Q. क्या बाजार अर्थव्यवस्था में समावेशी विकास संभव है? भारत में आर्थिक विकास प्राप्त करने में वित्तीय समावेशन के महत्त्व को समझाइये। (150 शब्द, 10 अंक)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • बाजार अर्थव्यवस्था में समावेशी विकास की संभावना का समर्थन करने वाले तर्क।
  • बाजार अर्थव्यवस्था में समावेशी विकास की संभावना के विरुद्ध तर्क।
  • भारत में आर्थिक विकास प्राप्त करने में वित्तीय समावेशन का महत्त्व।

उत्तर

समावेशी वृद्धि का तात्पर्य ऐसी आर्थिक प्रगति से है, जिससे समाज के सभी वर्गों को, विशेषकर गरीबों और वंचित तबकों को, समान रूप से लाभ पहुँचे। दूसरी ओर, बाजार-आधारित अर्थव्यवस्थाएँ दक्षता तथा तीव्र विकास को तो प्रोत्साहित करती हैं, किंतु प्रायः वे असमानताओं को और अधिक बढ़ा देती हैं। विकास और समानता के बीच यह अंतर्निहित द्वंद्व इस प्रश्न को जन्म देता है कि क्या वास्तविक समावेशिता बाजार-नियंत्रित विकास मॉडल के साथ संभव है। इस परिप्रेक्ष्य में वित्तीय समावेशन की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि इसके माध्यम से गरीब, ग्रामीण एवं हाशिये पर स्थित नागरिकों को औपचारिक वित्तीय प्रणाली से जोड़कर अवसरों के अंतर को कम किया जा सकता है और विकास को अधिक न्यायसंगत बनाया जा सकता है।

बाजार अर्थव्यवस्था में समावेशी विकास की संभावना का समर्थन करने वाले तर्क

  • विस्तारित आर्थिक अवसर: बाजार अर्थव्यवस्था खुली प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देती है, जिससे छोटे उत्पादकों, ग्रामीण उद्यमियों और हाशिये पर स्थित समूहों को भागीदारी और प्रगति का अवसर मिलता है।
    • उदाहरण के लिए: अमेजन जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म ने ग्रामीण विक्रेताओं को राष्ट्रीय और वैश्विक उपभोक्ताओं तक पहुँचने का अवसर प्रदान किया है।
  • नवाचार को प्रोत्साहित करता है: बाजार-चालित नवाचार नए उत्पाद, सेवाएँ और रोजगार के अवसर उत्पन्न करता है। इससे पिछड़े और वंचित वर्ग भी सस्ते तथा सुलभ समाधान प्राप्त कर मुख्यधारा से जुड़ पाते हैं।
    • उदाहरण के लिए: भारत के आईटी क्षेत्र ने बाजार-आधारित नवाचार से न केवल लाखों रोजगार उत्पन्न किए बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत को मूल्य शृंखला से जोड़ा।
  • राज्य के हस्तक्षेप की गुंजाइश: बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का अर्थ यह नहीं है कि राज्य का हस्तक्षेप समाप्त हो जाता है। सरकार कराधान, सब्सिडी और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के माध्यम से बाजार की असमानताओं को संतुलित कर सकती है।
    • उदाहरण के लिए: उदारीकरण के बाद भी भारत में मनरेगा जैसी योजनाएँ लागू हैं, जो आजीविका सुरक्षा और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करती हैं।
  • निजी क्षेत्र की भूमिका: स्वास्थ्य, शिक्षा और अवसंरचना जैसे क्षेत्रों में बाजार आधारित तंत्र सार्वजनिक-निजी भागीदारी और कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के माध्यम से समावेशी विकास को सशक्त कर सकते हैं।
    • उदाहरण के लिए: आयुष्मान भारत योजना के अंतर्गत निजी अस्पतालों की भागीदारी से गरीब तबकों को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराई जा रही हैं।
  • पहुँच में कम बाधाएँ: बाजार अर्थव्यवस्थाएँ तकनीकी प्रगति को प्रोत्साहित करती हैं, लागत कम करती हैं और पहुँच में सुधार लाती हैं। इससे सभी आय समूहों में व्यापक समावेशन संभव होता है।
  • उपभोक्ता सशक्तीकरण: बाजार में प्रतिस्पर्द्धा से कीमतें कम होती हैं, सेवाएँ बेहतर होती हैं और विकल्प अधिक होते हैं, जिससे जीवन की गुणवत्ता में सुधार होता है, विशेषकर निम्न-आय वर्ग के लिए। 
    • उदाहरण के लिए: भारत में मोबाइल फोन क्रांति ने सभी आर्थिक वर्गों के लिए किफायती संचार को संभव बनाया।

