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राज्य को प्रत्येक निजी संपत्ति अधिग्रहित करने का अधिकार नहीं: सर्वोच्च न्यायालय

Lokesh Pal November 07, 2024 02:13 51 0

संदर्भ

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि निजी हितधारकों के स्वामित्व वाला प्रत्येक संसाधन संविधान के अनुच्छेद-39(b) के तहत ‘सार्वजनिक कल्याण’ (Common Good) के लिए सरकार द्वारा उपयोग योग्य नहीं है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-39(b) पर सर्वोच्च न्यायालय के संबंधित निर्णय

  • कर्नाटक राज्य बनाम श्री रंगनाथ रेड्डी मामला (वर्ष 1977)
    • न्यायालय ने निर्णय दिया कि निजी स्वामित्व वाले संसाधन ‘समुदाय के भौतिक संसाधनों’ के अंतर्गत नहीं आते हैं।
    • इस निर्णय पर न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने असहमति जताई थी।
  • वर्ष 1977 रंगनाथ रेड्डी बनाम कर्नाटक राज्य मामले में कृष्ण अय्यर की असहमति: न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने यह व्याख्या प्रस्तुत की थी कि निजी हितधारकों के स्वामित्व वाले संसाधन ‘समुदाय के भौतिक संसाधन’ (Material Resources of the Community) के रूप में कार्य कर सकते हैं।
  • संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम भारत कोकिंग कोल मामला (वर्ष 1983): सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीश कृष्ण अय्यर के विचार की पुष्टि की तथा कहा कि निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को समुदाय के भौतिक संसाधन माना जाना चाहिए।
  • मफतलाल इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम भारत संघ मामला (वर्ष 1996): उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-39(b) के तहत भौतिक संसाधनों में प्राकृतिक, भौतिक, चल तथा अचल संपत्ति सहित सार्वजनिक एवं निजी दोनों संसाधन शामिल हैं।

संबंधित तथ्य

  • सर्वोच्च न्यायालय की 9 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने बहुमत के निर्णय में राज्य की अधिग्रहण की ऐसी शक्ति को खारिज कर दिया।

पृष्ठभूमि

  • याचिका के आधार पर संवैधानिक पीठ को संदर्भित किया गया: संवैधानिक पीठ को भेजा गया यह संदर्भ संपत्ति मालिक संघ (Property Owners Association- POA) सहित विभिन्न पक्षों द्वारा दायर याचिकाओं पर आधारित था। 
  • याचिकाकर्ताओं ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-39 (b) और अनुच्छेद-31 C की संवैधानिक योजनाओं के परिप्रेक्ष्य में राज्य द्वारा निजी संपत्तियों पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता है।
    • वर्ष 1992 में संपत्ति मालिक संघ (POA) द्वारा दायर मुख्य याचिका सहित कुल 16 याचिकाओं पर विचार किया गया।
    • मामले को तीन बार पाँच और सात न्यायाधीशों की संवैधानिक बेंचों को भेजा गया था।
    • 20 फरवरी, 2002 को मामले को 9 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ को भेजा गया था।

संपत्ति अधिकार (Property Rights) के बारे में

  • गुरुदत्त शर्मा बनाम बिहार राज्य मामले में (वर्ष 1961): सर्वोच्च न्यायालय ने संपत्ति को ‘अधिकारों के समूह’ (Bundle of Rights) के रूप में परिभाषित किया।
    • मूर्त संपत्ति के मामले में, इसमें शामिल होंगे: स्वामित्व का अधिकार (Right of Possession), उपभोग का अधिकार (Right to Enjoy), सुरक्षित रखने का अधिकार (Right to Retain), हस्तांतरित करने का अधिकार (Right to Alienate), नष्ट करने का अधिकार (Right to Destroy) आदि।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत व्याख्या: इस तथ्य के बावजूद कि मौलिक अधिकार के रूप में संपत्ति के अधिकार को निरस्त कर दिया गया है, इस अधिकार की व्याख्या अभी भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के एक पहलू के रूप में की जा सकती है।

