Q. उत्तरकाशी में हाल ही में हुई बादल फटने की घटना इस बात का प्रमाण है कि कैसे जलवायु परिवर्तन भारत में, विशेष रूप से पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में, प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ा रहा है। इसके आलोक में, भारत की वर्तमान आपदा प्रबंधन रणनीतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए और जलवायु-अनुकूल भविष्य के लिए एक व्यापक रोडमैप सुझाइए। (250 शब्द, 15 अंक)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • भारत की वर्तमान आपदा प्रबंधन रणनीतियों पर चर्चा कीजिए।
  • भारत की वर्तमान आपदा प्रबंधन रणनीतियों की सीमाओं का उल्लेख कीजिये।
  • जलवायु-अनुकूल भविष्य के लिए एक व्यापक रोडमैप सुझाइये।

उत्तर

परिचय

“एशिया का जल स्तंभ” कहे जाने वाले हिमालयी क्षेत्र में बढ़ते तापमान, हिमनद के पिघलने और अनियमित मानसून के कारण चरम जलवायु घटनाओं का खतरा लगातार बढ़ रहा है। उत्तरकाशी में बादल प्रस्फुटन जैसी हालिया आपदाएँ बढ़ते जलवायु संकट और इन अचानक होने वाली स्थानीय आपदाओं से निपटने के लिए भारत की तैयारी की कमी, दोनों को दर्शाती हैं।

मुख्य भाग 

भारत की वर्तमान आपदा प्रबंधन रणनीतियाँ

  • आपदा प्रबंधन संस्थाओं की स्थापना: भारत में आपदाओं के व्यवस्थित प्रबंधन के लिए NDMA, SDMA, DDMA जैसे त्रि-स्तरीय संस्थागत तंत्र हैं।
    उदाहरण: भूस्खलन पर NDMA के दिशानिर्देश (2019) में प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली और ढलान स्थिरीकरण है।
  • पूर्वानुमान और मौसम विज्ञान अवसंरचना का विस्तार: मौसम पूर्वानुमान और प्रारंभिक चेतावनी प्रसार में सुधार के प्रयास चल रहे हैं।
    उदाहरण: IMD डॉप्लर रडार और सैटेलाइट डेटा का उपयोग करता है तथा चरम मौसम की घटनाओं के लिए प्रभाव-आधारित पूर्वानुमान शुरू किया।
  • जलवायु जोखिमों को मान्यता देने वाली नीतिगत रूपरेखाएँ: राष्ट्रीय योजनाएँ, जलवायु परिवर्तन और आपदाओं के बीच संबंध को स्वीकार करती हैं।
    उदाहरण: जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) में राष्ट्रीय सतत आवास मिशन शामिल है।
  • आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रणालियों को सुदृढ़ करना: भारत ने NDRF और स्थानीय आपातकालीन बलों को सुदृढ़ करने में निवेश किया है।
    उदाहरण: NDRF ने उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे पर्वतीय आपदा क्षेत्रों में विशेष टीमें तैनात की हैं।
  • आपदा जोखिम न्यूनीकरण पर क्षेत्रीय और वैश्विक सहयोग: भारत वैश्विक जोखिम मंचों में भाग लेता है और क्षेत्रीय क्षमता निर्माण को बढ़ावा देता है।
    उदाहरण: भारत के नेतृत्व में 2019 में आपदा रोधी अवसंरचना गठबंधन (CDRI) की स्थापना हुई और सेंदाई फ्रेमवर्क में भागीदारी की गई।
  • समुदाय-आधारित तैयारी पहल: आपदा न्यूनीकरण योजनाओं में जमीनी स्तर के प्रयासों को तेजी से एकीकृत किया जा रहा है।
    उदाहरण: पहाड़ी राज्यों में सामुदायिक आपदा तत्परता (CBDP) कार्यक्रम जैसी पहल ने प्रभावशीलता दिखाई है।

