Q. भारत और चीन के बीच कूटनीतिक संबंधों में हालिया नरमी के संकेत, सीमा पर लगातार तनाव के बावजूद बातचीत की गुंजाइश को उजागर करते हैं। परीक्षण कीजिए कि नालंदा परंपरा 21वीं सदी में भारत-चीन संबंधों की पुनर्कल्पना के लिए एक रूपरेखा के रूप में कैसे कार्य कर सकती है। (10 अंक, 150 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • भारत और चीन के बीच कूटनीतिक संबंधों में हाल ही में हुये सुधार के संकेतों पर चर्चा कीजिए।
  • बताइये कि नालंदा परम्परा किस प्रकार संबंधों की पुनर्कल्पना के लिए एक रूपरेखा के रूप में कार्य कर सकती है।
  • वे चिंताएँ उल्लेखित कीजिये जो द्विपक्षीय संबंधों की नालंदा-स्पिरिट (Nalanda Spirit) को बाधित करती हैं।

उत्तर

भारत और चीन वर्ष 2025 में अपने राजनयिक संबंधों के 75 वर्ष पूरे कर लेंगे। ऐतिहासिक रूप से, इन संबंधों को केवल सीमा विवादों ने नहीं बल्कि बौद्धिक आदान-प्रदान ने आकार दिया था, जिसका सबसे प्रमुख उदाहरण नालंदा विश्वविद्यालय है, जहाँ ह्वेनसांग और फाहियान जैसे भिक्षुओं ने संवाद और सभ्यतागत जुड़ाव को बढ़ावा दिया।

भारत और चीन के बीच कूटनीतिक संबंधों में हुये सुधार के हालिया संकेत

  • उच्च स्तरीय रक्षा वार्ता: शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के दौरान भारतीय रक्षा मंत्री की चीनी एडमिरल से भेंट ने यह संकेत दिया कि दोनों देश संचार चैनल खुले रखने के लिए इच्छुक हैं।
    • उदाहरण: जनवरी 2025 में SCO रक्षा मंत्रियों की बैठक के इतर नेताओं की मुलाकात हुई, जिसने सीमा तनावों के बीच प्रत्यक्ष संवाद का एक दुर्लभ अवसर प्रस्तुत किया।
  • सांस्कृतिक-धार्मिक संबंधों की बहाली: कैलाश मानसरोवर यात्रा को पुनः आरंभ करना सौम्य कूटनीति और लोगों के बीच आपसी जुड़ाव को दर्शाता है।
  • चीनी विदेश मंत्री की यात्रा: वांग यी की दो दिवसीय भारत यात्रा ने यह स्पष्ट किया कि चीन का उद्देश्य निरंतर संवाद के माध्यम से विश्वास बहाली करना है।
    • उदाहरण: अगस्त 2025 की यह यात्रा एक लम्बे कूटनीतिक ठहराव के बाद हुई, जिसने यह दिखाया कि चीन उच्चतम स्तर पर भारत से पुनः जुड़ने को तैयार है।
  • प्रतीकात्मक स्मरणोत्सव: 75 वर्षों का राजनयिक संबंध ऐतिहासिक जुड़ाव को रेखांकित करता है और पुनर्संरचना (reset) का अवसर प्रदान करता है।
    • उदाहरण: वर्ष 2025 के समारोहों ने सभ्यतागत संबंधों को रेखांकित किया तथा दोनों देशों को वर्तमान विवादों से परे सहयोग के उनके लंबे इतिहास की याद दिलाई।
  • तनाव के बावजूद लहजे में बदलाव: राजनयिक संकेत यह दर्शाते हैं कि दोनों देश शत्रुता से आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं, विशेषकर सीमा मुद्दों पर।
    • उदाहरण: LAC के अनसुलझे मुद्दों के बावजूद, दोनों पक्षों ने आधिकारिक बैठकों में कम संघर्ष वाला रुख अपनाया है, जो सह-अस्तित्व की गुंजाइश का संकेत देता है।
  • विस्तृत सहयोग की संभावना: ये कदम व्यापार, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में सहयोग की संभावना प्रदान करते हैं।
    • उदाहरण: गर्मजोशी के इन संकेतों को रुके हुए शैक्षणिक आदान-प्रदान को पुनः सक्रिय करने और रुके हुए व्यापार तंत्र को बहाल करने की दिशा में पहला कदम माना गया है।
  • सांस्कृतिक-धार्मिक विनिमय की बहाली: दोनों देशों के बीच संबंधों की बहाली, सोचे-समझे विश्वास-निर्माण उपायों का संकेत देती है।
    • उदाहरण: कैलाश मानसरोवर यात्रा चार वर्षों के अंतराल के बाद 2025 में फिर से शुरू हुई।