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रमुख मुद्दे

  • अनुच्छेद-31C का अस्तित्व: क्या अनुच्छेद-31C, जो संपत्ति के अधिकार से संबंधित प्रमुख संवैधानिक प्रावधान है, बाद के संशोधनों और संशोधनों को खारिज करने वाले न्यायालय के निर्णयों के बावजूद अस्तित्व में है।
    • वर्ष 2024 में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रश्न यह था कि क्या सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1978-1980 के बीच अनुच्छेद-31C को पूरी तरह से निरस्त कर दिया था या फिर केशवानंद भारती के बाद की स्थिति को बहाल कर दिया था, जिसमें अनुच्छेद-39(b) और अनुच्छेद-39 (C) संरक्षित रहे थे।
  • अनुच्छेद-39(b) की व्याख्या: क्या सरकार निजी स्वामित्व वाली संपत्तियों का अधिग्रहण तथा पुनर्वितरण कर सकती है, यदि उन्हें संविधान के अनुच्छेद-39(b) में उल्लिखित ‘समुदाय के भौतिक संसाधन’ (Material Resources of the Community) के रूप में माना जाता है।

न्यायमूर्ति धूलिया की असहमतिपूर्ण राय

  • निर्णय को गैर-संपूर्ण कारकों तक सीमित करता है: बहुमत के निर्णय का मानना ​​है कि सभी निजी स्वामित्व वाले संसाधन ‘समुदाय के भौतिक संसाधन’ नहीं हैं, ‘विधायिका के दायरे को कारकों की एक गैर-संपूर्ण सूची तक सीमित करता है ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि किन संसाधनों को भौतिक संसाधन माना जा सकता है,’ और, ‘इस पूर्व-निर्धारित निर्धारण की कोई आवश्यकता नहीं है।’
  • विधायिका का विशेषाधिकार: यह निर्णय करना विधानमंडल का कार्य है कि सामान्य कल्याण के लिए भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण किस प्रकार वितरित किया जाए।

सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य टिप्पणियाँ

  • समाजवादी अर्थव्यवस्था से बाजार अर्थव्यवस्था की ओर बदलाव: मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने बहुमत की राय में न्यायमूर्ति अय्यर के विचार को ‘एक विशेष विचारधारा’ (Particular Ideology) के रूप में खारिज कर दिया।
    • न्यायालय ने कहा कि भारत समाजवाद से उदारीकरण तथा फिर बाजार आधारित सुधारों की ओर बढ़ चुका है।
    • भारतीय अर्थव्यवस्था पहले ही सार्वजनिक निवेश के प्रभुत्व से सार्वजनिक तथा निजी निवेश के सह-अस्तित्व में परिवर्तित हो चुकी है।
  • कठोर आर्थिक सिद्धांत: यह व्याख्या कि प्रत्येक निजी स्वामित्व वाली संपत्ति का उपयोग, राज्य द्वारा ‘सार्वजनिक कल्याण के लिए’ (Subserve the Common Good) भौतिक संसाधन के रूप में किया जा सकता है, एक ‘कठोर आर्थिक सिद्धांत’ (Rigid Economic Theory) की परिकल्पना करता है, जो निजी संसाधनों पर राज्य के अधिक नियंत्रण की वकालत करता है। 
  • आर्थिक लोकतंत्र और संवैधानिक ढाँचा: इस निर्णय ने भारतीय संविधान में निहित आर्थिक लोकतंत्र की अवधारणा की पुष्टि की।
    • इसने स्वीकार किया कि आर्थिक संसाधनों को विनियमित करने में राज्य की भूमिका है, लेकिन इस भूमिका का निर्वहन संयम के साथ तथा लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप किया जाना चाहिए।
    • निजी संपत्ति के राज्य अधिग्रहण को प्राथमिकता देने वाली एकल विचारधारा को लागू करना हमारे संवैधानिक ढाँचे के मूल्यों एवं सिद्धांतों को कमजोर करेगा।
  • अनुच्छेद-39(b) की रूपरेखा: अनुच्छेद-39(b) नीति को अनिवार्य बनाता है, जो समुदाय के भौतिक संसाधनों के स्वामित्व एवं नियंत्रण को निर्देशित करता है ताकि सार्वजनिक कल्याण के लिए सर्वोत्तम वितरण किया जा सकता है।
    • विस्तृत दृष्टिकोण नहीं माना जा सकता है: न्यायालय ने माना कि ‘सैद्धांतिक रूप से’ (Theoretically) निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को समुदाय के भौतिक संसाधनों के रूप में माना जा सकता है, हालाँकि एक विस्तृत दृष्टिकोण नहीं लिया जा सकता है।
  • ‘भौतिक संसाधनों’ के प्रति संदर्भ आधारित दृष्टिकोण: न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद-39(b) में ‘संसाधन’ शब्द को संदर्भ के अनुसार देखा जाना चाहिए।
    • किसी संसाधन को समुदाय के भौतिक संसाधन के रूप में प्राप्त किया जा सकता है या नहीं, यह कई ‘गैर-संपूर्ण कारकों’ पर निर्भर करेगा जैसे:-
      • संसाधन की प्रकृति एवं विशेषताएँ।
      • क्या इसका अधिग्रहण समुदाय के कल्याण के लिए आवश्यक है?
      • संसाधन की कमी की मात्रा।
      • कुछ निजी व्यक्तियों या संस्थाओं के हाथों में संसाधन के संकेंद्रण के परिणाम।
    • न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि निजी स्वामित्व वाले प्रत्येक संसाधन को स्वचालित रूप से सार्वजनिक उपयोग या सार्वजनिक कल्याण के लिए आवश्यक नहीं माना जा सकता है।
      • उदाहरण के लिए, मकान तथा वाहन जैसी निजी परिसंपत्तियों को केवल इसलिए समुदाय के संसाधन के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता क्योंकि वे निजी स्वामित्व में हैं।
  • अनुच्छेद-31C के अस्तित्व पर: उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-31C पर केशवानंद मामले के बाद की स्थिति बहाल हो गई है, यानी राज्य सार्वजनिक कल्याण के लिए भौतिक संसाधनों को पुनर्वितरित करने का प्रयास कर सकता है [भारतीय संविधान के अनुच्छेद-39(b) के तहत]। 
    • यह संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन नहीं कर सकता, जिसमें निजी संपत्ति का अधिकार (44वें संशोधन के बाद अनुच्छेद-300A के तहत संरक्षित) भी शामिल है।
    • राज्य को निजी संपत्ति का अधिग्रहण करते समय उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए मौलिक अधिकारों का सम्मान करना चाहिए।

