Q. [साप्ताहिक निबंध] “जीवन में दो ही त्रासदियाँ हैं। एक है अपने हृदय की इच्छा पूरी न कर पाना; दूसरी है उसे प्राप्त कर लेना ।” (1200 शब्द)

इस निबंध को लिखने का दृष्टिकोण

परिचय

  • अपने निबंध को किसी किस्से, उद्धरण या अलंकारिक प्रश्न से आरंभ कीजिए , जिसमें निबंध का मुख्य तर्क स्पष्ट रूप से बताया गया हो। 

मुख्य भाग

  • प्रसंग का वर्णन कीजिए: जीवन दो गहरी त्रासदियों को प्रस्तुत करता है – अपनी इच्छाओं को प्राप्त करने में विफल होना और उन्हें प्राप्त करने के अप्रत्याशित परिणाम।
  • उद्धरण का अर्थ संक्षेप में समझाइए।
  • अधूरी इच्छाओं की त्रासदी का परीक्षण कीजिए ।
  • इच्छाओं की पूर्ति की त्रासदी का परीक्षण कीजिए ।
  • बाह्य परिस्थितियों से स्वतंत्र होकर आनंद प्राप्त करने की अवधारणा का अन्वेषण कीजिए। 

निष्कर्ष

  • जीवन की दोहरी त्रासदियों के अन्वेषण के संबंध में निबंध का सारांश प्रस्तुत कीजिए। मानव अस्तित्व में इन विषयों की सार्वभौमिक प्रासंगिकता और स्थायी महत्व पर विचार कीजिए ।
  • आप पूरे निबंध में उद्धरण, उदाहरण, तथ्य आदि का उपयोग कर सकते हैं। 

 

हरी-भरी पहाड़ियों के बीच बसे एक छोटे से गांव में, दो मित्र, अंकित और रवि, विपरीत जीवन के अनुभवों के साथ रह रहे थे, जिसने आनंद और इच्छा की उनकी समझ को आकार दिया। अंकित, एक साधारण किसान था जो सदैव नदी के किनारे उपजाऊ ज़मीन का एक टुकड़ा प्राप्त करने का स्वप्न देखता था। उसके दिन किराये के खेतों पर कठिन परिश्रम में बीतते थे और हर रात वह उस दिन का स्वप्न देखता था जब उसकी अपनी जमीन होगी। उसके प्रयासों और आशाओं के बावजूद, कई वर्ष बीत गए लेकिन उसका स्वप्न साकार नहीं हो सका। निरंतर संघर्ष ने अंकित पर भारी बोझ डाला, जिससे प्रायः उसके मन में लालसा और अधूरी इच्छा की भावना रह जाती थी। अपने हृदय की इच्छा की अनुपस्थिति ने उसे अधूरा महसूस कराया, और उसके सपने हमेशा उसकी पहुँच से बाहर प्रतीत होने लगे, जिससे उसके जीवन में एक उदासी छा गई ।

दूसरी ओर, अंकित के बचपन के मित्र रवि को उपजाऊ ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा विरासत में मिला था और वह एक समृद्ध जीवन व्यतीत कर रहा था। रवि की इच्छाएं सदैव बिना अधिक प्रयास के पूरी हो जाती थीं और वह अपने दिन विभिन्न विलासिताओं में व्यतीत करता था। हालाँकि, जैसे-जैसे समय बीतता गया, रवि ने स्वयं को बेचैन और असंतुष्ट महसूस किया। जो वह चाहता था उसे प्राप्त करने का रोमांच शीघ्र ही समाप्त हो गया और उसके अंदर एक खालीपन बढ़ता गया। वह सब कुछ प्राप्त करने के बावजूद जो वह चाहता था, रवि को एक खालीपन महसूस होता था जिसे धन से नहीं भरा जा सकता था। जब उसे इस बात का एहसास हुआ कि उसकी इच्छाओं की पूर्ति सुख के बराबर नहीं है, ने उसे अस्तित्वगत असंतोष की स्थिति में छोड़ दिया।