भारत-चीन संबंधों की पुनर्कल्पना के लिए एक रूपरेखा के रूप में नालंदा परंपरा

  • बौद्धिक कूटनीति की ऐतिहासिक मिसाल: नालंदा एक बहुसांस्कृतिक विद्वत्ता केंद्र था जहाँ भिक्षु और विद्वान राजनीतिक सीमाओं से परे ज्ञान का आदान-प्रदान करते थे।
  • विकास हेतु परस्पर अधिगम: नालंदा एक बहुसांस्कृतिक विद्वत्ता केंद्र था जहाँ भिक्षु और विद्वान राजनीतिक सीमाओं से परे ज्ञान का आदान-प्रदान करते थे।
    • उदाहरण: भारत चीन के बुनियादी ढांचे से सीख सकता है, जबकि चीन भारत के डिजिटल शासन मॉडल से।
  • पीपुलटूपीपुल जुड़ाव: घटते सांस्कृतिक आदान-प्रदान से विश्वास कम होता है; नालंदा दर्शाता है कि साझा अनुभव आत्मविश्वास बढ़ाते हैं।
    • उदाहरण: 7वीं शताब्दी में ह्वेनसांग ने नालंदा में शिलाभद्र के अधीन अध्ययन किया और बौद्ध शिक्षाओं को चीन ले गए।
  • साझा सभ्यतागत लोकाचार: बढ़ता राष्ट्रवाद विरासत पर भारी पड़ रहा है; नालंदा और वसुधैव कुटुंबकम साझा मूल्यों को दर्शाते‌ हैं।
    • उदाहरण: नालंदा का आदर्श वाक्य “आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः” अर्थात् “सभी दिशाओं से अच्छे विचार आने दो”, इस लोकाचार का प्रतीक है।
  • अनुकूली नीतिगत चिंतन: कमजोर अनुसंधान क्षमता नीति को सीमित करती है; नालंदा की धैर्यशीलता दीर्घकालिक शैक्षणिक निवेशों को प्रेरित करती है।
    • उदाहरण: भारत में चीन-केंद्रित थिंक टैंक और भाषा प्रशिक्षण का विस्तार किया जाना चाहिए।
  • सॉफ्ट पावर और सांस्कृतिक कूटनीति के लिए मॉडल: नालंदा की पुनर्कल्पना से ज्ञान के प्रकाश स्तंभ के रूप में भारत की छवि को बढ़ावा मिलेगा और रचनात्मक सहभागिता में चीन की रुचि बढ़ेगी।
  • शून्य-योग से सहकारी प्रतिमान की ओर बदलाव: नालंदा मॉडल सहमति के क्षेत्रों को पोषित करते हुए मतभेदों के सह-अस्तित्व की वकालत करता है।
    • उदाहरण: सांस्कृतिक, शैक्षणिक और व्यापार-स्तरीय संवादों के साथ सीमाओं को लेकर कड़ा रुख बनाए रखना।

नालंदा परंपरा में बाधा डालने वाली चिंताएँ

  • ऐतिहासिक बनाम समकालीन वास्तविकताएं: नालंदा परंपरा उस युग का प्रतीक थी जब ज्ञान-विनिमय राजनीतिक सीमाओं से परे था। किंतु आज की भारत–चीन संबंधों में वास्तविकता यह है कि सीमा विवाद, सैन्य टकराव और सुरक्षा संबंधी दुविधाएँ गहनता से मौजूद हैं। केवल सांस्कृतिक या बौद्धिक आदर्श इन कठिन भू-राजनीतिक वास्तविकताओं को समाप्त नहीं कर सकते।
  • शक्ति विषमता: चीन की विशाल आर्थिक और सैन्य बढ़त ऐसी संरचनात्मक असमानता उत्पन्न करती है जिसे केवल बौद्धिक या सांस्कृतिक कूटनीति से संतुलित नहीं किया जा सकता। यही असंतुलन भारत को विवश करता है कि वह नालंदा जैसी सॉफ्ट पावर परंपराओं पर पूर्णतः निर्भर न रहे।
  • राजनीतिक इच्छाशक्ति: गहरी अविश्वास की भावना, नौकरशाही की कठोरता और परस्पर संदेह—ये सभी तत्व भारत–चीन के बीच वास्तविक शैक्षणिक या जन-से-जन सहयोग को रोकते हैं।
  • भू-राजनीतिक दबाव: वैश्विक प्रतिद्वंद्विता, अमेरिका–चीन तनाव और बदलती वैश्विक राजनीति, भारत–चीन सहयोग की संभावनाओं को संकुचित करती हैं।
  • प्रतीकात्मकता का जोखिम: नालंदा परंपरा को केवल सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में पुनर्जीवित करने पर अत्यधिक बल देना, जबकि व्यापार, सुरक्षा और सीमा विवाद जैसे मूल मुद्दों की उपेक्षा करना, इसे मात्र प्रतीकवाद तक सीमित कर सकता है। 

निष्कर्ष

भारत–चीन संबंध जब 75 वर्षों के पड़ाव पर खड़े हैं तो वे एक निर्णायक मोड़ पर दिखाई देते हैं। इतिहास जहाँ अनेक संघर्षों से भरा हुआ है, वहीं वह सहयोग और सहअस्तित्व के स्थायी मार्ग भी प्रदान करता है। नालंदा परंपरा, जो संवाद, बौद्धिक जिज्ञासा और परस्पर अधिगम पर आधारित है, आज भी एक सुदृढ़ और सभ्यतामूलक ढाँचा प्रस्तुत करती है जो अस्थायी विवादों से ऊपर उठकर स्थायी समाधान की ओर ले जा सकता है। यदि दोनों देश शैक्षणिक विनिमय, सांस्कृतिक संपर्क और नीतिगत सहयोग में निवेश करें और साथ ही अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा एवं रणनीतिक हितों की रक्षा दृढ़ता से सुनिश्चित करें, तो वे संघर्ष के बजाय सह-अस्तित्व की दिशा में एक नए भविष्य का निर्माण कर सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि संबंधों का आधार हो— “संवाद बिना संदेह के, और सहभागिता बिना अधीनता के” — जो 21वीं सदी की आवश्यकताओं के अनुकूल हो।

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