भारत में लोकप्रिय आंदोलन / कार्यक्रम # |
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भूमि सुधार |
परिचय–
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- आजादी के बाद भारत में भूमि सुधार प्रक्रियाओं को दो चरणों में वर्गीकृत किया जा सकता है –
प्रथम चरण – संस्थागत सुधार का चरण |
कुमारप्पा समिति – आजादी के समय, न केवल जमींदार और तालुकदार जैसे बिचौलिये देश में कृषि पर हावी थे, बल्कि प्रवासी जमींदारों के विभिन्न रूप भी मौजूद थे।
- भूमि में निवेश की कमी के कारण कृषि उत्पादन प्रभावित हुआ , जो निम्न कारकों का परिणाम था: जमींदारों द्वारा अनुचित काश्तकारी अनुबंध, बेगार, जमींदारों द्वारा अवैध वसूली और किसानों से अतिशय लगान।
- कुमारप्पा समिति ने पहली बार देश में विद्यमान कृषि-संबंधों का विस्तृत रूप से सर्वेक्षण किया और भूमि सुधारों के सभी मुद्दों से संबंधित व्यापक सिफारिशें दीं-
- उन्होंने कहा कि राज्य और कृषक के बीच के सभी बिचौलियों को समाप्त किया जाना चाहिए और भूमि वास्तविक कृषक की होनी चाहिए।
- किराए पर ज़मीन देना प्रतिबंधित किया जाना चाहिए (विधवाओं, नाबालिगों और अन्य दिव्यांग व्यक्तियों के मामले को छोड़कर)। वे व्यक्ति जो न्यूनतम शारीरिक श्रम करते हैं परंतु वास्तविक कृषि गतिविधियों में भाग लेते हैं, उन्हें व्यक्तिगत रूप से खेती करनी चाहिए, आदि।
- भूमि (जिस पर किसानों द्वारा खेती की जाती है) के आकार पर एक सीमा होनी चाहिए।
- इसके तहत पुनर्जीवित की गई बंजर-भूमि के विकास के लिए सामूहिक खेती पर विचार किया गया, जिस पर भूमिहीन मजदूरों को काम पर लगाया जा सकता था।
- यह माना गया कि कृषक खेती(वो किसान जो खेती करने के लिए स्वतंत्र होते है ) सबसे उपयुक्त होगा।
जमींदारी उन्मूलन– |
- जब संविधान सभा भारत के संविधान को बनाने की प्रक्रिया में थी, कई प्रांतों, जैसे कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, मद्रास, असम और बॉम्बे ने बिचौलियों को हटाने के लिए जमींदारी उन्मूलन विधेयक पेश किया।
- 1951 में पहला संशोधन और 1955 में चौथे संशोधन ने, जमींदारी उन्मूलन को लागू करने के लिए राज्य विधानसभाओं को और मजबूत किया, जिसने अदालतों में किसी भी मौलिक अधिकार के उल्लंघन के सवाल को अस्वीकार्य घोषित किया।
- जमींदारी उन्मूलन कानून को लागू करने में एक और बड़ी बाधा पर्याप्त भूमि रिकॉर्ड की अनुपस्थिति थी।
- इन सभी के बीच, देश में भूमि सुधार की प्रक्रिया 1950 के दशक के अंत तक पूरी हो गई।
- जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के बाद, लगभग 20 मिलियन काश्तकार भूस्वामी बन गए। इसके तहत उन्हें न केवल भूमि का मालिकाना हक प्राप्त हुआ, बल्कि वे मौजूदा जमीन मालिकों के चंगुल से भी मुक्त हुए।
- काश्तकारों की जनसंख्या के आधार पर, भू-स्वामियों को दिए गए मुआवजे, प्रत्येक राज्य में अलग-अलग थे।
बिचौलियों का उन्मूलन |
- आजादी के दौरान भारत में तालुकदार, जागीर और इमाम जैसे बिचौलियों का कृषि क्षेत्र पर वर्चस्व था।
- आजादी के तुरंत बाद, देश के विभिन्न हिस्सों में जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के उपाय किए गए।
- बिचौलियों को खत्म करने का पहला अधिनियम 1948 में मद्रास में पारित किया गया था।
- परिणामस्वरूप, लगभग एक करोड़ काश्तकारों को भूमि का स्वामित्व मिला।
रुकावटें– |
- ज़मींदारों की अनिच्छा –