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एक शाम अंकित और रवि नदी के किनारे मिले और उनकी परस्पर बातचीत से उनकी परिस्थितियों की विडंबना सामने आई। अंकित ने अधूरी इच्छाओं के कारण अपने जीवन में कभी न खत्म होने वाले दुख के बारे में बताया, जबकि रवि ने भौतिक सफलता के बावजूद अपनी अतृप्त आत्मा पर शोक व्यक्त किया। उन्होंने महसूस किया कि जीवन की सच्ची त्रासदी न केवल अधूरी इच्छाओं में निहित है, बल्कि इस अनुभूति में भी निहित है कि जो हम चाहते हैं उसे प्राप्त करने पर भी अपेक्षित सुख नहीं मिल पाता है। समझ के अपने साझा क्षण में, उन्हें एक गहन सत्य का पता चला: “जीवन में दो ही त्रासदियाँ हैं। एक है अपने हृदय इच्छा पूरी न कर पाना; दूसरी है उसे प्राप्त कर लेना ।”

यह निबंध उपर्युक्त उद्धरण के अर्थ का अन्वेषण करता है, अधूरी और पूरी हुई इच्छाओं की त्रासदियों का परीक्षण करता है, और अंततः, यह बाह्य परिस्थितियों से स्वतंत्र होकर आनंद प्राप्त करने की अवधारणा पर प्रकाश डालता है।

सुकरात का यह उद्धरण मानवीय आकांक्षाओं की दोहरी प्रकृति को उद्घाटित करता है। पहली त्रासदी अधूरे सपनों की पीड़ा, उस गहरे दुख और निराशा को दर्शाती है, जब व्यक्ति की गहन इच्छाएं उसकी पहुंच से बाहर रह जाती हैं, तथा उसके मन में लालसा और पश्चाताप की भावना रह जाती है। उदाहरण के लिए, बॉलीवुड के प्रसिद्ध कवि और गीतकार साहिर लुधियानवी अपने कार्य में अधूरी आकांक्षाओं के विषय को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करते हैं। प्रेम, क्षति और सामाजिक प्रतिबिंब के विषयों से समृद्ध उनकी कविता मानवीय अनुभव के साथ गहराई से प्रतिध्वनित होती है। “कभी कभी” (1976) के “मैं पल दो पल का शायर हूं” में लुधियानवी ने प्रसिद्धि और प्रेम की क्षणभंगुर प्रकृति का काव्यात्मक रूप से वर्णन किया है, तथा एक कवि की मार्मिक तड़प और दुःख को प्रदर्शित किया है, जिसके स्वप्न खुशी और पूर्णता के संक्षिप्त क्षणों के बावजूद पहुंच से बाहर रहते हैं।

दूसरी त्रासदी उन अप्रत्याशित बोझों की बात करती है जो इच्छाओं की पूर्ति के साथ आते हैं, तथा उन अप्रत्याशित चुनौतियों, दबावों और जिम्मेदारियों पर प्रकाश डालती है जो हमारे सपने साकार होने पर भी उत्पन्न हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर के शानदार करियर की पहचान, जो महानतम क्रिकेटरों में से एक बनने की उनकी हृदय की इच्छा को पूर्ण करने से जुड़ी है, ने भी अत्यधिक दबाव और निरतंर समीक्षा का सामना किया , जो महान सफलता से जुड़ी चुनौतियों और तनावों को प्रदर्शित करता है। दोनों पहलू व्यक्ति की गहनतम इच्छाओं की पूर्ति की अंतर्निहित जटिलताओं और विरोधाभासों को रेखांकित करते हैं।

अधूरी इच्छा की त्रासदी

अधूरी इच्छाओं की त्रासदी मानवीय अनुभव का एक गहरा पहलू है, जो विभिन्न संस्कृतियों और समाजों के व्यक्तियों के भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक मर्म को प्रभावित करती है। इसमें लालसा, निराशा और अस्तित्व संबंधी प्रश्न सहित भावनाओं का एक पूरा समूह शामिल है, जो किसी व्यक्ति के मानसिक और भावनात्मक कल्याण को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकता है।