संपत्ति के अधिकारों पर संवैधानिक दृष्टिकोण

  • अनुच्छेद-19(1)(f): मूल रूप से संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में गारंटी दी गई थी।
  • अनुच्छेद-31: विधि की उचित प्रक्रिया के बिना संपत्ति से वंचित करने के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान की गई।
  • मौलिक अधिकार मामला/ केशवानंद भारती मामला (वर्ष 1973): सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संपत्ति का अधिकार संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा नहीं है और इसलिए,
    • संसद संबंधित व्यक्ति की निजी संपत्ति को संबंधित अच्छे एवं सार्वजनिक हित के लिए अधिग्रहित या नियंत्रित कर सकती है।
  • भारतीय संविधान की नौवीं अनुसूची: संपत्ति के अधिकार से संबंधित कानूनों सहित कुछ कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाती है।
  • वर्ष 1978 का 44वाँ संशोधन अधिनियम: इसने संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों से हटा दिया और इसे कानूनी अधिकार के रूप में अनुच्छेद-300A के अंतर्गत रखा।
  • अनुच्छेद-300A: यह मनमाने ढंग से संपत्ति से वंचित करने के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है, लेकिन संपत्ति को मौलिक अधिकार के रूप में गारंटी नहीं देता है।
  • राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy – DPSP): अनुच्छेद-36 से अनुच्छेद-51 कानून बनाने के लिए मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में कार्य करते हैं, लेकिन ये न्यायालयों में लागू नहीं होते हैं।
    • अनुच्छेद-39(b) राज्य को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देता है कि भौतिक संसाधनों का वितरण सार्वजनिक कल्याण के लिए सर्वोत्तम तरीके से किया जाए।
    • अनुच्छेद-39(c) का उद्देश्य सार्वजनिक कल्याण के लिए धन एवं उत्पादन के साधनों के संकेंद्रण को रोकना है।
  • अनुच्छेद-31C: DPSP को लागू करने वाले कानूनों का संरक्षण
    • अनुच्छेद-31C के तहत, अनुच्छेद-39(b) और अनुच्छेद-39(c) में निदेशक सिद्धांतों को लागू करने वाले कानूनों को अनुच्छेद-14 (समानता का अधिकार) या अनुच्छेद-19 (वाक् और सभा जैसी मौलिक स्वतंत्रता) का उल्लंघन करने के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
    • केशवानंद भारती मामले (वर्ष 1973) में, न्यायालय ने अनुच्छेद-31C की वैधता को बरकरार रखा, लेकिन स्पष्ट किया कि ऐसे कानून अभी भी न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन नहीं करते हैं।
  • संपत्ति अधिग्रहण के बदले मुआवजे पर उच्चतम न्यायालय का दृष्टिकोण: राज्य किसी व्यक्ति की संपत्ति सार्वजनिक उद्देश्य के लिए ले सकता है, लेकिन उसे मुआवजा देना होगा। यह मुआवजा संपत्ति के मूल्य के बराबर होना आवश्यक नहीं है, लेकिन यह उचित होना चाहिए।

