवस्थाओं से परे है।
  • प्रश्नकाल में सुधार: प्रश्नकाल की सुरक्षा से सदस्यों को नियमित और पारदर्शी रूप से मंत्रालयों से प्रश्न पूछने का अवसर मिलता है, जिससे कार्यपालिका की जवाबदेही सुदृढ़ होती है।
  • आचार संहिता: अधिक कठोर अनुशासनात्मक ढाँचा अव्यवस्थित आचरण को हतोत्साहित कर सकता है और दलगत सीमाओं से ऊपर विधायी मर्यादा सुनिश्चित कर सकता है।
    सांसदों के लिए प्रवर्तनीय आचार नियमों की आवश्यकता है।
  • नियमित सत्र अवधि: न्यूनतम सत्र दिवस निर्धारित करने से पर्याप्त विधायी चर्चा सुनिश्चित होती है और जल्दबाजी में कानून बनाने की प्रक्रिया कम होती है।
    • उदाहरण: भारत की संसद अन्य तुलनीय लोकतांत्रिक देशों की तुलना में कम दिनों तक चलती है।

प्रमुख चिंताएँ 

  • राजनीतिक प्रतिरोध: राजनीतिक दल ऐसे सुधारों का विरोध कर सकते हैं, जो विरोध के साधनों को सीमित करते हों, क्योंकि व्यवधान को वैध विपक्षी रणनीति माना जाता है।
    • विपक्षी दलों के विरोध प्रदर्शन के अधिकारों को लेकर प्रायः गतिरोध उत्पन्न होते रहते हैं।
  • कार्यपालिका का प्रभुत्व: सशक्त कार्यपालिका नियंत्रण, संस्थागत तंत्र के बावजूद, संसदीय निगरानी को कमजोर कर सकता है।
    • उदाहरण: अध्यादेशों और गिलोटीन प्रस्तावों का बढ़ता उपयोग।
  • अध्यक्ष की निष्पक्षता: अध्यक्ष की कथित पक्षपाती भूमिका अनुशासनात्मक सुधारों के निष्पक्ष प्रवर्तन को कमजोर कर सकती है।
  • सीमित प्रवर्तन: राजनीतिक सहमति के अभाव में नियम केवल प्रतीकात्मक रह सकते हैं, परिवर्तनकारी नहीं।

निष्कर्ष

संसद का पुनर्जीवन तभी संभव है जब संस्थागत सुधारों के साथ राजनीतिक इच्छाशक्ति, नैतिक नेतृत्व और लोकतांत्रिक मानदंडों के प्रति सम्मान भी हो। समितियों, जवाबदेही के उपकरणों और संसदीय मर्यादा को सुदृढ़ करना, सहमति-निर्माण के साथ-साथ आवश्यक है, ताकि संसद एक विमर्शात्मक, प्रतिनिधिक और जवाबदेह लोकतांत्रिक संस्था के रूप में प्रभावी ढंग से कार्य कर सके।

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