अधूरी इच्छाओं के मूल में लालसा की गहरी भावना निहित होती है। यह भावना प्रायः किसी ऐसी वस्तु की निरंतर आकांक्षा से जुड़ी होती है जो हमारी पहुंच से बाहर होती है। भारतीय संदर्भ में, शरत चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित एक काल्पनिक पात्र देवदास की कहानी इसका उदाहरण है। पारो के प्रति देवदास का अधूरा प्रेम उसे आत्म-विनाश और निराशा के मार्ग पर ले जाता है। अपने हृदय की इच्छा को प्राप्त करने में उसकी असमर्थता उसे लालसा और पछतावे के चक्र में डाल देती है, जो अंततः उसकी मृत्यु का कारण बनती है। यह कथा उस भावनात्मक उथल-पुथल को उद्घाटित करती है जो तब उत्पन्न हो सकती है जब किसी की गहरी इच्छाएं अधूरी रह जाती हैं, जो जॉन ग्रीनलीफ व्हिटियर के शब्दों को प्रतिध्वनित करती है: ” जिह्वा और कलम से निकले सभी दुखद शब्दों में सबसे दुखद ये हैं, ‘ऐसा हो सकता था।'”

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निराशा अधूरी इच्छाओं का एक और महत्वपूर्ण आयाम है। यह प्रायः व्यक्ति की अपेक्षाओं और वास्तविकता के बीच के अंतर से उत्पन्न होती है। कई छात्रों की शैक्षिक आकांक्षाएँ इसका एक स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT)  जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा का तात्पर्य है कि कड़ी मेहनत और समर्पण के बावजूद, कई छात्रों को असफलता का सामना करना पड़ता है। इससे गंभीर निराशा हो सकती है, जिससे उनके आत्मसम्मान और मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ सकता है। सफल होने का सामाजिक दबाव इस निराशा में और अधिक वृद्धि करता है, जिसके परिणामस्वरूप कभी-कभी दुखद परिणाम सामने आते हैं, जैसे कि छात्र आत्महत्याएं हाल ही में कोटा में बिहार के एक 16 वर्षीय इंजीनियरिंग छात्र द्वारा आत्महत्या करना।

अधूरी इच्छाएं प्रायः अस्तित्व संबंधी प्रश्नों को जन्म देती हैं, जहां व्यक्ति अपने जीवन के अर्थ और उद्देश्य को लेकर संघर्ष करता है। यह प्रश्न इस भावना से उत्पन्न हो सकता है कि उनके प्रयासों के बावजूद, कुछ लक्ष्य अप्राप्य रह सकते हैं। भगवद् गीता की शिक्षाएं इस अस्तित्वगत दुविधा को संबोधित करती हैं, जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को परिणामों की आसक्ति के बिना अपने कर्तव्यों का पालन करने की सलाह देते हैं, तथा गंतव्य के बजाय यात्रा पर ध्यान केंद्रित करने के महत्व पर प्रकाश डालते हैं। इस दृष्टिकोण का उद्देश्य अधूरी इच्छाओं के कारण उत्पन्न होने वाली अस्तित्वगत पीड़ा को कम करना है।

इच्छा पूर्ति की त्रासदी

इसी प्रकार, इच्छा की पूर्ति की त्रासदी एक विरोधाभास है जो मानव आकांक्षाओं की जटिल प्रकृति को उद्घाटित करती है। किसी के हृदय की इच्छा की पूर्ति करने से अप्रत्याशित परिणाम और चुनौतियाँ सामने आ सकती हैं, जैसे कि मोहभंग, उद्देश्य की हानि और अपेक्षाओं का भार । ये प्रसंग  दर्शाते हैं कि पूर्णता सदैव सुख अथवा संतुष्टि का पर्याय नहीं होती है। जैसा कि पुरानी कहावत है, “आप जो चाहते हैं, उसके प्रति सावधान रहें; हो सकता है कि आपको वह मिल जाए।”

जब व्यक्ति अपनी गहनतम इच्छाओं को प्राप्त कर लेता है, तो उसे प्रायः निराशा की भावना का सामना करना पड़ता है। अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने की वास्तविकता उनके द्वारा स्थापित आदर्श दृष्टिकोण से मेल नहीं खा सकती है। प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने के लिए प्रयासरत छात्र प्रायः यह आशा करते हैं कि इससे उन्हें शैक्षणिक सफलता, कैरियर की संभावनाएं और व्यक्तिगत संतुष्टि की गारंटी मिलेगी। फिर भी, नामांकन के बाद, उन्हें कठिन शैक्षणिक कार्यभार और कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ सकता है, जिससे कभी-कभी उन्हें अपनी शैक्षिक यात्रा की चुनौतियों से सामंजस्य बिठाने में भी निराशा का सामना भी करना पड़ता है।