राज्य द्वारा धन के पुनर्वितरण के समर्थन में कारण

  • धन का निष्पक्ष और न्यायसंगत वितरण: समाज के सभी वर्गों के सामान्य हितों की पूर्ति करने के लिए धन का निष्पक्ष और न्यायसंगत वितरण आवश्यक है।
  • संपत्ति का सामाजीकरण (Socialisation of Property): व्यक्तिगत स्वामित्व और अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, संपत्ति के सामाजीकरण पर जोर दिया गया है।
    • यह सुनिश्चित करने के लिए कि संपत्ति तथा संसाधन इस तरह वितरित किए जाएँ, जिससे सामूहिक कल्याण का लाभ हो, न कि कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित हों।
    • यह दृष्टिकोण सामाजिक न्याय तथा आर्थिक समानता को बढ़ावा देना चाहता है।
  • गरीबी उन्मूलन: हाशिए पर पड़े समूहों के जीवन स्तर को ऊपर उठाता है और गरीबी को कम करता है।
  • सामाजिक अशांति को रोकना: असमानता से प्रेरित तनाव को कम करना और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देना। 
  • संवैधानिक अधिदेश: सभी नागरिकों के कल्याण को बढ़ावा देने और कल्याणकारी राज्य के आदर्श को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक दायित्वों के साथ संरेखित करना।

राज्य द्वारा धन का पुनर्वितरण

  • यह सरकार की उन कार्रवाइयों को संदर्भित करता है, जो अमीरों से गरीबों को धन हस्तांतरित करती है। उदाहरण के रूप में प्रगतिशील कराधान, सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों, सार्वजनिक सेवाओं और धन हस्तांतरण जैसे तरीकों के माध्यम से धन का हस्तांतरण किया जाता है। 
  • इसका लक्ष्य आर्थिक असमानता को कम करने और सभी नागरिकों के लिए बुनियादी जीवन स्तर की सुविधाएँ सुनिश्चित करना होता है।

राज्य द्वारा धन के पुनर्वितरण के विरुद्ध कारण

  • संपत्ति अधिकारों का उल्लंघन: संपत्ति का पुनर्वितरण निजी संपत्ति के अधिकार का उल्लंघन माना जा सकता है, जो संविधान द्वारा गारंटीकृत व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वामित्व अधिकारों को कमजोर करता है।
  • राज्य ‘प्रतिकूल नियंत्रण’ के माध्यम से स्वामित्व का दावा नहीं कर सकता: राज्य ‘प्रतिकूल नियंत्रण’ (Adverse Possession) की अवधारणा के माध्यम से निजी संपत्ति पर अतिक्रमण नहीं कर सकता तथा स्वामित्व का दावा नहीं कर सकता। ऐसा करने से राज्य अतिक्रमणकारी बन जाता है।
    • ‘प्रतिकूल नियंत्रण’ की अवधारणा इस विचार से उपजी है कि भूमि को खाली नहीं छोड़ा जाना चाहिए, बल्कि इसका विवेकपूर्ण उपयोग किया जाना चाहिए।
    • मूलतः, प्रतिकूल कब्जे का तात्पर्य संपत्ति के प्रतिकूल नियंत्रण से है, जो ‘निरंतर, निर्बाध एवं शांतिपूर्ण’ होना चाहिए।
  • मुक्त बाजार सिद्धांतों का क्षरण: धन पुनर्वितरण अहस्तक्षेप अर्थशास्त्र को कमजोर करता है, जिसके परिणामस्वरूप संसाधनों का कम कुशल आवंटन होता है और समग्र धन सृजन में कमी आती है।
    • राज्य हमेशा मुक्त बाजार की तरह धन के वितरण में उतना प्रभावी नहीं हो सकता है। 
    • व्यवसायों तथा व्यक्तियों को निवेश करने या अपनी गतिविधियों का विस्तार करने के लिए कम प्रोत्साहन मिल सकता है।
  • कड़ी मेहनत तथा नवाचार के प्रति हतोत्साहन: इससे व्यक्तियों की कड़ी मेहनत करने या नवाचार करने की प्रेरणा कम हो सकती है, क्योंकि उन्हें लग सकता है कि उनके प्रयासों को पर्याप्त रूप से पुरस्कृत नहीं किया जा रहा है।
  • बढ़ती निर्भरता: निरंतर पुनर्वितरण से सरकारी सहायता पर निर्भरता बढ़ सकती है, जिससे नागरिकों में आत्मनिर्भरता एवं व्यक्तिगत जिम्मेदारी की भावना कम हो सकती है।
    • यह व्यक्तियों को वित्तीय जोखिम उठाने या गलत निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है, यह जानते हुए कि राज्य इसके परिणामों को कम करने के लिए हस्तक्षेप करेगा।
  • संघर्ष तथा सामाजिक अशांति उत्पन्न करने की संभावना: इससे धनी लोगों में असंतोष उत्पन्न हो सकता है, जिससे विभिन्न आर्थिक वर्गों के बीच सामाजिक विभाजन एवं संघर्ष उत्पन्न हो सकता है।

