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भारतीय न्यायपालिका में असहमति की प्रकृति

Lokesh Pal January 02, 2025 03:47 35 0

संदर्भ

न्यायपालिका किसी भी देश के कार्यप्रणाली का एक अभिन्न अंग है और असहमति से मुक्त नहीं हो सकती, चाहे वह आपसी मतभेद हो या सामाजिक स्तर पर।

असहमति (Dissent) 

  • असहमति, किसी निर्णय या राय के प्रति तीव्र असंतोष होता है, विशेष रूप से वह जिसे अधिकांश लोगों या प्राधिकारियों द्वारा समर्थन प्राप्त हो।
  • असहमति के लिए संवैधानिक स्थिति: भारतीय संविधान के अनुच्छेद-19 की व्याख्या के माध्यम से असहमति के अधिकार को अप्रत्यक्ष रूप से भारत में मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है। इन तीन विशिष्ट अधिकारों का संयोजन भारतीयों को अपने विपरीत विचार व्यक्त करने में सक्षम बनाता है।
    • अनुच्छेद-19(a): यह सभी नागरिकों को वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। 
    • अनुच्छेद-19(b): यह उन्हें शांतिपूर्वक और बिना किसी हथियार के एकत्रित होने का अधिकार देता है। 
    • अनुच्छेद-19(c): यह नागरिकों को संघ या संगठन बनाने की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है।
  • असहमति और लोकतंत्र: यह वह आधारशिला है, जिस पर जीवंत लोकतंत्र का निर्माण होता है। स्वतंत्रता को महत्त्व देने वाले समाजों में, सवाल करने, चुनौती देने और यहाँ तक ​​कि आलोचना करने के अधिकार को न केवल शामिल किया जाता है बल्कि नागरिक जीवन के एक आवश्यक घटक के रूप में मनाया जाता है।
  • लोकतंत्र में असहमति का महत्त्व
    • असहमति नहीं, लोकतंत्र नहीं: परिभाषा के अनुसार, लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें नेतृत्व विभिन्न विचारों वाले विविध लोगों द्वारा चुना जाता है, जिन्हें अपने हितों को आगे बढ़ाने और अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार है। इस प्रकार लोकतंत्र तभी कार्य कर सकता है, जब असहमति को सहन किया जाए और प्रोत्साहित किया जाए।
    • नागरिक अधिकारों की रक्षा करता है: असहमति और मतभेद नागरिकों, विशेषकर वंचित और हाशिए पर पड़े लोगों के नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
    • बहुसंख्यकवाद को प्रतिबंधित करना: बहुसंख्यकवाद लोकतंत्र का विरोधी है क्योंकि यह जवाबदेही की माँग नहीं करता है।
    • नागरिक भागीदारी को सक्षम बनाता है: लोकतंत्र का सार है प्रत्येक नागरिक की भागीदारी न केवल चुनावी प्रक्रिया में बल्कि देश के संचालन में भी। यह अधिकार तब निरर्थक हो जाता है, जब कोई व्यक्ति सरकार के कार्यों की आलोचना नहीं कर सकता है।

न्यायपालिका में असहमति के उदाहरण

पिछले कई वर्षों में भारतीय न्यायिक असहमतियाँ राजनीतिक से लेकर सामाजिक और विशुद्ध बौद्धिक असहमतियों तक विविध रही हैं।

  • राजनीतिक राय के विरुद्ध: कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से भारतीय न्यायिक नियुक्तियों ने इसे उस समय के राजनीतिक विचारों के साथ प्रत्यक्ष जुड़ाव से बचाया है। न्यायाधीशों की ओर से उल्लेखनीय राजनीतिक असहमति वाली टिप्पणियाँ हैं:-
    • एडीएम जबलपुर (1976) केस: न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना ने इस प्रश्न पर बहुमत वाले पैनल से असहमति जताई कि क्या अनुच्छेद-359 के अंतर्गत राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान अनुच्छेद-21 सहित मौलिक अधिकारों का प्रवर्तन निलंबित रहा था।
    • पी वी नरसिम्हा राव (1998) केस: न्यायमूर्ति एस. सी. अग्रवाल और न्यायमूर्ति ए. एस. आनंद ने बहुमत की इस राय से असहमति जताई कि संसद में मतदान के लिए रिश्वत लेना संसदीय विशेषाधिकार के अंतर्गत आता है और इसमें अभियोजन से छूट प्राप्त है।
      • सीता सोरेन (2023) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिरक्षा के ऐसे विस्तारित दृष्टिकोण को खारिज कर दिया।
  • सामाजिक प्रश्नों के विरुद्ध: असहमति किसी कानूनी मुद्दे की भिन्न सामाजिक समझ या निहितार्थ को भी प्रतिबिंबित कर सकती है।
    • शायरा बानो (2017) केस: न्यायमूर्ति जे. एस. खेहर और न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर ने बहुमत से असहमति जताई, जिसमें मुस्लिम महिलाओं के जीवन के अधिकारों का उल्लंघन करने के कारण तीन तलाक को रद्द कर दिया गया था और उनकी राय थी कि केवल विधायिका ही विभिन्न धर्मों में सामाजिक रूप से अस्वीकार्य प्रथाओं में हस्तक्षेप कर सकती है, न कि न्यायालय।
    • ऐशत शिफा (2022) केस: इस प्रश्न पर कि क्या राज्य स्कूलों में सार्वभौमिक ड्रेस कोड लागू कर सकता है, धर्मनिरपेक्षता की विभिन्न समझ से उत्पन्न दो अलग-अलग राय थीं।
  • बौद्धिक आलोचना: असहमति स्पष्ट रूप से बौद्धिक भी हो सकती है, जैसे,
    • लालता प्रसाद वैश (2024) मामला: न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने बहुमत के फैसले से असहमति जताई और टिप्पणी की कि राज्य औद्योगिक शराब पर कर नहीं लगा सकते।
      • असहमति संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची 2 की प्रविष्टि 8 के अंतर्गत ‘मादक शराब’ शब्द की व्याख्या पर थी और यह पूरी तरह संविधान के पाठ की व्याख्या पर आधारित थी।

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