Q. राष्ट्रपति के संदर्भ पर सर्वोच्च न्यायालय की सुनवाई में राज्यपालों द्वारा विधेयकों पर स्वीकृति न देने के मुद्दे पर प्रकाश डाला गया है। राज्यपालों की विवेकाधीन शक्तियों और निर्वाचित राज्य विधानसभाओं के अधिदेश के बीच संवैधानिक संघर्ष पर चर्चा कीजिए। लोकतांत्रिक शासन पर इसके प्रभाव का विश्लेषण कीजिए और इन शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के उपाय सुझाइए। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • राज्यपालों की विवेकाधीन शक्तियों और राज्य विधानमंडल के अधिदेश के बीच संवैधानिक संघर्ष।
  • लोकतांत्रिक शासन पर ऐसे संघर्ष का सकारात्मक प्रभाव।
  • लोकतांत्रिक शासन पर ऐसे संघर्ष का नकारात्मक प्रभाव।
  • इन शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के उपाय।

उत्तर

भूमिका

सर्वोच्च न्यायालय  की वर्ष 2025 की राष्ट्रपति संदर्भ (Presidential Reference)  सुनवाई ने राज्यपालों के विवेकाधिकार और राज्य विधानसभाओं की अधिकारिता के बीच तनाव को उजागर किया। अनुच्छेद-200 और 201 के अंतर्गत सहमति देने में अनिश्चितकालीन विलंब लोकतांत्रिक शासन को कमजोर करता है और संघीय सामंजस्य को बाधित करता है। न्यायालय ने पुनः स्पष्ट किया कि संवैधानिक पदाधिकारियों को विधानमंडलों में बाधा नहीं डालनी चाहिए तथा समयबद्ध विधायी प्रक्रिया का सम्मान सुनिश्चित होना चाहिए।

मुख्य भाग

राज्यपालों की विवेकाधीन शक्तियों और राज्य विधानमंडल के जनादेश के बीच संवैधानिक टकराव

  • सहमति का अनिश्चितकालीन रोका जाना: निर्वाचित विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों द्वारा सहमति रोके रखना संवैधानिक गतिरोध उत्पन्न करता है।
    • उदाहरण: अप्रैल 2025 के सर्वोच्च न्यायालय  के निर्णय में कहा गया कि अनुच्छेद-200 के अंतर्गत राज्यपाल अनिश्चितकाल तक सहमति नहीं रोक सकते हैं।
  • विवेकाधिकार बनाम लोकतांत्रिक जनादेश: जहाँ राज्यपाल अनुच्छेद-200 और 201 के तहत विवेकाधिकार का प्रयोग करते हैं, यह सीधे राज्य विधानमंडल की संप्रभु कानून-निर्माण शक्ति से टकराव उत्पन्न करता है।
  • न्यायिक समीक्षा का विरोधाभास: न्यायालय अनुच्छेद-356 के तहत राज्यपाल की सिफारिश की समीक्षा करता है, लेकिन अनुच्छेद-200 के अंतर्गत समीक्षा नहीं करता, जिससे जवाबदेही में असंगति उत्पन्न होती है।
  • विधेयकों पर नियंत्रण बनाम अवरोध: केंद्र का तर्क है कि राज्यपाल जल्दबाजी  में बनाए गए कानूनों पर नियंत्रण रखते हैं, किंतु यह जानबूझकर विधायिका के कार्य में बाधा उत्पन्न कर  सकता है।
  • पक्षपातपूर्ण प्रयोग: राज्यपालों की देरी अक्सर विपक्ष-शासित राज्यों में देखी जाती है, जिससे राजनीतिक निष्पक्षता पर प्रश्न उठते हैं।
    • उदाहरण: केरल के वकील ने तर्क दिया कि सहमति में विलंब मुख्यतः विपक्ष-शासित राज्यों को झेलना पड़ता हैं।

