Q. भारत के वनीकरण प्रयासों से वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है, फिर भी वन गुणवत्ता और कार्बन अवशोषण क्षमता में गिरावट जारी है। सतत वन पुनर्स्थापन सुनिश्चित करने में वन अधिकार अधिनियम (2006) और समुदाय-नेतृत्व वाले वन प्रशासन की भूमिका पर चर्चा कीजिए। (10 अंक, 150 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • सतत् वन पुनर्स्थापन में FRA की भूमिका, 2006।
  • सतत् वन पुनर्स्थापन में सामुदायिक भागीदारी की भूमिका।

उत्तर

भारत के संशोधित ग्रीन इंडिया मिशन का लक्ष्य वर्ष 2030 तक 2.5 करोड़ हेक्टेयर भूमि का पुनर्स्थापन  करना और 3.39 अरब टन CO₂ अवशोषण बनाना है। लेकिन घटती वन गुणवत्ता यह दर्शाती है कि केवल पेड़ लगाना पर्याप्त नहीं — पुनर्स्थापन को सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिकी दृष्टि से समावेशी बनाना आवश्यक है। वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 और सामुदायिक भागीदारी आधारित शासन इसके लिए टिकाऊ और न्यायसंगत मार्ग प्रदान करते हैं।

सतत् वन पुनर्स्थापन में वन अधिकार अधिनियम (2006) की भूमिका

  • स्थानीय संरक्षण को सशक्त बनाना: यह अधिनियम वन भूमि पर समुदाय और व्यक्तियों के अधिकारों को मान्यता देता है, जिससे वनवासियों को पारिस्थितिकी तंत्र के प्रबंधन और पुनर्स्थापन में वैध भागीदारी मिलती है।
  • सहभागी प्रबंधन को वैधता प्रदान करना:  सामुदायिक वन संसाधन (CFR) अधिकारों के माध्यम से स्थानीय संस्थाएँ जैव विविधता का प्रबंधन कर सकती हैं और एकल-फसली, दोहनकारी वृक्षारोपण को रोक सकती हैं।
  • आजीविका और संरक्षण का सामंजस्य:  वन उत्पादों तक पहुँच सुनिश्चित कर FRA जीविकोपार्जन-आधारित पुनर्स्थापन को बढ़ावा देता है, जो बहिष्करणकारी वनीकरण से भिन्न है।
    • उदाहरण: छत्तीसगढ़ में महुआ-आधारित पुनर्स्थापन मॉडल ने आदिवासियों की आय बढ़ाई और जैव विविधता को संरक्षित किया।
  • परियोजनाओं की सामाजिक वैधता सुनिश्चित करना: वन अधिकार अधिनियम किसी भी वृक्षारोपण या भूमि विचलन से पूर्व समुदाय की सहमति को अनिवार्य बनाता है, जिससे विवाद कम होते हैं और अनुपालन बेहतर होता है।
  • विकेंद्रीकृत निर्णय प्रक्रिया को सशक्त बनाना:  ग्राम सभाओं को निर्णय का अधिकार देकर FRA स्थानीय पारिस्थितिकी और सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुरूप पुनर्स्थापन की अनुमति देता है।

सतत् वन पुनर्स्थापन में सामुदायिक भागीदारी की भूमिका

  • स्थानीय स्वामित्व और जवाबदेही बढ़ाना:  जब समुदाय स्वयं वनों का प्रबंधन करते हैं, तो वे अवैध कटाई और अति-शोषण से बचाते हैं, जिससे दीर्घकालिक संरक्षण सुनिश्चित होता है।
    • उदाहरण: ओडिशा का सहभागी वन प्रबंधन मॉडल ने वन प्रबंधन और शासन में विश्वास दोनों को बढ़ाया है।
  • स्थानीय और जलवायु-सहिष्णु प्रजातियों को बढ़ावा देना:  सामुदायिक सुझावों से ऐसे पौधों का चयन होता है, जो स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुकूल हों, न कि केवल एकल प्रजाति आधारित वनीकरण।
  • पारंपरिक ज्ञान का एकीकरण:  स्थानीय जल संरक्षण, मृदा पुनर्स्थापन और बीज संरक्षण जैसी पारंपरिक आदिवासी प्रथाएँ पारिस्थितिकी परिणामों को अधिक मजबूत बनाती हैं।
  • पारदर्शिता और निगरानी में सुधार: CAMPA जैसी योजनाओं के तहत समुदाय द्वारा की गई निगरानी वृक्षारोपण की सफलता दर और धन उपयोग में पारदर्शिता लाती है।
  • जलवायु और सामाजिक लचीलापन: सक्रिय समुदाय गैर-काष्ठ वन उत्पादों और इको-टूरिज्म जैसी विविध आजीविकाओं से पर्यावरण और अर्थव्यवस्था दोनों को सशक्त बनाते हैं।

निष्कर्ष

भारत में सतत् वन पुनर्स्थापन की नींव कानूनी सशक्तीकरण और सामुदायिक भागीदारी पर आधारित है। वन अधिकार अधिनियम (FRA) वैधानिक ढाँचा प्रदान करता है, जबकि स्थानीय संरक्षण नेतृत्व इसके प्रभाव को स्थायी बनाता है। दोनों मिलकर वनों को समावेशी और जलवायु- विकास के वाहक में बदल सकते हैं।

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