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राज्यपालों के आचरण पर केरल की याचिका पर सुनवाई करेगा उच्चतम न्यायालय

Lokesh Pal February 10, 2025 02:33 15 0

संदर्भ

केरल राज्य ने विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपालों द्वारा महत्त्वपूर्ण विधेयकों पर देरी से मंजूरी देने या अनिश्चितकालीन रोक लगाने के संबंध में शीघ्र सुनवाई की माँग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की है।

केरल सरकार द्वारा उठाया गया मुद्दा

  • केरल सरकार का कहना है कि विपक्ष शासित राज्यों के राज्यपाल जानबूझकर अपने-अपने राज्य विधानमंडलों द्वारा पारित विधेयकों को विलंबित कर रहे हैं या अनिश्चित काल के लिए रोके हुए हैं।
  • इससे संवैधानिक संकट उत्पन्न हो रहा है और शासन के सुचारू संचालन पर असर पड़ रहा है।

समानांतर मामला: तमिलनाडु के राज्यपाल की मंजूरी में देरी

  • केरल सरकार की याचिका तमिलनाडु द्वारा दायर याचिका के समान है, जहाँ राज्यपाल आर. एन. रवि ने 10 पुनः अधिनियमित विधेयकों पर मंजूरी रोक दी थी और बाद में उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया था।

तमिलनाडु मामले का घटनाक्रम

  • जनवरी 2020–अप्रैल 2023: तमिलनाडु विधानमंडल ने संविधान के अनुच्छेद-200 के तहत विधेयक राज्यपाल को भेजे।
  • नवंबर 2023: तमिलनाडु सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल करने के बाद, राज्यपाल ने निम्नलिखित कार्रवाई की:
    • 2 विधेयक राष्ट्रपति को भेजे गए।
    • 10 विधेयकों पर स्वीकृति रोक दी गई।
  • तमिलनाडु विधानसभा का विशेष सत्र
    • 10 विधेयकों को पुनः पारित कर राज्यपाल के पास भेजा गया। 
    • राज्यपाल ने स्वीकृति देने के बजाय सभी 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया।
  • राष्ट्रपति का निर्णय
    • 1 विधेयक स्वीकृत हुआ।
    • 7 विधेयक अस्वीकृत हुए।
    • 2 विधेयक अभी भी विचाराधीन हैं।

विधेयकों पर राज्यपाल की शक्तियाँ

  • अनुच्छेद 200-राज्य विधानमंडल में राज्यपाल की भूमिका: जब कोई विधेयक राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किया जाता है, तो उसे राज्यपाल के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राज्यपाल के पास निम्नलिखित विकल्प हैं:-
    • स्वीकृति देना: विधेयक कानून बन जाता है। 
    • स्वीकृति न देना: विधेयक को प्रभावी रूप से अस्वीकार करना। 
    • पुनर्विचार के लिए विधेयक को वापस करना: राज्यपाल विधेयक को पुनर्विचार के लिए राज्य विधानमंडल को वापस भेज सकते हैं। हालाँकि, यदि विधानमंडल बिना किसी संशोधन के विधेयक को फिर से पारित कर देता है, तो राज्यपाल स्वीकृति देने के लिए बाध्य है।
    • विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजना: यदि विधेयक में कुछ संवैधानिक या राष्ट्रीय चिंताएँ शामिल हों तो राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकते हैं।

राज्यपालों द्वारा विधेयकों को स्वीकृति न देने से संबंधित मुद्दे

  • लोकतंत्र: गैर-निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा विधेयकों में देरी करना निर्वाचित राज्य सरकारों के जनादेश को कमजोर करता है।
  • संघवाद को कमजोर करता है: राजनीतिक रूप से प्रेरित अस्वीकृतियाँ भारत के संघीय ढाँचे को खतरे में डालती हैं।
  • कोई जवाबदेही नहीं: राज्यपाल बिना कारण बताए स्वीकृति रोक सकते हैं, जिससे पारदर्शिता कम होती है।
  • संभावित शक्ति का दुरुपयोग: स्वीकृति रोकना दुर्लभ होना चाहिए, बाधा उत्पन्न करने का साधन नहीं होना चाहिए।
  • शासन में देरी: लंबे समय तक स्वीकृति नीतियों को रोकती है, जैसा कि TNPSC रिक्तियों के मामले में देखा गया है।
  • जनता के विश्वास को ठेस पहुँचाता है: लंबित विधेयक अक्षमता या राजनीतिक संघर्ष की अवधारणा को जन्म देते हैं।

राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए विधेयक आरक्षित करने की राज्यपाल की शक्ति

राज्यपाल को किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखना आवश्यक है, यदि:

  • यह विधेयक राज्य उच्च न्यायालय की स्थिति को खतरे में डालता है।
  • यह विधेयक है:
    • संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध।
    • राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों (DPSP) का विरोध।
    • देश के व्यापक हित के विरुद्ध।
    • राष्ट्रीय हितों को संकट में डालने वाला।
    • संविधान के अनुच्छेद-31A के तहत संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण से संबंधित है।

राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ

  • अनुच्छेद-163: राज्यपाल महत्त्वपूर्ण परिस्थितियों में विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करता है, जैसे:
    • राज्य विधानसभा में किसी भी पार्टी के पास स्पष्ट बहुमत न होने पर मुख्यमंत्री की नियुक्ति करना।
    • सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव के मामले में कार्रवाई पर निर्णय लेना।
  • अनुच्छेद-356: संवैधानिक संकट में राज्यपाल की भूमिका
    • यदि राज्यपाल को लगता है कि राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो गया है, तो वे अनुच्छेद-356 के तहत राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर सकते हैं।

निष्कर्ष

केरल सरकार द्वारा दायर याचिका और तमिलनाडु के मामले द्वारा स्थापित मिसाल राज्यपालों तथा विपक्ष शासित राज्य सरकारों के बीच बढ़ते तनाव को उजागर करती है। विधेयकों की देरी से स्वीकृति या राष्ट्रपति को भेजे जाने से शासन की दक्षता एवं संवैधानिक अस्पष्टता पर चिंताएँ उत्पन्न हुई हैं।

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