राज्य द्वारा संपत्ति के पुनर्वितरण में राज्य के सामने आने वाली चुनौतियाँ

  • कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति: राजनीतिक नेतृत्व में संसाधनों के समान वितरण के लिए नीतियों को लागू करने के लिए दृढ़ संकल्प की कमी हो सकती है, विशेष रूप से निहित स्वार्थों की शक्तिशाली पैरवी के सामने।
  • ‘समुदाय के भौतिक संसाधनों’ को परिभाषित करने में अस्पष्टता: स्पष्टता का अभाव विभिन्न क्षेत्रों में पुनर्वितरण नीति के सुसंगत अनुप्रयोग में बाधा उत्पन्न कर सकता है, क्योंकि विभिन्न प्राधिकारियों के पास इस बारे में अलग-अलग विचार हो सकते हैं कि सार्वजनिक कल्याण के लिए पुनर्वितरित किए जाने वाले संसाधनों का क्या अर्थ है।
  • संवैधानिक बाधाएँ: संसाधनों के पुनर्वितरण के प्रयासों को अक्सर भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद-19 (निवास और बसने के अधिकार) के तहत कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
  • आर्थिक बाधाएँ: भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था में, संसाधनों को अर्जित करने और पुनर्वितरित करने की राज्य की राजकोषीय क्षमता सीमित हो सकती है।

आगे की राह 

  • न्यायिक स्पष्टता बढ़ाना: न्यायपालिका को अनुच्छेद-300A के तहत संपत्ति के अधिकारों की स्पष्ट तथा सुसंगत व्याख्या प्रदान करनी चाहिए, विशेष रूप से राज्य के हस्तक्षेप और निजी स्वामित्व की सीमाओं के संबंध में।
  • कमजोर समूहों के लिए संपत्ति अधिकारों को बढ़ावा देना: महिलाओं, आदिवासियों और ग्रामीण आबादी जैसे हाशिए पर पड़े समुदायों के लिए बेहतर संपत्ति अधिकारों की दिशा में कार्य करना।
    • उदाहरण: अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 का उद्देश्य वन में रहने वाले आदिवासी समुदायों के भूमि अधिकारों को मान्यता देना है, लेकिन धीमी गति से कार्यान्वयन के कारण कई लोग अपने स्वामित्व की कानूनी मान्यता से वंचित रह गए है।
  • आर्थिक विकास और संपत्ति अधिकारों में संतुलन: यह सुनिश्चित करना कि आर्थिक विकास के लिए कानून एवं नीतियाँ, जैसे कि बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण, सार्वजनिक कल्याण को संतुलित करते हुए संपत्ति अधिकारों का सम्मान करे।
    • निजी संपत्ति के राज्य अधिग्रहण की व्यापक व्याख्या को अस्वीकार करके, न्यायालय ने आर्थिक लोकतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्त्व की पुनः पुष्टि की है।

निष्कर्ष

भारत में संपत्ति के अधिकार और राज्य की शक्ति पर चर्चा के लिए सर्वोच्च न्यायालय का यह ऐतिहासिक निर्णय महत्त्वपूर्ण है।

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