प्रश्न की मुख्य माँग
- हरित क्रांति ने खाद्य सुरक्षा में किस प्रकार मदद की।
- हरित क्रांति के गहन रासायनिक मॉडल द्वारा उत्पन्न चुनौतियाँ।
- पुनर्योजी कृषि की ओर नीतिगत बदलाव किस प्रकार एक स्थायी समाधान प्रस्तुत कर सकता है?
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उत्तर
1960 के दशक की हरित क्रांति ने भारत को खाद्यान्न-अभावी देश से खाद्यान्न-समृद्ध राष्ट्र में परिवर्तित कर दिया। यह परिवर्तन उच्च उत्पादक किस्मों (HYVs) और कृत्रिम उर्वरकों के प्रयोग से संभव हुआ। हालाँकि, इस रासायनिक-आधारित मॉडल ने गंभीर पारिस्थितिकी और स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभाव उत्पन्न किए।
हरित क्रांति द्वारा खाद्य सुरक्षा में योगदान
- फसल उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि: उच्च उत्पादक किस्मों (HYVs) के प्रयोग से गेहूँ और धान का उत्पादन अभूतपूर्व रूप से बढ़ा, जिससे भारत ने राष्ट्रीय खाद्य आत्मनिर्भरता प्राप्त की।
- अकाल और भुखमरी से सुरक्षा: कृषि-विज्ञान में तकनीकी प्रगति ने संकट के समय लाखों लोगों को अकाल से बचाया।
- उदाहरण: नॉर्मन बोरलॉग के अनुसंधान के लिए उन्हें वर्ष 1970 का नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया।
- सिंचाई और उर्वरक उपयोग का विस्तार: सिंचाई अवसंरचना और कृत्रिम उर्वरक उत्पादन के विकास ने उच्च उत्पादकता को बनाए रखा।
- उदाहरण: हेबर-बॉश प्रक्रिया ने बड़े पैमाने पर उर्वरक उत्पादन संभव बनाया।
- ग्रामीण रोजगार और आर्थिक विकास: कृषि उत्पादकता में वृद्धि से ग्रामीण रोजगार सृजन हुआ और औद्योगिकीकरण को प्रोत्साहन मिला।
- उदाहरण: 1970–80 के दशक में कृषि आय में वृद्धि से ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हुई।
- सार्वजनिक खरीद प्रणाली द्वारा खाद्य सुरक्षा: न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP), बफर स्टॉक, और सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने खाद्य मूल्य स्थिर किए और आयात पर निर्भरता कम की है।
रासायनिक-प्रधान मॉडल से उत्पन्न चुनौतियाँ
- मृदा ह्रास और पोषक असंतुलन: नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश के अत्यधिक प्रयोग से मृदा जैविक कार्बन घट गया है।
- उदाहरण: भारत में औसत मृदा जैविक कार्बन 0.3% से भी कम है, जबकि विशेषज्ञ 1% की अनुशंसा करते हैं।
- भूजल का दोहन और प्रदूषण: अत्यधिक सिंचाई और उर्वरक अपवाह से भूजल प्रदूषण और दोहन दोनों बढ़े।
- उदाहरण: हरियाणा जल संसाधन प्राधिकरण (HWRA), जून 2024 की रिपोर्ट के अनुसार 2,246 गाँव “रेड कैटेगरी” में आ चुके हैं, जहाँ भूजल 30 मीटर से नीचे चला गया है।
- स्वास्थ्य संकट और पारिस्थितिक प्रभाव: कीटनाशक के दीर्घकालिक प्रभावों से कैंसर और अन्य रोगों में वृद्धि हुई।
- उदाहरण: पंजाब की “कैंसर ट्रेन” इस संकट का प्रतीक बन चुकी है।
- एकल फसलीकरण और जैव विविधता का क्षरण: लगातार गेहूँ और धान की कृषि से दलहन एवं तिलहन फसलें हाशिए पर चली गईं, जिससे पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ा।
- जलवायु पर प्रभाव: उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बढ़े, जिससे वैश्विक तापन में योगदान हुआ।
पुनर्योजी कृषि की ओर नीतिगत बदलाव कैसे एक स्थायी समाधान प्रदान करता है
- मृदा स्वास्थ्य की बहाली: प्राकृतिक इनपुट्स और फसल विविधीकरण से मृदा जैविक पदार्थ बढ़ाकर उपजाऊपन पुनर्स्थापित किया जा सकता है।
- उदाहरण: विशेषज्ञ पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की भूमि में 1% से अधिक मृदा कार्बन स्तर बढ़ाने की सिफारिश करते हैं।
- पोषण सुरक्षा का संवर्द्धन: दलहन और तिलहन की खेती को प्रोत्साहन देने से आहार विविधता और नाइट्रोजन स्थिरीकरण दोनों को लाभ होता है।
- उदाहरण: ₹11,440 करोड़ मिशन फॉर सेल्फ रिलाइंस इन पल्सेज (वर्ष 2025–31) का लक्ष्य 350 लाख टन उत्पादन तक पहुँचना है।
- रासायनिक निर्भरता में कमी: संतुलित पोषक प्रबंधन और जैविक कृषि पद्धतियाँ उर्वरक उपयोग घटाती हैं और प्रदूषण पर नियंत्रण करती हैं।
- जलवायु लचीलापन: स्वस्थ मृदा अधिक कार्बन अवशोषित करती है, जिससे सूखा-प्रतिरोध और जलवायु अनुकूलता बढ़ती है।
- सहयोग एवं नवाचार: नीतियाँ, उत्पाद, अभ्यास और साझेदारी मिलकर दीर्घकालीन कृषि परिवर्तन सुनिश्चित कर सकती हैं।
- उदाहरण: ग्लोबल एग्जेलरेट (Global AgXelerate) जैसे प्लेटफॉर्म और एग्वाया (AgVaya) और ICRIER के मध्य साझेदारी कृषि-नवाचार और वैश्विक बाजार संबंधों को बढ़ावा देती है।
निष्कर्ष
भारत को अब “पेट भरने” से “पोषण प्राप्त करने” की दिशा में बढ़ना होगा। पुनर्योजी, जलवायु-लचीली कृषि को कृषि अनुसंधान (Agri-R&D), फसल विविधीकरण और किसान सशक्तिकरण के माध्यम से बढ़ावा देना ही सतत् एवं पोषण-सुरक्षित विकास का मार्ग है।
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