भारत की वर्तमान आपदा प्रबंधन रणनीतियों की सीमाएँ

  • पुरानी अवसंरचना वर्तमान चरम परिस्थितियों के अनुकूल नहीं: पारंपरिक अवसंरचना पुराने वर्षा पैटर्न के अनुसार डिज़ाइन की गई है। इस‌ वजह से वो वर्तमान चरम परिस्थितियों के अनुकूल नहीं है
    उदाहरण: उच्च तीव्रता वाले बादल प्रस्फुटन के दौरान तटबंध और बांध अक्सर ढह जाते हैं, जैसा कि उत्तरकाशी में देखा गया।
  • हिमालयी क्षेत्र में अपर्याप्त रियलटाइम निगरानी: सीमित डेटा अवसंरचना, संवेदनशील क्षेत्रों में पूर्वानुमान क्षमताओं को सीमित करती है।
    उदाहरण: हिमालय क्षेत्र में सीमित स्वचालित मौसम स्टेशन (AWS) समय पर चेतावनी देने में बाधा डालते हैं।
  • मंत्रालयों और स्तरों पर भिन्नभिन्न दृष्टिकोण: जलवायु-आपदा संबंध विभिन्न क्षेत्रों में पर्याप्त रुप से एकीकृत है (अलग-थलग दृष्टिकोण)।
    उदाहरण: पर्यावरण, शहरी विकास और आपदा एजेंसियों के बीच समन्वय की कमी से प्रतिक्रिया में देरी होती है।
  • निवारक दृष्टिकोण के बजाय प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण: दीर्घकालिक जोखिम न्यूनीकरण के बजाय आपदा के बाद राहत पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
  • पारिस्थितिकी तंत्र आधारित उपायों की उपेक्षा: कंक्रीट अवसंरचना पर अत्यधिक निर्भरता प्राकृतिक समाधानों (शहरी नीले और हरे स्थान) की उपेक्षा करती है।
    उदाहरण: शिमला और देहरादून जैसे पर्वतीय शहरों से आर्द्रभूमि और स्पंज जोन तेजी से लुप्त हो रहे हैं।
  • निर्णय लेने में स्थानीय ज्ञान का सीमित समावेशन: टॉप-डाउन रणनीतियाँ अक्सर स्वदेशी अनुकूलन प्रथाओं की अनदेखी करती हैं।
    उदाहरण: चरम मौसम के पारंपरिक संकेतों को सरकारी प्रारंभिक चेतावनी प्रोटोकॉल में शामिल नहीं किया जाता है।

जलवायु-प्रत्यास्थ भविष्य के लिए रोडमैप

  • रियलटाइम निगरानी अवसंरचना का विस्तार करना: स्थानीय मौसम संबंधी घटनाओं का पता लगाने और पूर्वानुमान करने के लिए AWS और उपग्रह उपकरणों का उपयोग करना चाहिए।
    उदाहरण के लिए: राष्ट्रीय जल विज्ञान परियोजना के तहत AWS नेटवर्क के विस्तार की सरकार की योजना में हिमालयी राज्यों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
  • नियोजन में पारिस्थितिक समाधानों को मुख्यधारा में लाना: बाढ़ और भूस्खलन के प्रतिकूल प्रभावों का समाधान करने के लिए प्रकृति-आधारित प्रणालियों का उपयोग करना चाहिए।
    उदाहरण के लिए: नमामि गंगे वनीकरण परियोजना (हरित क्षेत्र) और आर्द्रभूमि (ब्लू स्पेस) जैसे प्राकृतिक बफर्स की पुनर्स्थापना को आपदा प्रबंधन योजनाओं के साथ एकीकृत किया जाना चाहिए।
  • शहरी और ग्रामीण शासन में जलवायु अनुकूलन को शामिल करना: नियोजन और निर्माण कार्य में बदलते जलवायु जोखिमों पर विचार किया जाना चाहिए।
    उदाहरण: स्मार्ट सिटी मिशन के अंतर्गत शहरी जलवायु प्रत्यास्थता कार्यक्रमों में पहाड़ी कस्बों में ढलान-स्थिरीकरण और बफर-ज़ोनिंग शामिल हो सकती है।
  • जलवायु जोखिम आकलन के साथ अवसंरचना का आधुनिकीकरण: भविष्य की अवसंरचना को अधिक गंभीर जलवायु घटनाओं को ध्यान में रखते हुए तैयार करना चाहिए।
    उदाहरण: NDMA के जलवायु सुभेद्यता दिशानिर्देशों के अनुसार चार धाम सड़क परियोजना में जल निकासी और ढलान-सुरक्षा को उन्नत करना चाहिए।
  • स्थानीय समुदायों को सशक्त और प्रशिक्षित करना: विकेंद्रीकृत, समावेशी आपदा प्रतिक्रियाओं के लिए जमीनी स्तर पर क्षमता निर्माण करना चाहिए।
    उदाहरण: पंचायत स्तर के स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित करने के लिए SDRF द्वारा भारत के भेद्यता एटलस और CBDM मॉड्यूल का उपयोग किया जा रहा है।
  • समर्पित जलवायु प्रत्यास्थता कोष बनाना: संवेदनशील पारिस्थितिक तंत्रों में अनुकूलन की दिशा में दीर्घकालिक निवेश को बढ़ावा देना चाहिए।
    उदाहरण के लिए: जलवायु परिवर्तन हेतु राष्ट्रीय अनुकूलन कोष (NAFCC), सिक्किम में ढलान स्थिरीकरण जैसी राज्य परियोजनाओं में सहायता करता है।

निष्कर्ष

यद्यपि भारत ने आपदा प्रतिक्रिया तंत्र में सराहनीय प्रगति की है, किंतु उत्तरकाशी में बादल प्रस्फुटन की घटना राहत-केंद्रित से प्रत्यास्थता-केंद्रित रणनीतियों की ओर बढ़ने की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है। आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए सेंदाई फ्रेमवर्क (2015-2030) के अनुरूप, भारत को जोखिम पहचान, पूर्व चेतावनी, शासन सुधार और पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

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