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धर्मनिरपेक्षता संविधान का मुख्य भाग है: सर्वोच्च न्यायालय

Lokesh Pal October 24, 2024 12:24 101 0

संदर्भ

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढाँचे का एक अमिट तथा महत्त्वपूर्ण भाग है।

संबंधित तथ्य 

  • सर्वोच्च न्यायालय ने यह मौखिक टिप्पणी पूर्व राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी और अन्य द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए की, जिसमें संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ तथा ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल किए जाने को चुनौती दी गई थी।

समाजवादी (Socialist) और धर्मनिरपेक्ष (Secular) शब्दों को समाहित करना

  • संविधान (42वाँ संशोधन) अधिनियम, 1976: प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार के अंतर्गत देश में आपातकाल की अवधि के दौरान, 42वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए थे।
  • ‘समाजवादी’ (Socialist): इसका उद्देश्य भारतीय राष्ट्र के लक्ष्य और दर्शन के रूप में समाजवाद पर जोर देना था।
    • गरीबी उन्मूलन और समाजवाद के एक अनूठे स्वरूप को अपनाने पर ध्यान केंद्रित करना, जिसमें जहाँ आवश्यक हो केवल उन्ही विशिष्ट क्षेत्रों का ही राष्ट्रीयकरण शामिल हो।
  • ‘धर्मनिरपेक्ष’ (Secular): राष्ट्र के विचार के रूप में धर्मनिरपेक्ष की अवधारणा को सुदृढ़ किया गया, जिसमें सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करना, तटस्थता बनाए रखना तथा किसी विशेष धर्म को राज्य/राष्ट्र धर्म के रूप में समर्थन न देना।

धर्मनिरपेक्षता पर सर्वोच्च न्यायालय की हालिया टिप्पणी

  • मुख्य संवैधानिक सिद्धांत: ‘धर्मनिरपेक्षता’ भारतीय संविधान की मूल संरचना का एक अमिट भाग है। 
  • न्यायिक उदाहरण (Judicial Precedents): धर्मनिरपेक्षता संविधान का अभिन्न अंग है, जो समानता एवं बंधुत्व के अधिकार द्वारा समर्थित है।
    • उल्लेखनीय न्यायिक मामले
      • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (वर्ष 1973): सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धर्मनिरपेक्षता, संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा है।
      • एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (वर्ष 1994): सर्वोच्च  न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता के अर्थ पर विस्तार से चर्चा की। सर्वोच्च  न्यायालय ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करना है।
  • ‘समाजवाद’ की व्याख्या: समाजवाद को व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सीमित करने के बजाय अवसर की समानता और न्यायसंगत धन वितरण को बढ़ावा देने के रूप में देखा जाना चाहिए।
  • प्रस्तावना की अखंडता (Preamble Integrity): ‘प्रस्तावना’ भारतीय संविधान का अभिन्न अंग है और इसके मूल ढाँचे में बदलाव किए बिना इसमें संशोधन किया जा सकता है।
  • धर्मनिरपेक्षता ही मूल संरचना: न्यायालय ने कई निर्णयों में माना है कि धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा है।
    • यदि संविधान में ‘समानता’ और ‘बंधुत्व’ शब्द का प्रयोग किया गया है, तो स्पष्ट संकेत मिलता है कि धर्मनिरपेक्षता को संविधान की मुख्य विशेषता माना गया है।
  • 42वें संशोधन की आलोचना: 42वें संशोधन को धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की घोषणाओं को बरकरार रखते हुए न्यायिक शक्ति को कम करने के प्रयास के लिए ‘कुख्यात’ करार दिया गया है।

धर्मनिरपेक्षता (Secularism) के बारे में 

  • एक अवधारणा के रूप में धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य धर्म को जीवन के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों से अलग करना है, धर्म को पूरी तरह से व्यक्तिगत मामला मानना ​​है। 
  • इसके सामान्य तौर पर दो अर्थ हैं:-
    • धर्म को राज्य/राष्ट्र से अलग करना।
    • राज्य/राष्ट्र द्वारा सभी धर्मों को समान सम्मान दिया जाना।
  • हालाँकि, पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता तथा  भारतीय धर्मनिरपेक्षता में अंतर है।

पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता 

(Western Secularism)

भारतीय धर्मनिरपेक्षता 

(Indian Secularism)