लंबे समय से संजोए गए लक्ष्य को प्राप्त करने से उद्देश्य की हानि भी हो सकती है। एक बार उद्देश्य पूर्ण  हो जाने पर, व्यक्ति अपने जीवन की दिशा और प्रेरणा पर प्रश्नचिन्ह लगाने लगता है। माइकल फेल्प्स, जो अब तक के सर्वाधिक सम्मानित ओलंपियन हैं, ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के उपरांत गहन उद्देश्यहीनता का अनुभव किया । अपनी अद्वितीय सफलता के बावजूद, फेल्प्स को अपने प्रतिस्पर्धी तैराकी करियर के समाप्त होने के बाद अवसाद और दिशाहीनता से जूझना पड़ा।    उनकी उपलब्धियां, जो स्थायी संतुष्टि का स्रोत होनी चाहिए थीं, ने उन्हें उद्देश्य की एक नई भावना की खोज करने के लिए छोड़ दिया, जो किसी की इच्छाओं को प्राप्त करने की जटिलता को रेखांकित करती हैं। जैसा कि विक्टर ई. फ्रैंकल ने कहा, “जीवन कभी भी परिस्थितियों के कारण असहनीय नहीं होता, बल्कि केवल अर्थ और उद्देश्य की कमी से होता है।”

पूरी हुई इच्छाएँ अपेक्षाओं का बोझ भी ला सकती हैं। सफलता प्रायः नए दबाव और ज़िम्मेदारियोँ को जन्म देते हुए मानदंडों में वृद्धि करती है। वैश्विक स्तर पर, हैरी पॉटर श्रृंखला की लेखिका जे.के. राउलिंग का अनुभव, इच्छाओं की पूर्ति के साथ आने वाले भार को प्रदर्शित करता है। उनकी पुस्तकों की अभूतपूर्व सफलता ने उन्हें अपार प्रसिद्धि और धन तो दिलाया ही, साथ ही अभूतपूर्व उम्मीदें को भी जन्म दिया। राउलिंग को अपने पिछले कार्यों द्वारा निर्धारित उच्च मानकों को पूरा करने के लिए दबाव का सामना करना पड़ा, जिसने उनकी रचनात्मक प्रक्रिया और व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित किया। जैसा कि उन्होंने सटीक रूप से टिप्पणी की, “किसी चीज में असफल हुए बिना जीना असंभव है, जब तक कि आप इतनी सावधानी से न जियें कि ऐसा लगे कि आपने जीवन ही न जिया हो – ऐसी स्थिति में, आप स्वतः ही असफल हो जाते हैं।”

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बाह्य परिस्थितियों से स्वतंत्र होकर आनंद की प्राप्ति

निबंध में चर्चित दो त्रासदियां इस विचार को उद्घाटित करती हैं कि सच्चा आनंद प्रायः यात्रा और प्रक्रिया से आता है, न कि केवल लक्ष्य तक पहुंचने से। जब हम यात्रा पर ध्यान केंद्रित करते हैं – प्रत्येक चरण को अपनाते हुए, सीखते हुए और आगे बढ़ते हुए – तो हमें अधिक संतुष्टि मिलती है। चाहे हम अपने सपनों को प्राप्त करें या नहीं, इस दौरान किए गए प्रयासों और अनुभवों की सराहना करना, परिणाम से कहीं अधिक संतुष्टिदायक हो सकता है। लक्ष्य संकेन्द्रण में यह बदलाव हमें केवल सफलता प्राप्त करने या असफल होने से परे स्थायी संतुष्टि प्राप्त करने में मदद करता है। अपनी यात्रा के प्रत्येक चरण को स्वीकार करना, चुनौतियों से सीखना, तथा क्रमिक प्रगति को महत्व देना हमारे जीवन के अनुभव को बदल सकता है। उदाहरण के लिए, कलाकार और तकनीकी उद्यमी, जैसे कि बैंगलोर के स्टार्टअप इकोसिस्टम में, नवोन्मेष और सहयोग की यात्रा का आनंद लेते हैं, व्यक्तिगत विकास और सीखने को केवल लाभ के मील के पत्थर तक पहुँचने से अधिक महत्व देते हैं। यह बदलाव स्वयं इस खोज के प्रति सांस्कृतिक प्रशंसा को उद्घाटित करता है, तथा समाज में प्रक्रिया-संचालित पूर्ति की व्यापक स्वीकार्यता को प्रतिबिंबित करता है। यह मानसिकता हमारा ध्यान परिणाम से हटाकर यात्रा पर केंद्रित करती है, व्यक्तिगत विकास और लचीलेपन को प्रोत्साहन देती है, अंततः संतुष्टि की अधिक स्थायी भावना की ओर ले जाती है।

