Q. प्रस्तावित विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक, 2025 भारत में उच्च शिक्षा के नियामक ढाँचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन करना चाहता है। भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली पर इस विधेयक के संभावित प्रभावों पर चर्चा कीजिए। (10 अंक, 150 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • संभावित सकारात्मक प्रभाव
  • संभावित नकारात्मक प्रभाव

उत्तर

विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक, 2025 का उद्देश्य एक एकल प्राधिकरण बनाकर भारत के खंडित उच्च शिक्षा विनियमन में सुधार करना है। इसका लक्ष्य अनुमोदन प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना, गुणवत्ता बढ़ाना और संस्थानों को NEP 2020 के लक्ष्यों के अनुरूप बनाना है, साथ ही स्वायत्तता और केंद्रीकरण पर बहस छेड़ना भी है।

संभावित सकारात्मक निहितार्थ

  • एकीकृत नियामक ढाँचा: यह अकादमिक मानकों, मान्यता और विनियमन को एक ही छत्र के नीचे एकीकृत करता है, जिससे ‘निरीक्षक राज’ और संस्थानों पर अनुपालन का बोझ कम होता है।
    • उदाहरण: यह विधेयक कई अतिव्यापी अनुमोदनों के स्थान पर तीन विशिष्ट परिषदों (मानक, विनियमन और मान्यता) का गठन करता है।
  • शक्तियों का पृथक्करण: वित्तीय अनुदान वितरण से अकादमिक विनियमन को अलग करके, यह नियामक को वित्तीय प्रशासन के बजाय गुणवत्ता पर पूर्णतः ध्यान केंद्रित करने की अनुमति देता है।
    • उदाहरण: वित्तीय और अकादमिक नियंत्रण को अलग करने की NEP 2020 की सिफारिश के बाद, अनुदान वितरण शक्तियाँ शिक्षा मंत्रालय को हस्तांतरित हो जाएँगी।
  • वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता में वृद्धि: विधेयक भारत में संचालित विदेशी विश्वविद्यालयों को सुविधा प्रदान करता है और उच्च प्रदर्शन करने वाले भारतीय संस्थानों को विदेशी परिसर स्थापित करने में सहायता करता है।
  • दंड के माध्यम से जवाबदेही: यह फर्जी विश्वविद्यालयों और निम्न स्तर की प्रथाओं को रोकने के लिए एक श्रेणीबद्ध दंड प्रणाली शुरू करता है, जिससे छात्रों की सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
    • उदाहरण: अनाधिकृत संस्थानों पर 2 करोड़ रुपये तक का जुर्माना और तत्काल बंद करने की कार्रवाई हो सकती है।

संभावित नकारात्मक निहितार्थ

  • अधिकार का अत्यधिक केंद्रीकरण: केंद्र सरकार को सभी प्रमुख सदस्यों की नियुक्ति करने और असहमति की स्थिति में आयोग को दरकिनार करने तक की व्यापक शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
    • उदाहरण: धारा 45 और 47 केंद्र को नीतिगत मामलों पर सर्वोच्च शक्तियाँ प्रदान करती हैं, जिससे नियामक स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है।
  • संघवाद का क्षरण: नए नियामक ढाँचे में राज्य सरकारों का न्यूनतम प्रतिनिधित्व क्षेत्रीय विविधता की अनदेखी करते हुए ‘एक ही नियम सबके लिए’ आधारित दृष्टिकोण को जन्म दे सकता है।
  • संस्थागत स्वायत्तता के लिए खतरा: चूँकि वित्त पोषण सीधे शिक्षा मंत्रालय द्वारा नियंत्रित किया जाएगा, इसलिए संस्थानों को राजनीतिक या नौकरशाही हस्तक्षेप का सामना करना पड़ सकता है।
    • उदाहरण: संकाय संघों की चिंता है कि मंत्रालय से सीधे वित्तपोषण केंद्रीय विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक स्वतंत्रता को कमजोर कर सकता है।
  • अपूर्ण नियामक कवरेज: एकीकृत नियामक से चिकित्सा और विधि शिक्षा को बाहर रखने से एक ‘पृथक’ दृष्टिकोण विकसित होता है, जो समग्र शिक्षा की परिकल्पना के विपरीत है।
    • उदाहरण: बार काउंसिल जैसी पेशेवर परिषदों को अलग रखने से एक सच्चे ‘एकल’ नियामक के लक्ष्य की पूर्ति सीमित हो जाती है।

निष्कर्ष

यह विधेयक उच्च शिक्षा प्रशासन को आधुनिक बनाने का अवसर प्रदान करता है, लेकिन सुधारों में दक्षता और स्वायत्तता के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। पारदर्शी प्रक्रियाओं, हितधारकों के परामर्श और चरणबद्ध कार्यान्वयन से भारत को संस्थागत विविधता को कम किए बिना गुणवत्तापूर्ण तथा वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धी उच्च शिक्षा प्राप्त करने में मदद मिलेगी।

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