Q. लोकसभा में उपसभापति का पद लंबे समय से खाली होने के कारण संवैधानिक अनुपालन और संसदीय परंपराओं पर चिंताएँ बढ़ गई हैं। इस संदर्भ में, लोकतांत्रिक संतुलन बनाए रखने में अलिखित परंपराओं की भूमिका का आकलन कीजिये। क्या ऐसी परंपराओं के लिए वैधानिक समर्थन संस्थागत जवाबदेही को मजबूत कर सकता है? (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • उपसभापति का पद लंबे समय से रिक्त रहने से संबंधित चिंताओं पर चर्चा कीजिए।
  • लोकतांत्रिक संतुलन बनाए रखने में अलिखित परंपराओं की भूमिका पर चर्चा कीजिए।
  • सम्मेलनों के कानूनी प्रवर्तन के संभावित लाभों और सीमाओं का परीक्षण कीजिए।

उत्तर

उप सभापति का पद लंबे समय से खाली रहना भारतीय संविधान के अनुच्छेद-93 का उल्लंघन है, जो इसके शीघ्र चुनाव को अनिवार्य बनाता है। अलिखित परंपराओं ने ऐतिहासिक रूप से संवैधानिक प्रावधानों के साथ-साथ संसदीय मानदंडों को भी बरकरार रखा है। यह मुद्दा लोकतांत्रिक संतुलन को बनाए रखने में इन परंपराओं के महत्त्व को उजागर करता है।

उप सभापति का पद लंबे समय से रिक्त रहने की चिंता

  • संवैधानिक अधिदेश का उल्लंघन: अनुच्छेद-93 और 94 में कहा गया है कि लोकसभा को “जितनी जल्दी हो सके” एक उप सभापति का चुनाव करना चाहिए, फिर भी छह साल बीत जाने के बाद भी इस पद को नहीं भरा गया। यह संवैधानिक मंशा को कमजोर करता है
  • संसदीय परंपराओं का क्षरण: परंपरागत रूप से, द्विदलीय सहयोग को बढ़ावा देने के लिए उप सभापति का पद विपक्ष को दिया जाता है। पद को खाली छोड़ना इस लंबे समय से चली आ रही परंपरा को तोड़ता है।
  • सत्ता का संकेंद्रण: उपसभापति के बिना, पीठासीन प्राधिकार आमतौर पर सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष के पास रहता है, जिससे विपक्षी उपसभापति द्वारा प्रदान की जाने वाली अनौपचारिक जाँच कमजोर हो जाती है ।
  • प्रक्रियागत भेद्यता: अध्यक्ष की अनुपस्थिति, त्याग-पत्र या अक्षमता की स्थिति में कार्यवाही की अध्यक्षता करने के लिए कोई स्पष्ट उत्तराधिकारी नहीं होता, जिससे विधायी कार्य में व्यवधान उत्पन्न होने का खतरा रहता है।
  • लोकतांत्रिक संतुलन में कमी: उप-सभापति का स्थान रिक्त रहने से सत्ता में भागीदारी की अनिच्छा का संकेत मिलता है और विपक्ष की भूमिका कम हो जाती है। इससे संसदीय बहसों में पारदर्शिता और जवाबदेही कम हो जाती है।

लोकतांत्रिक संतुलन बनाए रखने में अलिखित परंपराओं की भूमिका

  • द्विदलीय सहयोग को बढ़ावा: उपसभापति का पद विपक्ष को देने की परंपरा से विभिन्न दलों के बीच कार्य संबंधों को बढ़ावा मिलता है तथा प्रतिकूल गतिरोध कम होता है।
  • बहुसंख्यक शासन पर नियंत्रण बनाए रखना: सम्मेलन प्रमुख पदों का वितरण करके सत्तारूढ़ दल के प्रभुत्व को नियंत्रित करते हैं तथा यह सुनिश्चित करते हैं कि प्रक्रियागत निर्णयों में अल्पसंख्यकों के हितों का ध्यान रखा जाए।
  • लिखित संविधान में अंतराल को कम करना: जहाँ अनुच्छेद-93 और 94 में समय सीमा का अभाव है, वहाँ परंपराओं में एक अनौपचारिक समयसीमा लागू की गई है, जिसका संसद ने ऐतिहासिक रूप से सम्मान किया है।
  • संस्थागत प्रत्यास्थता विकसित होता है: परंपराओं का नियमित पालन सदस्यों को मानक शक्ति-साझाकरण के लिए अनुकूल बनाता है तथा कानूनी आदेशों से परे लोकतांत्रिक मानदंडों को मजबूत बनाता है।
  • बदलते राजनीतिक संदर्भों के अनुकूल होना: अलिखित परंपराएँ, कानूनों की तुलना में अधिक तेजी से विकसित हो सकती हैं, जिससे संसद को संतुलन बनाए रखते हुए नई चुनौतियों के प्रति लचीले ढंग से प्रतिक्रिया करने की अनुमति मिलती है।

