हाल ही में तेलंगाना में बादामी चालुक्य काल के एक मंदिर की खोज की है, जो लगभग 1,300 वर्ष प्राचीन है।
संबंधित तथ्य
सार्वजनिक इतिहास, पुरातत्त्व और विरासत अनुसंधान संस्थान (Public Research Institute of History, Archaeology, and Heritage-PRIHAH) के पुरातत्त्वविदों ने एक दुर्लभ शिलालेख के साथ दो प्राचीन मंदिरों की खोज की है।
खोज स्थल: तेलंगाना के नलगोंडा जिले के मुदिमानिक्यम गाँव में कृष्णा नदी के किनारे।
स्थापत्य शैली: ये मंदिर 543 से 750 ई. के मध्य के हैं और इनमें बादामी चालुक्य शैली का कदंब नगर शैली के प्रभावों के साथ मिश्रण दिखाई देता है। इन मंदिरों में विशिष्ट रूप से पिरामिड के आकार का शिखर होता है, जिसमें इसका शिखर ऊपर की ओर जाता है और सबसे ऊपर कलश स्थापित होता है।
इस संरचना में नागर शैली के कुछ प्रभाव भी दिखाई देते हैं, जो एक विशिष्ट उत्तर भारतीय शिखर से पहचाने जाते हैं। इस शिखर में घुमावदार विमान होता है, जिसकी चारों भुजाएँ एक समान लंबाई की होती हैं।
खोजी गईं कलाकृतियाँ
गर्भगृह में एक पनवत्तम (शिवलिंग का आधार) पाया गया है।
भगवान विष्णु की मूर्ति प्राप्त हुई है।
साथ ही एक शिलालेख भी पाया गया है जिसमें ‘गंडलोरानरु’ लिखा हुआ है जो 8वीं-9वीं शताब्दी ईस्वी का है। कन्नड़ भाषा में ‘गंड’ का अर्थ ‘नायक’ होता है।”
चालुक्य वंश
यह एक हिंदू राजवंश है, जिसने छठी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के बीच दक्षिण और मध्य भारत पर शासन किया।
इसमें तीन स्वतंत्र राजवंश शामिल थे
बादामी चालुक्य:यह चालुक्य वंश की मूल शाखा थी, जिसकी राजधानी वातापी (आधुनिक बादामी) थी और जिन्होंने छठी शताब्दी के मध्य से शासन किया।
पूर्वी चालुक्य: ये छठी शताब्दी के मध्य के बाद पूर्वी दक्कन में प्रभावी हुए और लगभग 11वीं शताब्दी तक वेंगी से शासन किया।
पश्चिमी चालुक्य:ये बादामी चालुक्य वंश के वंशज थे और 10वीं शताब्दी के अंत में पश्चिमी दक्कन में उभरे। उन्होंने कल्याणी (आधुनिक बसवकल्याण) से 12वीं शताब्दी के अंत तक शासन किया।
बादामी के चालुक्य
बादामी चालुक्य बनवासी के कदंबों के अधीन थे। वे एक कन्नड़ परिवार थे और कन्नड़ उनकी मातृभाषा थी।
संस्थापक राजा: चालुक्य वंश की स्थापना पुलकेशिन प्रथम ने 543 ई. में की थी।
उल्लेखनीय शासक
पुलकेशिन द्वितीय: चालुक्य वंश का सबसे महत्त्वपूर्ण शासक, जिसने चालुक्य साम्राज्य का विस्तार पल्लव साम्राज्य की उत्तरी सीमाओं तक किया और नर्मदा नदी के तट पर हर्षवर्धन को पराजित किया।
642 ई. में पल्लव शासक नरसिम्हावर्मन के साथ वातापी के युद्ध में लड़ते हुए उनकी मृत्यु हो गई।
विक्रमादित्य प्रथम: उन्होंने पल्लवों को हराने और पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के बाद अपने साम्राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया तथा “राजमल्ल” (मल्लों/पल्लवों का शासक) की उपाधि धारण की।
विक्रमादित्य द्वितीय (733-744 ई. ):उनके शासनकाल में राज्य कई आक्रमणों और पल्लव राजा नंदिवर्मन द्वितीय पर विजय साथ ही चोल, चेर और पाण्ड्य के 3 दक्षिणी राज्यों पर विजय के साथ अपने चरम पर पहुँच गया।
पतन:753 ई. में राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग ने अंतिम शासक कीर्तिवर्मन द्वितीय को हराकर बादामी के चालुक्य वंश का अंत कर दिया।
ऐतिहासिक स्रोत