धर्म और राष्ट्र के बीच पूर्ण पृथक्करण धर्मनिरपेक्षता की सकारात्मक अवधारणा, अर्थात् सभी धर्मों को समान सम्मान देना।
राज्य धार्मिक समुदायों द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों को वित्तीय सहायता नहीं दे सकता है। भारतीय संविधान धार्मिक स्कूलों के लिए आंशिक वित्तीय सहायता के साथ-साथ राष्ट्र द्वारा धार्मिक भवनों तथा बुनियादी ढाँचे के वित्तपोषण की भी अनुमति देता है।
राष्ट्र तथा धर्म का पारस्परिक बहिष्कार, अर्थात् एक दूसरे के मामलों में हस्तक्षेप न करना। राष्ट्र तथा धर्म के बीच सैद्धांतिक दूरी अर्थात् राष्ट्र, धर्म में हस्तक्षेप कर सकता है या धर्म से जुड़ सकता है।
कोई भी सार्वजनिक नीति केवल धर्म पर आधारित नहीं हो सकती, क्योंकि धर्म पूरी तरह से निजी मामला है। सरकार अक्सर धार्मिक आधार पर नीतियाँ बनाती है। उदाहरण: वक्फ बोर्ड का गठन आदि।

भारत में धर्मनिरपेक्षता: एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

  • ऋग्वैदिक युग में प्रकृति की पूजा: आर्यों के जीवन में प्रकृति की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।
    • ऋग्वेद में ऐसे मंत्र हैं, जो प्राकृतिक तत्त्वों जैसे सूर्य, चंद्रमा, आकाश, अग्नि और वर्षा के प्रति श्रद्धा दर्शाते है।
  • दार्शनिक विचार: कर्म की अवधारणा भारतीय संस्कृति में एक केंद्रीय विचार है।
    • कर्म सभी को समान रूप से बाँधता है, देवताओं एवं प्राणियों सहित।
  • गौतम बुद्ध और धर्मनिरपेक्ष शिक्षाएँ: गौतम बुद्ध की शिक्षाओं में ‘चार आर्य सत्य’ और ‘आठ मार्ग’ शामिल थे, जो जनता को धर्मनिरपेक्ष संदेश देते थे।
  • अशोक: उनके धर्म के नियम उदारवाद, दान और करुणा से चिह्नित थे।
    • उनका बारहवाँ शिलालेख न केवल सभी धार्मिक संप्रदायों के प्रति सहिष्णुता का एक भावुक आह्वान है, बल्कि उनके प्रति श्रद्धा की भावना विकसित करने का भी आह्वान है।
  • हर्षवर्धन: प्रयाग में अपनी पंचवर्षीय सभाओं में उन्होंने एक साथ शिव, सूर्य और बुद्ध की पूजा की तथा अपनी सारी संपत्ति धर्मगुरुओं को दान कर दी। 
  • भक्ति और सूफी आंदोलन: मध्यकालीन भारत में सूफी और भक्ति आंदोलनों ने भारतीय समाज के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को मजबूत किया। 
  • अकबर: अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया।
    • उसका ‘दीन-ए-इलाही’ भारतीय धर्मनिरपेक्ष विचार का एक उल्लेखनीय उदाहरण है।
    • इबादत खाना, या ‘उपासना का घर’, अकबर द्वारा वर्ष 1575 में फतेहपुर सीकरी में स्थापित किया गया था, ताकि विभिन्न धर्मों के विद्वानों के बीच अंतर-धार्मिक संवाद और चर्चा के लिए एक स्थान के रूप में कार्य किया जा सके।
    • उसने सुलह-ए-कुल (सभी के लिए शांति) के मूल्यों पर जोर दिया।
  • मराठा और सिख: 18वीं शताब्दी में मराठा शासन और 19वीं शताब्दी में सिख शासन ने भारत की धर्मनिरपेक्ष मिश्रित संस्कृति को आगे बढ़ाया।
    • पंजाब में रणजीत सिंह की धर्मनिरपेक्ष राजशाही में योग्यता आधारित शासन पर जोर दिया गया, जहाँ मुसलमानों को विश्वास एवं सेवा के महत्त्वपूर्ण पदों पर रखा गया।