इसके अतरिक्त, बाह्य परिस्थितियों से स्वतंत्र होकर आनंद प्राप्त करना एक गहन अवधारणा है, जो बाह्य कारकों पर निर्भर रहने के बजाय आनंद के आंतरिक स्रोतों पर बल देती है। यह विचार विभिन्न दार्शनिक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक परंपराओं में गहराई से निहित है, जो व्यक्तिगत इच्छाओं से परे अर्थ खोजकर स्थायी आनंद की प्राप्ति करने के विविध तरीके प्रस्तुत करता है।

सबसे पहले, दार्शनिक दृष्टिकोण से, प्राचीन ग्रीस के स्टोइक जैसे एपिक्टेटस और मार्कस ऑरेलियस ने सिखाया कि सच्ची खुशी अंदर से आती है और बाह्य घटनाओं के प्रति अपनी प्रतिक्रियाओं पर नियंत्रण पाकर हासिल की जाती है। जैसा कि एपिक्टेटस ने प्रसिद्ध रूप से कहा था “आपके साथ क्या घटित होता है यह महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि आप उस पर किस प्रकार प्रतिक्रिया करते हैं यह महत्वपूर्ण है।”  उनका मानना ​​था कि हालांकि हम अपने साथ होने वाली घटनाओं को नियंत्रित नहीं कर सकते हैं, लेकिन हम अपनी प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित कर सकते हैं, जिससे आंतरिक शांति बनी रहती है। यह दृष्टिकोण भगवद्गीता में पाए जाने वाले वैराग्य के भारतीय दर्शन से मेल खाता है, जहां भगवान कृष्ण अर्जुन को परिणामों की चिंता किए बिना अपने कर्तव्यों का पालन करने की सलाह देते हैं।

दूसरा, विश्व भर में आध्यात्मिक परंपराएं आंतरिक शांति और आनंद पर बल देती हैं तथा सिखाती हैं कि सच्ची खुशी बाह्य कारकों पर निर्भर रहने के बजाय शांत और संतुष्ट आंतरिक स्थिति विकसित करने से आती है। बौद्ध धर्म में, आंतरिक आनंद की प्राप्ति के लिए सचेतनता और ध्यान का अभ्यास मुख्य है। जैसा कि बुद्ध ने कहा है, “शांति भीतर से आती है, इसे बाहर मत खोजो।” सचेतनता वर्तमान क्षण में जीने को प्रोत्साहित करती है, अतीत के पछतावे और भविष्य की चिंताओं के प्रभाव को कम करती है।

तीसरा, आधुनिक मनोविज्ञान भी इस धारणा का समर्थन करता है कि सच्ची खुशी भीतर ही पाई जाती है। मार्टिन सेलिगमैन द्वारा प्रतिपादित सकारात्मक मनोविज्ञान इस बात का पता लगाता है कि कृतज्ञता, लचीलापन, स्वीकृति और सकारात्मक सोच जैसे कारक किस प्रकार स्थायी खुशी में योगदान करते हैं। सेलिगमैन की PERMA (सकारात्मक भावनाएं, जुड़ाव, संबंध, अर्थ और उपलब्धियां) की अवधारणा बताती है कि व्यक्ति उद्देश्यपूर्ण गतिविधियों और मजबूत सामाजिक संबंधों के माध्यम से आंतरिक आनंद किस प्रकार विकसित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, कृतज्ञता का अभ्यास व्यक्तिगत कल्याण और संतुष्टि में महत्वपूर्ण रूप से वृद्धि करता है।

चौथा, विश्व भर की सांस्कृतिक प्रथाएं बाह्य परिस्थितियों से परे आनंद पाने के तरीकों को उद्घाटित करती हैं। जापान में, “इकिगाई” (अस्तित्व का कारण) की अवधारणा लोगों को उनके जुनून, मिशन, व्यवसाय और पेशे के माध्यम से आनंद की प्राप्ति के लिए प्रोत्साहित करती है। यह समग्र दृष्टिकोण सुनिश्चित करता है कि व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में संतुष्टि पाएं। जैसा कि जापानी कहावत है, “सात बार गिरो, आठ बार उठो”, जो इकिगाई से जुड़े  लचीलेपन और आंतरिक शक्ति को प्रतिबिंबित करता है।