शिलालेख
कन्नड़: मंगलेसा के बादामी गुफा शिलालेख (578 ईसवी), पुलकेशिन द्वितीय के पेद्दावडुगुरु शिलालेख, कांची कैलाशनाथ शिलालेख और विक्रमादित्य द्वितीय के पट्टदकल विरुपाक्ष मंदिर शिलालेख।
संस्कृत: बादामी चट्टान का सबसे पुराना शिलालेख पुलकेशिन प्रथम का 543 ई. का मंगलेसा का महाकूट स्तंभ शिलालेख (595 ई.) और पुलकेशिन द्वितीय का 634 ई. का ऐहोल शिलालेख।
यात्री वृत्तांत
ह्वेन त्सांग(चीनी यात्री) ने 7वीं शताब्दी में चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय के दरबार में आया था।
बादामी चालुक्य की वास्तुकला
यह हिंदू मंदिर वास्तुकला की एक शैली है, जो 5वीं-8वीं शताब्दी ई. के मध्य कर्नाटक के बागलकोट जिले में मालप्रभा नदी घाटी में विकसित हुई थी।
वेसर शैली की वास्तुकला: चालुक्य वास्तुकला नागर और द्रविड़ शैलियों का मिश्रण है, जिसे मंदिर वास्तुकला की वेसर शैली के रूप में जाना जाता है।
यह शैली कर्नाटक के ऐहोल, बादामी और पट्टदकल में 5वीं से 7वीं शताब्दी के बीच उत्पन्न हुई और फली-फूली और आगे चलकर इसे होयसलों द्वारा विकसित किया गया।
उदाहरण: वेसर शैली का एक उदाहरण सांडूर में स्थित पार्वती मंदिर है।
इस मंदिर में एक अनियमित आधार योजना (staggered base plan) है।
इसमें नागर शैली का विमान (टॉवर) और द्रविड़ शैली के कुछ भाग शामिल हैं।
मंदिर में मंडप (हॉल) नहीं है बल्कि एक अंतराल (वेस्टिब्यूल) है, जो सुकनासी (बैरल-आकार की छत वाला टॉवर) से सुसज्जित है।
बुनियादी सुविधाएँ
प्रयुक्त पत्थर: लाल-सुनहरा बलुआ पत्थर का प्रयोग किया गया।
निर्माण की तकनीक: ये मंदिर चट्टानों को काटकर बनाए गए हैं न कि अलग-अलग निर्माण सामग्री को जोड़कर इसलिए उन्हें मूर्तिकलात्मक शैली से अधिक माना जाता है।
तत्त्व: इन मंदिरों के बाहरी हिस्से अपेक्षाकृत साधारण होते हैं लेकिन उनके आंतरिक हिस्से अत्यधिक कलात्मक और मूर्तिकला की दृष्टि से आकर्षक होते हैं। मंदिरों में आमतौर पर एक स्तंभों वाला बरामदा, एक स्तंभों वाला हॉल (मंडप) और एक गहराई से कटे चट्टान में बना गर्भगृह होता है, जहाँ देवता की प्रतिमा स्थापित होती है।
विकास के चरण
प्रारंभिक चरण: इसकी शुरुआत छठी शताब्दी के अंत में ऐहोल में तीन प्रारंभिक गुफा मंदिरों और बादामी में 4 विकसित संरचनाओं के साथ हुई।
दूसरा चरण: ऐहोल मंदिर निर्माण के लिए सबसे प्रमुख स्थल बन गया और इसे 600 ई. से “भारतीय मंदिर वास्तुकला के अभिभावक” के रूप में जाना जाने लगा।
लडखन मंदिर में पहली बार घुमावदार और पिरामिडनुमा शिखर (द्रविड़ वास्तुकला की विशेषता) विकसित किया गया था।
उदाहरण: लडखन मंदिर, मेगुटी जैन मंदिर, दुर्गा मंदिर, बादामी में जंबुलिंगेश्वर मंदिर, महाकुटेश्वर मंदिर और महाकुटा में मल्लिकार्जुन मंदिर।
परिपक्व चरण: 8वीं शताब्दी के पट्टदकल के संरचनात्मक मंदिर बादामी चालुक्य वास्तुकला के परिपक्व चरण को चिह्नित करते हैं। पट्टदकल में दस मंदिर हैं छह दक्षिणी द्रविड़ शैली में और चार उत्तरी नागर शैली में हैं।
इन्हें यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त है।
उदाहरण:द्रविड़ शैली- संगमेश्वर मंदिर 725 ई. विरुपाक्ष मंदिर (740-745 ई.) और मल्लिकार्जुन मंदिर (740-745 ई.)।
वेसर शैली: पापनाथ मंदिर (680 ई.) और गलगनाथ मंदिर (740 ई.)।
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