भारत में धर्मनिरपेक्षता से संबंधित संवैधानिक प्रावधान

  • अनुच्छेद-14: कानून के समक्ष समानता के अधिकार की गारंटी देता है और धर्म के आधार पर भेदभाव को रोकता है।
  • अनुच्छेद-15: धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को रोकता है।
  • अनुच्छेद-16: धर्म की परवाह किए बिना सार्वजनिक रोजगार के मामलों में समान अवसर सुनिश्चित करता है।
  • अनुच्छेद-25: अंतरात्मा की स्वतंत्रता और धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने, अभ्यास करने तथा प्रचार करने के अधिकार की गारंटी देता है।
  • अनुच्छेद-26: धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने और धार्मिक तथा धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संस्थानों की स्थापना एवं रखरखाव का अधिकार प्रदान करता है।
  • अनुच्छेद-27: किसी भी धर्म के प्रचार या रखरखाव के लिए कर राजस्व के उपयोग को प्रतिबंधित करता है।
  • अनुच्छेद-28: राज्य द्वारा पूरी तरह से संचालित शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा को प्रतिबंधित करता है।
  • अनुच्छेद-29: अल्पसंख्यक समूहों को उनकी संस्कृति, भाषा और लिपि को संरक्षित करने का अधिकार प्रदान करके उनके हितों की रक्षा करता है।
  • अनुच्छेद-30: अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने का अधिकार देता है।
  • अनुच्छेद-51A: मौलिक कर्तव्यों की रूपरेखा तैयार करता है, जो सभी नागरिकों को सद्भाव और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने के साथ-साथ भारत की समग्र संस्कृति की समृद्ध विरासत को महत्त्व देने और संरक्षित करने के लिए बाध्य करता है।

धर्मनिरपेक्षीकरण (Secularisation)

  • धर्मनिरपेक्षीकरण से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिसके द्वारा धर्म सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अपना प्रभाव खो देता है, जिससे एक अधिक धर्मनिरपेक्ष समाज का निर्माण होता है, जहाँ शासन और सार्वजनिक जीवन धार्मिक संस्थाओं से स्वतंत्र होते हैं। 
  • शहरीकरण, शिक्षा, वैश्वीकरण धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने वाले कुछ कारक हैं।
  •  धर्मनिरपेक्षीकरण विविध धार्मिक और सांस्कृतिक समूहों के बीच सहिष्णुता और सह-अस्तित्व को बढ़ावा देकर अधिक सामाजिक सामंजस्य को जन्म दे सकता है।

धर्मनिरपेक्षता के भारतीय मॉडल की आलोचनाएँ 

  • अस्पष्ट परिभाषा: इसमें स्पष्ट परिभाषा का अभाव है, जिससे धर्म और राज्य के बीच की सीमाओं को समझना जटिल हो जाता है।
  • सकारात्मक भेदभाव: विशिष्ट धार्मिक समूहों के पक्ष में नीतियाँ समानता के सिद्धांत को कमजोर कर सकती हैं।
    • नागरिकों को धर्म के आधार पर वर्गीकृत करने से एकता के बजाय विभाजन को बढ़ावा मिलेगा।
  • वोट बैंक की राजनीति: आलोचकों का कहना है कि धर्मनिरपेक्षता वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है। जबकि राजनेताओं द्वारा वोट माँगना एक लोकतांत्रिक मानदंड है, ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि क्या ये कार्य वास्तव में लक्षित समूहों को लाभ पहुँचाते है।
  • राज्य का हस्तक्षेप: धार्मिक मामलों में सरकार की भागीदारी, जैसे कि मंदिरों का प्रबंधन या विभिन्न समुदायों के लिए व्यक्तिगत कानून, राज्य की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति पर सवाल उठाती है।
    • आलोचकों का तर्क है कि यह हस्तक्षेप धार्मिक संस्थाओं की स्वायत्तता का उल्लंघन कर सकता है।
  • अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक अधिकार: अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा करने से कभी-कभी बहुसंख्यक समुदाय हाशिए पर चला जाता है। इससे बहुसंख्यकों में अलगाव की भावना उत्पन्न हो सकती है।
  • समान नागरिक संहिता का अभाव: समान नागरिक संहिता के अभाव को अक्सर भारतीय धर्मनिरपेक्षता की विफलता के रूप में उद्धृत किया जाता है। आलोचकों का तर्क है कि विभिन्न समुदायों के लिए अलग-अलग व्यक्तिगत कानून भेदभाव और असमानता को बढ़ावा दे सकते हैं, जिससे धर्मनिरपेक्ष लोकाचार कमजोर हो सकता है।

राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को खतरा पहुँचाने वाले कारक