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जीवन की दोहरी त्रासदियों – अधूरी और पूर्ण इच्छाएं – का अन्वेषण मानवीय स्थिति के बारे में गहन अंतर्दृष्टि प्रकट करता है। अधूरी इच्छाएं भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक उथल-पुथल के एक स्पेक्ट्रम को समेटे हुए हैं, जिसमें अथक लालसा और निराशा से लेकर अस्तित्व संबंधी प्रश्न शामिल हैं। अपने हृदय की इच्छा को पूरा न कर पाने की पीड़ा प्रायः गहरे दुख की ओर ले जाती है, जो आशा, प्रयास और जीवन की कठोर वास्तविकताओं के बीच जटिल अंतर्संबंध को प्रदर्शित करता है।

दूसरी ओर, इच्छाओं की पूर्ति की त्रासदी, सफलता के साथ आने वाले अप्रत्याशित भार को उद्घाटित करती है। यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि सपनों को प्राप्त करना सदैव के लिए आनंद अथवा संतुष्टि की गारंटी नहीं है; इसके बजाय, यह नई चुनौतियों को जन्म सकता है जिनका सामना लचीलेपन और आत्म-जागरूकता के साथ किया जाना चाहिए। जैसा कि जिम कैरी ने समझदारी से टिप्पणी की थी , “मेरा मानना ​​है कि हर किसी को अमीर और प्रसिद्ध होना चाहिए तथा वह सब कुछ करना चाहिए जिसका उन्होंने कभी सपना देखा था, ताकि वे देख सकें कि यह उत्तर नहीं है।” यह विरोधाभास इस विचार को रेखांकित करता है कि संतुष्टि एक बहुआयामी अनुभव है, जो प्रायः अप्रत्याशित कठिनाइयों से भरा होता है।

निबंध में बाह्य परिस्थितियों से स्वतंत्र होकर आनंद प्राप्त करने के महत्व पर बल दिया गया है। दार्शनिक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक परंपराएं इस धारणा पर एकमत हैं कि सच्ची खुशी भीतर से ही आती है। चाहे वह अपनी प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करने के स्टोइक अभ्यास के माध्यम से हो, जैसा कि एपिक्टेटस ने कहा था, “यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आपके साथ क्या होता है, बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि आप उस पर किस प्रकार प्रतिक्रिया करते हैं”। सूफीवाद की शिक्षाएं ईश्वरीय प्रेम और आंतरिक शांति पर बल देती हैं, या फिर ध्यान और कृतज्ञता के माध्यम से मनोवैज्ञानिक कल्याण की खोज पर बल देती हैं, स्थायी आनंद का मार्ग आंतरिक शांति और आत्म-जागरूकता में निहित है। यह समझ एक संतुलित दृष्टिकोण प्रदान करती है, जो व्यक्तियों को इच्छाओं की प्राप्ति से परे अर्थ और पूर्ति की खोज करने के लिए प्रोत्साहित करती है। ऐसा करने में, यह जीवन की अंतर्निहित त्रासदियों से निपटने के लिए एक दिशानिर्देश प्रदान करता है, तथा बाह्य उपलब्धियों से परे संतोष की भावना को बढ़ावा देता है। जैसा कि बुद्ध ने बुद्धिमत्तापूर्वक कहा था, “शांति भीतर से आती है, इसे बाहर मत खोजो।”

 

अधूरे सपनों में, दुख उड़ान भरता है,

पूरी हुई इच्छाओं में, भार उतरता है।

फिर भी भीतर का आनंद, भाग्य से बंधा नहीं,

आंतरिक शांति में, हम सच्चा आनंद प्राप्त करते हैं।

प्राचीन शिक्षाओं से लेकर आधुनिक समय तक,

सचेतन तरीके से आनंद को खोजें।

जीवन की दोहरी त्रासदियों के माध्यम से, हम इस सत्य को देखते हैं,

आंतरिक आनंद आत्मा को मुक्त करता है।

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