- कानून पारित होने के बाद, ज़मींदारों ने उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में मुक़दमा दायर किया। इस तरह के मुकदमों ने इन विधानों की प्रभावशीलता को बहुत कम कर दिया।
- अंत में कानून लागू होने के बाद, जमींदारों ने राजस्व अधिकारियों के साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया।
- ग्राम और तहसील स्तर पर छोटे राजस्व अधिकारियों ने रिश्वत के लिए जमींदारों का सक्रिय रूप से समर्थन किया।
- कानून में त्रुटियां–
- जमींदारों ने काश्तकारों को बेदखल करने और कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से अधिकांश जमीन को अपने पास रखने के लिए कानून में इस खामी का दुरुपयोग किया।
- उन्होंने उत्पादकता बढ़ाने के लिए क्षेत्र में पूंजीवादी खेती शुरू कर दी।
- नए बिचौलिए –
- जमींदारी उन्मूलन के मुख्य लाभार्थी बड़े (superior) काश्तकार थे।
- इन नए भूस्वामियों ने उसी भूमि को छोटे (inferior) बटाईदारों को पट्टे पर दे दिया, जो कि मौखिक और अनैतिक समझौतों पर आधारित था।
- ये छोटे किरायेदार नए ज़मींदारों की इच्छा के अनुसार हटाए जा सकते थे।
काश्तकारी सुधार– |
- काश्तकारी सुधार कानून में काश्तकारों के पंजीकरण का प्रावधान था, इसके तहत पूर्व काश्तकारों को सीधे राज्य के तहत लाने के लिए उन्हें मालिकाना हक दिया गया था।
- हालाँकि, भारत के विभिन्न हिस्सों में राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियाँ इतनी भिन्न थीं कि विभिन्न राज्यों द्वारा पारित काश्तकारी कानून की प्रकृति और उनके कार्यान्वयन के तरीके भी भिन्न थे।
- कई राज्यों ने कानून बनाया, और काश्तकारों को पट्टेदारी (tenure of land) की सुरक्षा प्रदान की। लेकिन वे सभी जगहों पर समान नहीं हैं। कुछ राज्यों में जमींदार द्वारा भूमि पर फिर से स्व-खेती शुरू किया गया, जिसके उपरांत काश्तकारों को एक न्यूनतम जमीन देने की आवश्यकता होती है।
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किराए का नियमन: |
- किराए को विनियमित करने वाले कानूनों के अधिनियमन से पहले, काश्तकारों द्वारा जमींदारों को उपज का 50 से लेकर 80 प्रतिशत तक अत्यधिक किराए का भुगतान किया जाता था। इसे विनियमित करने के लिए कानून पारित किए गए।
- अब किराए की अधिकतम दरें तय की गईं (जो आंध्र प्रदेश, हरियाणा और पंजाब को छोड़कर सभी राज्यों में सकल उपज का 1/4 से अधिक नहीं हो सकता था)।
स्वामित्व का अधिकार: |
- कुछ राज्यों में, सरकारों ने मुआवजा देने के बाद, मालिकों से ज़मीन ले ली और फिर उसी ज़मीन को राज्यों ने क़ीमत (किस्तों में) के बदले काश्तकारों को हस्तांतरित कर दिया।
- दूसरे जगहों में, काश्तकारों को सीधे मालिकों को एक निश्चित मुआवजा (किस्तों में) देने के लिए कहा गया ।
संवैधानिक सुरक्षा:
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जुलाई, 2013 में, ग्रामीण विकास मंत्रालय ने एक नई राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति का मसौदा तैयार किया। इसके पाँच मूल लक्ष्य हैं-
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भूमि सीमांकन/लैंड सीलिंग – |
- लैंड सीलिंग का अर्थ है किसी एक व्यक्ति या परिवार के पास जमीन की अधिकतम सीमा को तय करना|
- इसका उद्देश्य भूमि वितरण में समानता लाना था।
- तय की गई सीमा से ऊपर की भूमि को अधिशेष भूमि कहा जाता था।