ऐसे टकराव का लोकतांत्रिक शासन पर सकारात्मक प्रभाव

  • शक्तियों की न्यायिक स्पष्टता: विवाद सर्वोच्च न्यायालय  को अनुच्छेद-200 और 201 की सीमाओं को स्पष्ट करने का अवसर देते हैं, जिससे संवैधानिक न्यायशास्त्र सुदृढ़ होता है।
    • उदाहरण: अप्रैल 2025 के निर्णय ने पुष्टि की कि राज्यपालों को उचित समय सीमा में कार्य करना होगा।
  • जल्दबाजी में बने विधेयकों पर नियंत्रण: राज्यपालों का विवेकाधिकार सार्वजनिक हित को नुकसान पहुँचाने वाले जल्दबाजी के विधेयकों को रोकने का फिल्टर बन सकता है।
  • संघीय संतुलन का सुदृढ़ीकरण: ऐसे टकराव केंद्र–राज्य संबंधों पर बहस को प्रेरित करते हैं, जिससे कोई पक्ष संघीय ढाँचे को कमजोर न कर पाए।
    • उदाहरण: पाँच-न्यायाधीशों की पीठ ने संघीय सहयोग और राज्य स्वायत्तता के मध्य संतुलन की आवश्यकता पर बल दिया।

ऐसे टकराव का लोकतांत्रिक शासन पर नकारात्मक प्रभाव

  • राज्य विधानसभाओं का पक्षाघात: सहमति का अनिश्चितकाल तक रोके रखा जाना सक्षम विधानसभाओं को निष्क्रिय बना देता है और शासन ठप हो जाता है।
    • उदाहरण:  मुख्य न्यायाधीश गवई ने चेतावनी दी कि निष्क्रियता से विधानसभाएँ “अकार्यशील” हो सकती हैं।
  • चयनात्मक प्रयोग: अधिक विलंब अधिकांशतः विपक्ष-शासित राज्यों को प्रभावित करते हैं, जिससे संवैधानिक पदों की राजनीतिक निष्पक्षता कमजोर होती है।
  • संघीय विश्वास का क्षरण: शक्तियों का दुरुपयोग केंद्र और राज्यों के बीच अविश्वास को जन्म देता है, जिससे सहकारी संघवाद कमजोर होता है।
    • उदाहरण: विद्वानों ने कहा कि ऐसे कृत्य संघीय ढाँचे में निहित संवैधानिक संतुलन को विचलित करते हैं।

इन शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के उपाय

  • समयबद्ध सहमति: राज्यपालों को विधेयकों पर कार्यवाही हेतु वैधानिक समय सीमा देना, जिससे मनमाने विलंब कम हो।
    • उदाहरण: अप्रैल 2025 के निर्णय ने संकेत दिया कि समय सीमा का अभाव अनिश्चित विवेक को उचित नहीं ठहराता।
  • न्यायिक समीक्षा का विस्तार: अनुच्छेद-200 के अंतर्गत राज्यपालों की कार्रवाई की भी न्यायिक समीक्षा सुनिश्चित हो, जैसा अनुच्छेद-356 में होता है।
  • संघीय परंपराओं को सुदृढ़ करना: यह सिद्धांत मजबूत करना कि राज्यपाल संवैधानिक प्रमुख हैं, राजनीतिक अभिनेता नहीं।
    • उदाहरण: न्यायमूर्ति विक्रम नाथ ने कहा कि राज्यपाल “विधानमंडल पर प्रभावी नहीं हो सकते।”
  • विधायी स्पष्टता: संसद अनुच्छेद-200 और 201 के अंतर्गत राज्यपाल की शक्तियों की सीमा स्पष्ट करना, जिससे संघीय कानून-निर्माण में स्पष्टता रहे।
  • निष्पक्ष नियुक्तियाँ: राज्यपालों की नियुक्ति संवैधानिक योग्यता के आधार पर हो, न कि राजनीतिक निष्ठा पर, जिससे निष्पक्षता सुनिश्चित हो।

निष्कर्ष

वर्ष 2025 के राष्ट्रपति संदर्भ ने पुष्टि की कि राज्यपाल संवैधानिक प्रमुख के रूप में अनिश्चितकालीन सहमति विलंब कर विधानसभाओं को बाधित नहीं कर सकते। ऐसे कृत्य लोकतंत्र और संघीय विश्वास को कमजोर करते हैं। समयबद्ध निर्णय, न्यायिक जवाबदेही, विधायी स्पष्टता और निष्पक्ष नियुक्तियाँ राज्य स्वायत्तता की रक्षा, संवैधानिक सामंजस्य की सुरक्षा तथा सहकारी संघवाद को सुदृढ़ करने के लिए आवश्यक हैं।

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