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भारत में स्वास्थ्य का अधिकार और संबंधित मुद्दे

Lokesh Pal December 10, 2025 05:00 4 0

सन्दर्भ:

स्वास्थ्य अधिकारों पर राष्ट्रीय सम्मेलन 11-12 दिसंबर, 2025 को नई दिल्ली में मानवाधिकार दिवस (10 दिसंबर) और सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज दिवस (12 दिसंबर) के बीच आयोजित किया जाएगा।

स्वास्थ्य अधिकारों पर राष्ट्रीय सम्मेलन

  • आयोजक: इस सम्मेलन का आयोजन जन स्वास्थ्य अभियान (पीपुल्स हेल्थ मूवमेंट – इंडिया) द्वारा किया गया है, जिसमें 20 से अधिक राज्यों के नागरिक समाज नेटवर्क शामिल हुए हैं।
    • यह बैठक लगभग 400 स्वास्थ्य पेशेवरों, सामुदायिक नेताओं और कार्यकर्ताओं को एक साथ लाएगी, ताकि स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों का समाधान किया जा सके और स्वास्थ्य के अधिकार पर एक एजेंडा अथवा उद्देश्य निर्धारित किया जा सके।
    • इस वर्ष जन स्वास्थ्य अभियान (JSA) का 25वाँ आयोजन है।
  • उद्देश्य: इसका उद्देश्य कोविड-19 संकट से सबक लेना, स्वास्थ्य अधिकार से संबंधित पहलों को मजबूत और स्वास्थ्य देखभाल के व्यावसायीकरण के विकल्प प्रस्तुत करना है
    • यह सम्मेलन विनियामक ढाँचों के प्रभावी कार्यान्वयन का समर्थन करेगा, जिसमें दर मानकीकरण, पारदर्शी मूल्य निर्धारण, रोगी अधिकारों के चार्टर का अनिवार्य अनुपालन और सुलभ शिकायत निवारण प्रणाली शामिल हैं।

भारत की स्वास्थ्य प्रणाली में विद्यमान प्रमुख समस्याएँ

  • निजीकरण और व्यावसायीकरण: सरकार का सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) मॉडल पर ध्यान केंद्रित करने में जिला अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों को निजी संस्थाओं को सौंपना शामिल है, जिनका प्राथमिक उद्देश्य लाभ अर्जित करना है।
    • इस परिवर्तन से स्वास्थ्य का व्यवसायीकरण होता है, जिससे यह सेवा की बजाय एक वस्तु बन जाता है। 
    • आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मुंबई और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में जन स्वास्थ्य सेवाओं को समाप्त करने के विरोध में आंदोलन चल रहे हैं।
  • अनियमित निजी क्षेत्र: हालाँकि नैदानिक ​​प्रतिष्ठान पंजीकरण और विनियमन अधिनियम, 2010 – दरों को मानकीकृत करने और निजी अस्पतालों को विनियमित करने के लिए मौजूद है, किन्तु स्वास्थ्य राज्य का विषय है।
    • कई राज्यों ने इस अधिनियम को लागू नहीं किया है या इसका कार्यान्वयन कमजोर है, जिसके कारण इस क्षेत्र में विदेशी निवेश आने के बावजूद एक अनियमित वातावरण बना हुआ है।