- सरकार अधिशेष भूमि के साथ क्या करती थी- यदि किसी व्यक्ति या परिवार के पास तय सीमा से अधिक भूमि होती थी, तो अधिशेष भूमि को असली मालिक को मुआवजा देकर या बिना मुआवजा दिए, ले लिया जाता था और उस भूमि को लघु किसान, भूमिहीनों या ग्राम पंचायत या सहकारी कृषकों को वितरित कर दिया जाता था।
- इसलिए, भूमि की अधिकतम सीमा को तय करना सामाजिक न्याय की ओर एक महत्वपूर्ण कदम था।
- कमियाँ- अधिकांश राज्यों में सीलिंग कानूनों के अनुसार कुछ बड़ी कमियाँ थीं।
- राज्यों द्वारा मौजूदा भूमि पर तय की गई सीमा बहुत अधिक थी। केवल कुछ राज्यों, जैसे, जम्मू और कश्मीर, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश और पंजाब में, जहां कुछ हद तक यह तय सीमा से अधिक था, वहां परिवार के आकार से संबंधित कोई भत्ता नहीं दिया गया।
- द्वितीय योजना की अनुशंसा के बाद अधिकांश राज्यों द्वारा सीलिंग सीमा में बड़ी संख्या में छूट की अनुमति दी गई थी।
- सीलिंग कानून में विलंब के कारण इसका उद्देश्य प्रभावित हुआ।
- इसके अलावा, ज़मींदारों ने भी काश्तकारों को बड़े पैमाने पर बेदखल कर दिया, और अपने जमीन को कम से कम सीलिंग सीमा तक पुनः प्राप्त कर लिया, और वे अक्सर अपनी प्रत्यक्ष देखरेख में अपनी खेती को प्रगतिशील खेती में स्थानांतरित होने का झूठा दावा करते थे।
- इस प्रकार, जब तक सीलिंग कानून पारित नहीं कर दिया गया, तब तक तय सीमा के ऊपर बमुश्किल कोई भूमि बची थी और फलस्वरूप पुनर्वितरण के लिए बहुत कम अधिशेष भूमि बची थी।
- इसे कांग्रेस नेतृत्व ने मान्यता दी और तीसरी योजना में भी इसे स्वीकार किया गया।
भू-दान आंदोलन- |
- कृषि में संस्थागत परिवर्तन के लिए, भूदान भूमि सुधार की तरफ एक कदम था,जैसे भूमि का पुनर्वितरण|
- नेतृत्व–प्रसिद्ध गांधीवादी आचार्य विनोबा भावे
- उद्देश्य–
- संतुलित आर्थिक वितरण के द्वारा सामाजिक व्यवस्था स्थापित करना,जो समान अवसर पर आधारित हो।
- आर्थिक शक्तियों का विकेंद्रीकरण
- विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन के निम्नलिखित उद्देश्य को बताया है, “असल में इसके तीन उद्देश्य है”
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- प्रत्येक ग्राम में शक्तियों का विकेंद्रीकरण होना चाहिए|
- प्रत्येक के पास भूमि एवं संपत्ति का अधिकार होना चाहिए|
- वेतन के मामले में किसी प्रकार का वितरण नहीं होना चाहिए|
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- विनोबा भावे नई सामाजिक व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे।
- आचार्य विनोबा भावे ने 1950 के दशक की शुरुआत में इस आंदोलन को शुरू करने के लिए रचनात्मक कार्यों और ट्रस्टीशिप जैसी गांधीवादी तकनीकों और विचारों का इस्तेमाल किया।
- उन्होंने सर्वोदय समाज नाम के रचनात्मक कार्यकर्ताओं का एक अखिल भारतीय संघ का आयोजन किया, जिसने देश में एक अहिंसक सामाजिक परिवर्तन का कार्य किया।
- उन्होंने और उनके अनुयायियों ने भूमिहीन लोगों के बीच वितरण के लिए भू-दान या भूमि-उपहार’ के रूप में अपने जमीन का कम से कम 1/6 भाग दान करने के लिए बड़े भूस्वामियों को राजी करने के लिए पदयात्रा (गांव-गांव पैदल यात्रा) की।
- भूदान 1951 में शुरू किया गया था। भूमिहीन हरिजनों की समस्याओं को तेलंगाना के पोचमपल्ली में विनोबा भावे के सामने रखा गया।