  • धर्म और राजनीति के बीच सामंजस्य: धार्मिक, जातिगत या नृजातीय पहचान के आधार पर वोट माँगना राज्य की तटस्थता को कमजोर करता है और धर्मनिरपेक्षता को खतरे में डालता है।
  • आर्थिक असमानता: आर्थिक असमानताओं को दूर करने में विफलता सामाजिक अशांति को जन्म दे सकती है, जिसका धार्मिक समूह समर्थन प्राप्त करने के लिए लाभ उठा सकते है।
    • सच्चर समिति (Sachar Committee) ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि यद्यपि मुसलमान भारत की जनसंख्या का 14% हैं, लेकिन भारतीय नौकरशाही में उनकी हिस्सेदारी केवल 2.5% है।
  • सांप्रदायिक राजनीति: मिथकों, रूढ़ियों और विभाजनकारी वैचारिक प्रचार के माध्यम से सामाजिक स्थानों का सांप्रदायिकीकरण अल्पसंख्यक समूहों को निशाना बनाता है और तर्कसंगत मूल्यों को नष्ट करता है।
  • अंतर-धार्मिक संघर्ष: जब एक धार्मिक समूह का राजनीतीकरण होता है, तो यह अक्सर अन्य समूहों द्वारा इसी तरह की कार्रवाइयों को बढ़ावा देता है, जिससे अंतर-धार्मिक तनाव बढ़ता है।
  • सांप्रदायिक हिंसा: सांप्रदायिक दंगे भारत के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे के लिए एक बड़ा खतरा बने हुए हैं, सांप्रदायिकता की हालिया घटनाओं ने हिंसा को जन्म दिया है। 
    • उदाहरण: वर्ष 2020 के दिल्ली दंगे।
  • हिंदू राष्ट्रवाद (Hindu Nationalism) का उदय: हिंदू राष्ट्रवाद के कारण भीड़ द्वारा हत्या की घटनाएँ बढ़ी हैं, बूचड़खानों को जबरन बंद किया गया है तथा ‘लव जिहाद’ तथा घर वापसी जैसी प्रथाओं के विरुद्ध अभियान चलाए गए हैं, जिससे सांप्रदायिक प्रवृत्तियाँ तेज हुई हैं।
  • भेदभावपूर्ण कानून: नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) जैसे कानूनों को भेदभावपूर्ण माना जाता है, जो विशेष रूप से कुछ धार्मिक समूहों को लक्षित करते हैं, जिससे धार्मिक अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना बढ़ती है।
  • इस्लामी कट्टरवाद: शरिया कानून पर आधारित इस्लामी राज्य की स्थापना के लिए आंदोलन भारत के धर्मनिरपेक्ष तथा  लोकतांत्रिक आदर्शों के साथ टकराव करते हैं, जिससे तनाव उत्पन्न होता है।
  • कट्टरपंथ:  ISIS जैसे समूहों द्वारा मुस्लिम युवाओं को कट्टरपंथी बनाए जाने के उदाहरण, हालाँकि दुर्लभ हैं, लेकिन ये भारत की धर्मनिरपेक्षता और वैश्विक शांति दोनों के लिए गंभीर चुनौती प्रस्तुत करते हैं।

धार्मिक मामलों में न्यायपालिका का हस्तक्षेप भारत में धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करने के लिए न्यायपालिका का हस्तक्षेप 

  • अनिवार्यता का सिद्धांत (Doctrine of Essentiality): अनिवार्यता का सिद्धांत वर्ष 1954 के शिरूर मठ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के सात न्यायाधीशों की पीठ द्वारा स्थापित किया गया था। शिरूर मठ मामला कर्नाटक में लिंगायत समुदाय के धार्मिक संस्थान शिरूर मठ के प्रबंधन के संबंध में विवाद से उत्पन्न हुआ था।
    • इस फैसले ने न्यायपालिका पर आवश्यक तथा अनावश्यक धार्मिक प्रथाओं के बीच अंतर करने की जिम्मेदारी डाल दी, जिसका उद्देश्य केवल उन प्रथाओं की रक्षा करना था, जो किसी धर्म के लिए आवश्यक मानी जाती हैं।
    • आवश्यक धार्मिक अभ्यास परीक्षण का उद्देश्य केवल उन धार्मिक प्रथाओं की रक्षा करना है, जिन्हें धर्म के लिए आवश्यक एवं अभिन्न माना जाता है, जिससे अनावश्यक प्रथाओं के लिए सुरक्षा का दायरा सीमित हो जाता है।
    • यह सिद्धांत सामुदायिक मान्यताओं को संवैधानिक सिद्धांतों के साथ संतुलित करने के प्रयास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
      • उदाहरण: सबरीमाला मामला (वर्ष 2018), जहाँ सर्वोच्च न्यायालय ने सभी उम्र की महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने के अधिकार को बरकरार रखा, जिससे पारंपरिक धार्मिक रीति-रिवाजों पर लैंगिक समानता को मजबूती मिली।
  • भेदभाव न करना: न्यायालयों ने धर्म, जाति या लिंग के आधार पर व्यक्तियों को भेदभाव से बचाने के लिए हस्तक्षेप किया है तथा कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत को बनाए रखते हुए धर्मनिरपेक्षता सुनिश्चित की है।
    • उदाहरण: शाहबानो मामला (वर्ष 1985), जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय सुनिश्चित करने के लिए व्यक्तिगत धार्मिक कानून को दरकिनार करते हुए एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को गुजारा भत्ता देने का निर्णय दिया।
  • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाली प्रथाओं पर अंकुश लगाना: तीन तलाक मामले (वर्ष 2017) में, सर्वोच्च न्यायालय ने तत्काल तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया, जिससे मुस्लिम महिलाओं को मनमाने ढंग से तलाक देने से सुरक्षा मिली।
  • धार्मिक स्वतंत्रता और सामाजिक सुधार में संतुलन: शनि शिंगणापुर मामला (वर्ष 2016), जिसमें बॉम्बे उच्च न्यायालय ने मंदिर के गर्भगृह में महिलाओं के प्रवेश के अधिकार को बरकरार रखा, जिससे धार्मिक स्थलों में लैंगिक समानता सुनिश्चित हुई।
  • मंदिर प्रबंधन में हस्तक्षेप: पद्मनाभस्वामी मंदिर मामला (वर्ष 2020), जहाँ सर्वोच्च न्यायालय ने मंदिर प्रशासन पर विवादों को सुलझाने और सार्वजनिक कल्याण के लिए मंदिर की संपत्ति की रक्षा करने के लिए हस्तक्षेप किया।