कमजोर विनियमन के परिणाम

  • अधिक शुल्क की प्राप्ति: निजी अस्पताल प्रायः अधिक शुल्क वसूलते हैं, यह एक गंभीर समस्या है जो कोविड-19 काल के दौरान उजागर हुई।
  • अनावश्यक प्रक्रियाएँ: अक्सर आय बढ़ाने के उद्देश्य से ही प्रक्रियाएँ पूर्ण की जाती हैं
    • उदाहरण के लिए, निजी अस्पतालों में सी-सेक्शन की दर 40-50% है, जो WHO की 10-15% की सिफारिश से काफी अधिक है।
  • रोगी अधिकारों का उल्लंघन: रोगियों के अधिकारों का उल्लंघन तब होता है, जब बिलों का भुगतान होने तक शवों को रोक कर रखा जाता है, या जब तत्काल भुगतान के बिना प्रवेश से इनकार कर दिया जाता है।
  • निम्न सार्वजनिक व्यय और उच्च जेब खर्च (OOPE): स्वास्थ्य के लिए केंद्रीय बजट आवंटन केवल 2% है।
    • स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति वार्षिक सार्वजनिक व्यय 25 डॉलर (लगभग 2,000 रुपये) है, जो वैश्विक मानकों से काफी कम है।
    • इस अपर्याप्त निधि के परिणामस्वरूप उच्च OOPE (आउट ऑफ पेनल्टी) होता है, जिसके कारण प्रत्येक वर्ष लाखों लोग उच्च चिकित्सा बिलों के कारण गरीबी रेखा से नीचे आ जाते हैं
  • फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं की उपेक्षा: फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं (नर्स, पैरामेडिक्स, आशा कार्यकर्ता, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता) को अक्सर कर्मचारी की बजाय ’स्वयंसेवक’ कहा जाता है
    • परिणामस्वरूप उन्हें कम वेतन मिलता है, सामाजिक सुरक्षा (पेंशन, PF) का अभाव तथा खराब कार्यशील परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, जिससे स्वास्थ्य बुनियादी ढाँचे की नींव कमजोर हो जाती है।
  • दवाओं की कीमत और उपलब्धता: दवाओं पर एक परिवार के चिकित्सा व्यय का लगभग आधा हिस्सा खर्च होता है, फिर भी भारत में 80% से अधिक दवाएँ मूल्य नियंत्रण से बाहर हैं।
    • दवाओं के अतार्किक संयोजन, अनैतिक विपणन और खुदरा बिक्री में उच्च मूल्यह्रास अभी भी जारी हैं।
    • इसके अतिरिक्त, दवाओं पर वस्तु एवं सेवा कर (GST) लागू होता हैजिसे हटा दिया जाना चाहिए।
    • जन औषधि योजना सस्ती दवाएँ तो उपलब्ध कराती हैं, लेकिन इसे आपूर्ति शृंखला संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
  • सामाजिक न्याय में बाधाएँ: गहरी जड़ें जमा चुकी सामाजिक पदानुक्रमों के कारण स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच जटिल हो जाती है।
    • दलित, आदिवासी, मुस्लिम, LGBTQ+ समुदाय और दिव्यांग व्यक्तियों जैसे समूहों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है तथा स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँचने में अधिक कठिनाई होती है।

आगे की राह:

  • मॉडल में परिवर्तन: बीमा मॉडल (जैसे- आयुष्मान भारत, जिसमें व्यापक खामियाँ हैं) से हटकर आश्वासन मॉडल की ओर बढ़ने की आवश्यकता है।
    • इसका अर्थ है, निजी बीमा कंपनियों की बजाय सार्वजनिक अस्पतालों में निवेश करके सरकारी स्वास्थ्य बुनियादी ढाँचे को मजबूत करना, जिससे सभी को निःशुल्क और उच्च गुणवत्ता युक्त देखभाल प्राप्त हो सके।
  • श्रमिक न्याय: सभी स्वास्थ्य कर्मियों को उचित वेतन, रोजगार की सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
  • दवा आपूर्ति: सस्ती दवाओं के उत्पादन और मरीजों पर वित्तीय बोझ को कम करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों (PSU) को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए।
  • समग्र रणनीति: एक अंतरक्षेत्रीय दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, जो स्वास्थ्य को पोषण, पर्यावरण की गुणवत्ता, प्रदूषण नियंत्रण और जलवायु परिवर्तन उपायों द्वारा निर्धारित कारक के रूप में मान्यता प्रदान करता है।
  • नीतिगत उपाय: लक्ष्य “लोगों के लिए स्वास्थ्य सेवा, न कि लाभ के लिए” पर होना चाहिए, जिसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 में परिकल्पित GDP के 2.5% तक सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय बढ़ाकर समर्थन दिया जाना चाहिए।
    • इसके लिए निजी क्षेत्र के कठोर विनियमन और एक मजबूत तथा न्यायसंगत सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के केंद्र में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की स्थापना भी आवश्यकता है।

निष्कर्ष

स्वास्थ्य अधिकारों पर राष्ट्रीय सम्मेलन भारत में उन सभी लोगों के लिए एक आह्वान है, जो मानते हैं कि स्वास्थ्य एक मूल मानवाधिकार होना चाहिए, जो मजबूत और उत्तरदायी सार्वजनिक प्रणालियों पर आधारित हो। 

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न: बढ़ते निजीकरण और निम्न सार्वजनिक व्यय के कारण भारत की स्वास्थ्य प्रणाली में असमानताएँ बढ़ती जा रही हैं। इस संदर्भ में, भारत में स्वास्थ्य के अधिकार को न्यायसंगत अधिकार के रूप में साकार करने में आने वाली चुनौतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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