Q. संविधान के अभिन्न अंग के रूप में प्रस्तावना की व्याख्या करने के निहितार्थ क्या हैं, विशेषकर समाज के विभिन्न वर्गों के अधिकारों की सुरक्षा में? प्रासंगिक निर्णयों के साथ स्पष्ट कीजिए। (10 अंक , 150 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • संविधान के अभिन्न अंग के रूप में प्रस्तावना की व्याख्या के निहितार्थों का विश्लेषण कीजिए।
  • प्रासंगिक निर्णयों का उदाहरण देते हुए समाज के विभिन्न वर्गों के अधिकारों की सुरक्षा में इसकी भूमिका का परीक्षण कीजिए।

उत्तर

प्रस्तावना न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व सहित राष्ट्र के आकांक्षात्मक मूल्यों का प्रतिनिधित्व करती है। हालाँकि शुरू में इसे गैर-प्रवर्तनीय माना जाता था, लेकिन न्यायिक व्याख्याओं ने इसे संविधान के एक अभिन्न अंग के रूप में स्थापित कर दिया है, जो कानूनों का मार्गदर्शन करने और नागरिकों, विशेष रूप से हाशिए पर स्थित समूहों के अधिकारों की रक्षा करने में महत्त्व पूर्ण भूमिका निभाता है।

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संविधान के अभिन्न अंग के रूप में प्रस्तावना की व्याख्या के निहितार्थ

  • न्याय के सिद्धांतों को मजबूत करना: प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय पर बल दिया गया है, जिससे न्यायालयों को असमानताओं को दूर करने और सार्वजनिक नीतियों व शासन में निष्पक्षता सुनिश्चित करने में मदद मिलती है। 
    • उदाहरण के लिए: केरल राज्य बनाम  एन.एम. थॉमस  (1976) वाद में इस बात पर बल देते हुए कि प्रस्तावना ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों के लिए न्याय को अनिवार्य बनाती है, सुप्रीम कोर्ट ने, सकारात्मक कार्रवाई नीतियों के सिद्धांत को बरकरार रखा।
  • संवैधानिक व्याख्या का मार्गदर्शन: प्रस्तावना संविधान के दार्शनिक आधार के रूप में कार्य करती है, जो मौलिक अधिकारों और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों से संबंधित प्रावधानों की व्याख्या करने में न्यायालयों का मार्गदर्शन करती है। 
    • उदाहरण के लिए: केशवानंद भारती वाद (1973) में, न्यायालय ने प्रस्तावना को संविधान का अभिन्न अंग घोषित किया और इसका उपयोग मूल संरचना सिद्धांत को स्थापित करने , लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समानता की रक्षा करने के लिए किया।
  • धर्मनिरपेक्षता और समानता को लागू करना: धर्मनिरपेक्षता को एक बुनियादी मूल्य के रूप में स्थापित करके, प्रस्तावना यह सुनिश्चित करती है कि सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार किया जाए, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा की जाए और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा दिया जाए। 
    • उदाहरण के लिए: S.R. बोम्मई वाद (1994) में, न्यायालय ने राज्य शासन में धर्म के दुरुपयोग को अमान्य करार देते हुए धर्मनिरपेक्षता को संविधान की  संरचना का हिस्सा घोषित करने के लिए प्रस्तावना का सहारा लिया।
  • समानता और सामाजिक समावेश को बढ़ावा देना: प्रस्तावना में दर्जे और अवसर की समानता का वादा न्यायपालिका को प्रणालीगत भेदभाव से निपटने और समावेशी नीतियों को बढ़ावा देने का अधिकार देता है। 
    • उदाहरण के लिए: इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ वाद (1992) में, न्यायालय ने पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को बरकरार रखा और इसे प्रस्तावना के समता और न्याय के दृष्टिकोण से जोड़ा।
  • अधिकारों और कर्तव्यों में संतुलन: प्रस्तावना, व्यक्तिगत अधिकारों और सामूहिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन सुनिश्चित करती है, जिससे न्यायालयों को समाज के व्यापक हित को ध्यान में रखते हुए अधिकारों को बनाए रखने में मदद मिलती है। 
    • उदाहरण के लिए: मिनर्वा मिल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ (1980) वाद में  उच्चतम न्यायालय ने प्रस्तावना के उद्देश्यों द्वारा निर्देशित मौलिक अधिकारों और राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों के बीच सामंजस्य पर बल दिया।

समाज के विभिन्न वर्गों के अधिकारों की रक्षा में प्रस्तावना की भूमिका

  • हाशिए पर पड़े समुदायों को सशक्त बनाना: प्रस्तावना के न्याय और समानता के आदर्श, सकारात्मक कार्रवाई नीतियों को संवैधानिक वैधता प्रदान करते हैं जो वंचित समूहों का उत्थान करते हैं और ऐतिहासिक असमानताओं को दूर करते हैं। 
    • उदाहरण के लिए: एम. नागराज बनाम भारत संघ (2006) वाद में इस बात पर बल देते हुए कि प्रस्तावना का उद्देश्य एक समावेशी समाज बनाना है, न्यायालय ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण को बरकरार रखा।
  • महिला अधिकारों को कायम रखना: प्रस्तावना में स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांतों ने महिलाओं के अधिकारों का विस्तार करने और लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने वाले निर्णयों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 
    • उदाहरण के लिए: विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) वाद में, न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ दिशा-निर्देश तैयार किए, जिसमें प्रस्तावना की समानता और न्याय के प्रति प्रतिबद्धता पर जोर दिया गया।
  • धार्मिक और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा: प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता और समानता के प्रति प्रतिबद्धता ,भेदभाव के विरुद्ध अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करती है साथ ही उनकी अपनी संस्कृति का पालन करने और उसे संरक्षित करने के अधिकारों की रक्षा भी करती है।
  • LGBTQ+ अधिकारों को मान्यता देना: प्रस्तावना के स्वतंत्रता और बंधुत्व के आदर्शों ने LGBTQ+ व्यक्तियों के अधिकारों और सम्मान को मान्यता देने वाले निर्णयों को निर्देशित किया है , जिससे सामाजिक स्वीकृति और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बढ़ावा मिलता है।
    • उदाहरण के लिए: नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ वाद (2018) में, सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध करार देने से मना कर दिया, और प्रस्तावना के स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों को बनाए रखने को आवश्यक घोषित किया।
  • आर्थिक असमानताओं को संबोधित करना: प्रस्तावना में आर्थिक न्याय पर बल दिया गया है , जिससे न्यायालयों को ऐसी नीतियों का समर्थन करने में मदद मिलती है जो आय असमानताओं को कम करती हैं और संसाधनों तक समान पहुँच को बढ़ावा देती हैं। 
    • उदाहरण के लिए: न्यायालय ने शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 की संवैधानिकता को बरकरार रखा और इसे प्रस्तावना के समानता और न्याय के अधिदेश से जोड़ा।

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प्रस्तावना को संविधान के अभिन्न अंग के रूप में व्याख्यायित करने से भारत के कानूनी ढाँचे की नैतिक और दार्शनिक आधारशिला के रूप में इसकी भूमिका मजबूत होती है । यह सुनिश्चित करता है कि संवैधानिक आदर्श सभी नागरिकों के लिए ठोस सुरक्षा में तब्दील हो जाएँ। न्यायिक निर्णयों का मार्गदर्शन करके और प्रणालीगत असमानताओं को संबोधित करके प्रस्तावना, आकांक्षाओं और वास्तविकताओं के बीच के अंतर को कम करती है और अधिक समावेशी, समतापूर्ण और न्यायपूर्ण लोकतंत्र को बढ़ावा देती है।

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