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सीवीड (समुद्री शैवाल) कृषि को बढ़ावा देने पर पहला राष्ट्रीय सम्मेलन (First National Conference on Promotion of Seaweed Farming)

Samsul Ansari January 30, 2024 03:46 176 0

संदर्भ

केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्री ने गुजरात में सीवीड (समुद्री शैवाल) की कृषि को बढ़ावा देने हेतु राष्ट्रीय सम्मेलन की अध्यक्षता की।

संबंधित तथ्य

  • यह सम्मेलन गुजरात में कच्छ जिले के कोटेश्वर (कोरी क्रीक) में आयोजित किया गया था
    • यहाँ सीवीड (समुद्री शैवाल) विकास पर राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान CMFRI, CSMCRI और NFDB द्वारा समुद्री शैवाल की कृषि के विभिन्न तरीकों अर्थात मोनोलिन (Monoline), ट्यूब-नेट (Tube-Net) और राफ्ट (Rafts) का प्रदर्शन किया गया था।

सीवीड (समुद्री शैवाल)

  • समुद्री शैवाल स्थूल शैवाल (Macroscopic Algae) का एक रूप है  
    • स्थूल शैवाल (Macroscopic Algae) एक आद्य वनस्पति है जिनमें जड़ों, तनों और पत्तियों का अभाव होता है।
  • सामान्य शब्दों में सीवीड (समुद्री शैवाल) जड़, तना और पत्तियों रहित बिना फूल वाले होते हैं, जो समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
    • सीवीड जल के नीचे वनों का निर्माण करते हैं, जिन्हें ‘केल्प फॉरेस्ट’ कहा जाता है। ये वन मछली, घोंघे आदि के लिए नर्सरी का कार्य करते हैं।
    • सीवीड की अनेक प्रजातियाँ हैं जैसे- ग्रेसिलिरिया एडुलिस, ग्रेसिलिरिया क्रैसा, ग्रेसिलिरिया वेरुकोसा, सरगस्सुम एसपीपी और टर्बिनारिया एसपीपी आदि।
  • प्राकृतिक वास: वे समुद्री और उथले तटीय जल या खारे जल के आवासों तथा चट्टानी तटों पर पनपते हैं।
  • प्रकार: समुद्री शैवाल को उनके रंजक के अनुसार चार समूहों में पहचाना जाता है जो विशेष तरंग दैर्ध्य के प्रकाश को अवशोषित करते हैं। 
    • ये हैं क्लोरोफाइटा (हरा शैवाल), फियोफाइटा (भूरा शैवाल) और रोडोफाइटा (लाल शैवाल) और नीला शैवाल।
    • भारत में लाल शैवाल की लगभग 434 प्रजातियाँ, भूरे शैवाल की 194 प्रजातियाँ और हरे शैवाल की 216 प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
  • भारत में: भारतीय समुद्रों में समुद्री शैवाल की लगभग 844 प्रजातियाँ पाई गई हैं, जो मुख्य रूप से तमिलनाडु और गुजरात के तट और लक्षद्वीप एवं अंडमान व निकोबार द्वीपसमूह के आसपास पाई जाती हैं।
    • महाराष्ट्र के मुंबई और रत्नागिरी, गोवा के कारवार और वर्कला, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में विझिंजम एवं पुलिकट तथा ओडिसा में चिल्का के आसपास समृद्ध समुद्री शैवाल तल पाए जाते हैं।
  • उपयोग
    • नवीकरणीय स्रोत के रूप में: विविध पोषण, औद्योगिक, बायोमेडिकल, कृषि और व्यक्तिगत देखभाल अनुप्रयोगों के साथ भोजन, ऊर्जा, रसायनों और दवाओं के नवीकरणीय स्रोत के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
    • 21वीं सदी के चिकित्सीय उपयोग हेतु: इनका उपयोग रेचक औषधि के रूप में, फार्मास्युटिकल कैप्सूल बनाने के लिए, गंडमाला, कैंसर के उपचार, हड्डी-प्रतिस्थापन चिकित्सा और हृदय संबंधी सर्जरी में किया जाता है।
    • औद्योगिक क्षेत्र में: वे एगर (Agar), एल्गिनेट्स (Alginates) और कैरेजेनन (Carrageenan) का एक स्रोत हैं जिनका उपयोग प्रयोगशालाओं, फार्मास्यूटिकल्स, सौंदर्य प्रसाधन, कार्डबोर्ड, कागज, पेंट और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों में किया जाता है।
    • पर्यावरणीय लाभ: समुद्री शैवाल कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने और इसको अपने विकास के लिए उपयोग करने में अविश्वसनीय रूप से कुशल हैं। उदाहरण के लिए ईलग्रास (Eelgrass), मैंग्रोव और साल्ट मार्श (Salt Marshes) कार्बन को संगृहीत करने की अपनी क्षमता के लिए जाने जाते हैं।
  • समुद्री शैवाल की कृषि: वर्ष 2022 में, समुद्री शैवाल का वैश्विक उत्पादन लगभग 16.5 बिलियन डॉलर मूल्य के 35 मिलियन टन के आसपास था। इसकी तुलना में, भारत में केवल 34,000 टन का उत्पादन हुआ था।
    • भारत सरकार वर्ष 2025 तक 1.12 मिलियन टन तक समुद्री शैवाल की कृषि को बढ़ावा देने के लिए 640 करोड़ रुपये का पैकेज लेकर आई है।
    • केंद्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान के अनुसार, भारत में प्रति वर्ष लगभग 9.7 मिलियन टन समुद्री शैवाल का उत्पादन करने की क्षमता मौजूद है।
  • समुद्री शैवाल खेती का महत्त्व 
    • अतिरिक्त आय स्रोत: यह तटीय लोगों के लिए व्यवसाय और आय का स्रोत प्रदान करता है।
    • संबंधित उद्योग के लिए कच्चे माल की आपूर्ति: समुद्री शैवाल आधारित उद्योग के लिए कच्चे माल की निरंतर आपूर्ति प्रदान करता है।
    • संरक्षण के प्रयास: संबंधित समुद्री शैवालों की प्राकृतिक आबादी का संरक्षण करना।
    • पर्यावरण अनुकूल: समुद्री शैवाल की कृषि समुद्र में तटीय प्रदूषण के उपचार और CO2 को कम करने का एक प्रमुख उपकरण है।
  • चुनौतियाँ
    • समुद्री तलों का अत्यधिक दोहन: समुद्री तलों के अत्यधिक दोहन के कारण कच्चे माल की कमी तथा खराब गुणवत्ता वाला कच्चा माल प्राप्त होना।
    • जनशक्ति अनुपलब्धता: समुद्र तटीय क्षेत्रों में धान की कटाई के मौसम में श्रमिकों की कमी होना।
    • तकनीकी पिछड़ापन: प्रसंस्कृत उत्पाद की गुणवत्ता में सुधार के लिए प्रौद्योगिकी की कमी होना।
    • सूचनाओं का अभाव: कच्चे माल के नए और वैकल्पिक स्रोतों पर सूचनाओं का अभाव होना।

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