जवाबदेही के लिए सम्मेलनों के कानूनी प्रवर्तन के संभावित लाभ

  • स्पष्ट समय सीमा और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना: परंपराओं को संहिताबद्ध करना (जैसे- उप-सभापति के चुनाव के लिए समयसीमा) अस्पष्टता को दूर करता है, समय पर कार्रवाई को बाध्य करता है और लंबे समय तक रिक्तियों को रोकता है।
  • स्वच्छंद निर्णय लेने में कमी: कानूनी आवश्यकताएँ सत्तारूढ़ दलों को स्थापित मानदंडों में देरी करने या उन्हें दरकिनार करने के बजाय उनका पालन करने के लिए मजबूर करती हैं, जिससे स्थिरता और निष्पक्षता बनी रहती है।
  • पारदर्शिता में वृद्धि: एक वैधानिक ढाँचा स्पष्ट प्रक्रियाओं को रेखांकित करता है, जिससे नागरिकों और मीडिया के लिए अनुपालन की निगरानी करना और संसद को जवाबदेह बनाना आसान हो जाता है
  • लागू करने योग्य परिणाम लागू करना: यदि परंपराओं की अनदेखी की जाती है तो कानून दंड का प्रावधान कर सकता है, जिससे गैर-अनुपालन के विरुद्ध वास्तविक निवारक उपाय तैयार हो सकते हैं।
  • शक्तियों के पृथक्करण को सुदृढ़ करना: कानून में परंपराओं को शामिल करके, विधायिका कार्यपालिका के हस्तक्षेप से अपनी स्वायत्तता का दावा करती है, तथा यह सुनिश्चित करती है कि संसदीय प्रक्रियाओं का स्वतंत्र रूप से सम्मान किया जाए।

लचीले लोकतंत्र में परंपराओं को संहिताबद्ध करने की कमियाँ

  • कठोरता का जोखिम: परंपराएँ अक्सर बदलते राजनीतिक संदर्भों के अनुरूप विकसित होती हैं। एक बार संहिताबद्ध हो जाने के बाद, वे अनम्य हो सकती हैं और अनुकूलन में धीमी हो सकती हैं।
  • औपचारिक तंत्रों पर अत्यधिक निर्भरता: कानूनी आदेश वास्तविक अंतर-पक्षीय संवाद को मात्र प्रक्रियात्मक अनुपालन तक सीमित कर सकते हैं, जिससे सहयोग कमजोर हो सकता है।
  • कानूनी विवादों की संभावना: वैधानिक परंपराएँ व्याख्याओं को लेकर मुकदमेबाजी को बढ़ावा दे सकती हैं, जिससे अदालतों का ध्यान मुख्य विधायी मुद्दों से हट सकता है।
  • विधायी गतिरोध: संहिताकरण से सहकारी मानदंडों का राजनीतीकरण हो सकता है, जिससे राजनीतिक दलों को खामियों का फायदा उठाने और महत्त्वपूर्ण नियुक्तियों में देरी करने का मौका मिल सकता है।
  • निश्चितता की झूठी भावना: सख्त नियम सूक्ष्म स्थितियों को नजरअंदाज कर सकते हैं जहाँ लचीले, अलिखित सिद्धांत लोकतांत्रिक आवश्यकताओं को बेहतर ढंग से पूरा करते हैं।

अलिखित परंपराएँ संवैधानिक आदेशों के पूरक के रूप में लोकतांत्रिक स्थिरता को बनाए रखती हैं। ऐसे समय में जब राजनीतिक स्वार्थ संवैधानिक नैतिकता को कमजोर कर रहा है, चुनिंदा वैधानिक सुदृढ़ीकरण द्वारा समर्थित इन आदेशों का पालन, संस्थागत जवाबदेही की रक्षा कर सकता है, प्रभावी शासन सुनिश्चित कर सकता है और भारत के संसदीय लोकतंत्र की भावना को संरक्षित कर सकता है।

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