  • संविधान के अनुच्छेद-44 (राज्य के नीति निदेशक तत्त्व) में कहा गया है कि ‘राज्य भारत के संपूर्ण क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।’
  • इसका अनिवार्य रूप से तात्पर्य देश के सभी नागरिकों के लिए, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने वाले कानूनों का एक सामान्य समूह है।

भारत में धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करने के उपाय

  • समान नागरिक संहिता (UCC): UCC को लागू करने से यह सुनिश्चित होगा कि सभी नागरिक, चाहे उनकी धार्मिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो, धर्मनिरपेक्ष कानूनों के एक समान समूह द्वारा शासित होंगे, समानता को बढ़ावा देंगे और धर्म आधारित कानूनी मतभेदों को समाप्त करेंगे।
  • धर्मनिरपेक्ष शिक्षा: धर्मनिरपेक्ष शिक्षा को बढ़ावा देना जो सहिष्णुता, विविधता और धर्म को राज्य के मामलों से अलग करने के महत्त्व पर जोर देती है, एक ऐसी मानसिकता को बढ़ावा देती है, जो सभी विश्वासों का सम्मान करती है।
  • न्यायिक संगतता (Judicial Consistency): धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या में न्यायिक संगतता सुनिश्चित करना, जिसमें न्यायालय संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावना को बनाए रखने के लिए व्यक्तिगत अधिकारों और समानता की रक्षा करना।
  • अंतधार्मिक संवाद: विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच आपसी समझ को बढ़ावा देने, सांप्रदायिक तनाव को कम करने और सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए अंतरधार्मिक संवाद और सामुदायिक जुड़ाव की सुविधा प्रदान करना।
  • भेदभाव-विरोधी कानून: घृणा फैलाने वाले भाषण, सांप्रदायिक हिंसा और किसी भी प्रकार के धार्मिक भेदभाव से निपटने के लिए भेदभाव-विरोधी कानूनों को मजबूत करना, जिससे धर्मनिरपेक्षता की रक्षा हो सके।
  • धार्मिक संस्थाओं की स्वायत्तता: धार्मिक संस्थाओं की स्वायत्तता बनाए रखना, जबकि यह सुनिश्चित करना कि वे राज्य के अनुचित हस्तक्षेप या पक्षपात के बिना धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों का पालन करें।
  • मीडिया का उत्तरदायित्व: धार्मिक मुद्दों की निष्पक्ष, पक्षपात रहित कवरेज को प्रोत्साहित करके तथा सांप्रदायिक विद्वेष को बढ़ावा देने वाली सनसनीखेज बातों को हतोत्साहित करके मीडिया के उत्तरदायित्व को बढ़ावा देना।

निष्कर्ष

धर्म का राजनीतीकरण समूहों के बीच संघर्ष को बढ़ा सकता है, जिससे सामाजिक सद्भाव कमजोर हो सकता है। भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में एकता बनाए रखने के लिए धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करना आवश्यक है।

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