बाजार अर्थव्यवस्था में समावेशी विकास की संभावना के विरुद्ध तर्क

  • लाभ की प्रेरणा, समता पर हावी होती है: बाजार आधारित व्यवस्था में प्राथमिक उद्देश्य लाभ होता है, न कि संपत्ति का न्यायसंगत वितरण। परिणामस्वरूप, असमानताएँ और भी अधिक बढ़ जाती हैं।। 
    • उदाहरण के लिए: ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की शीर्ष 1% आबादी के पास 40% से अधिक संपत्ति है, जबकि निचले 50% लोगों के पास केवल 3% संपत्ति है।
  • सामाजिक क्षेत्रों की उपेक्षा: शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे सामाजिक क्षेत्र अक्सर बाजार-चालित मॉडल में हाशिये पर चले जाते हैं क्योंकि इनमें लाभ कम होता है। इससे दीर्घकालीन मानव पूँजी निर्माण बाधित होता है।
  • बेरोजगारी में वृद्धि और असंगठित बाजार: बाजार-आधारित विकास प्रायः पूँजी-प्रधान उद्योगों को बढ़ावा देता है, जिससे श्रम-प्रधान क्षेत्रों की उपेक्षा होती है और रोजगार सृजन सीमित रह जाता है। 
    • उदाहरण के लिए: तेज जीडीपी वृद्धि के बावजूद भारत की श्रम शक्ति भागीदारी दर केवल 56.2% ही है
  • क्षेत्रीय असंतुलन: निजी निवेश और उद्योग वहीँ केंद्रित होते हैं, जहाँ लाभ अधिक मिलता है। इससे कुछ राज्य तेजी से विकसित होते हैं, जबकि पिछड़े क्षेत्र पिछड़ते ही रहते हैं।
    • उदाहरण के लिए: भारत में अधिकांश प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और औद्योगिक निवेश महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु जैसे पश्चिमी व दक्षिणी राज्यों में केंद्रित है, जबकि उत्तर-पूर्व और मध्य भारत अपेक्षाकृत पिछड़े रह जाते हैं।
  • पर्यावरणीय और सामाजिक दुष्परिणाम: बाजार आधारित व्यवस्था में लाभ कमाने की दौड़ में पर्यावरणीय संधारणीयता और सामाजिक उत्तरदायित्व की अनदेखी हो जाती है। प्राकृतिक संसाधनों और मानव श्रम का अंधाधुंध शोषण किया जाता है।
    • उदाहरण के लिए: ओडिशा के नियमगिरी पर्वत (Niyamgiri Hills) में वेदांता का बाक्साइट खनन प्रोजेक्ट स्थानीय जनजातीय समुदाय और पर्यावरण दोनों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ।

भारत में आर्थिक विकास प्राप्त करने में वित्तीय समावेशन का महत्त्व

  • ऋण तक सीधी पहुँच: वित्तीय समावेशन लघु उद्यमों, सूक्ष्म उद्योगों तथा हाशिये पर रहने वाले समुदायों (जैसे- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग) को ऋण तक सीधी पहुँच प्रदान करता है। इससे वे अपने व्यवसायों का विस्तार कर सकते हैं, उत्पादकता में निवेश कर सकते हैं और आत्मनिर्भरता प्राप्त कर सकते हैं।
    • उदाहरण के लिए: प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के अंतर्गत करोड़ों लोगों को स्वरोजगार के अवसर प्राप्त हुए। आँकड़ों के अनुसार, लगभग 50% लाभार्थी SC/ST और OBC समुदाय से आते हैं तथा लगभग 68% लाभार्थी महिलाएँ हैं (वित्त मंत्रालय)।
  • अर्थव्यवस्था का औपचारिकीकरण: बैंकिंग सेवाओं के माध्यम से अधिकाधिक वित्तीय लेन-देन औपचारिक प्रणाली में दर्ज होने लगते हैं। इससे न केवल कर का आधार बढ़ता है बल्कि सरकार के पास कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च करने के लिए अधिक वित्तीय संसाधन उपलब्ध होते हैं।
  • घरेलू बचत को बढ़ावा:  जब ग्रामीण और वंचित तबकों को सुरक्षित बैंकिंग व्यवस्था उपलब्ध होती है तो उनकी बचत की प्रवृत्ति बढ़ती है। इससे न केवल घरेलू उपभोग में वृद्धि होती है बल्कि पूँजी निर्माण  की प्रक्रिया भी सशक्त होती है। 
    • उदाहरण के लिए: जनधन खातों ने 50 करोड़ से अधिक लोगों को अपनी बचत सुरक्षित रखने और सरकारी सब्सिडी सीधे प्राप्त करने का अवसर दिया।
  • सामाजिक सुरक्षा वितरण: प्रत्यक्ष लाभ अंतरण व्यवस्था ने नागरिकों को सशक्त बनाया है। इससे सरकारी कल्याणकारी योजनाओं में पारदर्शिता आई है, बिचौलियों की भूमिका कम हुई है और रिसाव लगभग समाप्त हुआ है।
    • उदाहरण के लिए: प्रधानमंत्री जनधन योजना के अंतर्गत खोले गए 50 करोड़ से अधिक जीरो-बैलेंस खातों ने कल्याणकारी लाभों को सीधे लाभार्थियों तक पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • लैंगिक सशक्तीकरण: व्यक्तिगत बैंक खातों ने महिलाओं को वित्तीय स्वतंत्रता और घरेलू स्तर पर निर्णय लेने की शक्ति प्रदान की है। इससे न केवल महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुधरी है, बल्कि परिवार और समाज की भलाई भी सुनिश्चित हुई है।
    • उदाहरण के लिए: स्वयं सहायता समूह–बैंक लिंकेज कार्यक्रम (SHG-Bank Linkage Programme) ने महिलाओं की औपचारिक वित्तीय संस्थानों तक पहुँच को बढ़ाया और पारिवारिक कल्याण को मजबूत किया।

निष्कर्ष

बाजार-आधारित अर्थव्यवस्था में समावेशी विकास  अपने आप स्वाभाविक रूप से नहीं होता। यह तभी संभव है, जब राज्य और नीति-निर्माता सजग एवं उद्देश्यपूर्ण नीतियाँ अपनाएँ। इसके लिए वित्तीय समावेशन को मजबूती देना, सामाजिक न्याय पर आधारित जन-प्रथम विकास मॉडल लागू करना और राज्य द्वारा यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि केवल लाभ ही प्राथमिकता न बने बल्कि जनकेंद्रित प्रगति को भी बराबर महत्त्व मिले।

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