- विनोबा भावे द्वारा की गई अपील के प्रतिउत्तर में कुछ लोगों ने स्वेच्छा से भूदान करने का निर्णय लिया|
- इससे भूदान आंदोलन का जन्म हुआ। केंद्र और राज्य सरकारों ने विनोबा भावे को इसके लिए आवश्यक सहायता प्रदान की थी।
- आंदोलन, हालांकि सरकार से स्वतंत्र था, लेकिन इसे कांग्रेस का भी समर्थन प्राप्त था, AICC ने कांग्रेसियों से इसमें सक्रिय रूप से भाग लेने का आग्रह किया।
- एक प्रसिद्ध पूर्व कांग्रेसी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता जयप्रकाश नारायण, 1953 में भूदान आंदोलन में शामिल होने के लिए सक्रिय राजनीति से संयास ले लिया।
- इस बीच, 1955 के अंत में, आंदोलन ने एक नया रूप ले लिया, ग्रामदान या ‘गाँव का दान’
- ग्रामदान आंदोलन का उद्देश्य प्रत्येक गांव में भूमि मालिकों और पट्टाधारकों (leaseholders) को उनके भूमि अधिकारों को त्यागने के लिए राजी करना था और सभी भूमि समतावादी पुनर्वितरण और संयुक्त खेती के लिए एक ग्राम संघ की संपत्ति बन जाती।
- एक गाँव को ग्रामदान के रूप में घोषित किया जाता है, जब 51 प्रतिशत भूमि के साथ उसके कम से कम 75 प्रतिशत निवासियों ने ग्रामदान के लिए लिखित रूप में अपनी स्वीकृति दी हो।
- ग्रामदान के तहत आने वाला पहला गाँव, मैग्रोथ, हरिपुर, उत्तर प्रदेश था। दूसरा और तीसरा 1955 में उड़ीसा में था।
- इस आंदोलन को व्यापक राजनीतिक समर्थन प्राप्त हुआ|
- कई राज्य सरकारों ने ग्रामदान और भूदान से संबंधित कई कानून पारित किए|
निष्कर्ष– |
- 1969 के आसपास यह आंदोलन अपने चरम पर पहुंच गया। 1969 के बाद, एक स्वैच्छिक आंदोलन से सरकार द्वारा समर्थित कार्यक्रम में स्थानांतरित होने के कारण, ग्रामदान और भूदान ने अपना महत्व खो दिया।
- 1967 में, विनोबा भावे के आंदोलन से हटने के बाद, इसने अपना जनाधार खो दिया। बाद की अवधि में, जमींदारों ने ज्यादातर उन जमीनों को दान कर दिया, जो या तो विवाद के अधीन थीं या खेती के लिए अयोग्य थीं।
- मौजूदा संस्थागत साधनों के साथ संयोजन के बजाय पूरे आंदोलन को विकास की सामान्य योजना से अलग रखा गया।
- मुख्यधारा की योजना से इस अलगाव ने एक नीति के रूप में इसकी निरंतरता को गंभीर रूप से प्रभावित किया।
सहकारी समिति और समुदाय विकास कार्यक्रम |
परिचय– |
- महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, समाजवादियों और कम्युनिस्टों सहित राष्ट्रीय आंदोलन के कई नेता इस बात पर सहमत थे कि सहकारीकरण से भारतीय कृषि में बड़ा सुधार होगा और विशेष रूप से गरीबों को लाभ होगा।
- इस प्रकार, भूमि सुधार के माध्यम से प्राप्त किए जाने वाले संस्थागत परिवर्तनों के लिए, सहकारीकरण को एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में देखा गया।
- आजादी के समय कांग्रेस ने अस्थायी प्रस्ताव बनाये – जैसे राज्य सरकारों द्वारा पायलट कार्यक्रम के तहत लघु किसानों के बीच गैर-सरकारी मगर खेती योग्य भूमि पर सहकारी खेती का प्रयास।
- इसके अलावा, यह स्पष्ट किया गया कि सहकारिता की दिशा में किसी भी कदम को किसानों के बीच सद्भाव और समझौते से लिया जाना चाहिए।
भारत में सहकारी संस्थाओं का विकास |
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कुमारप्पा समिति 1949 की सिफारिशें–
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प्रथम योजना– |
- इसने इस मुद्दे को अधिक विवेकपूर्ण तरीके से देखा और सिफारिश की,छोटे और मध्यम किसानों को विशेष रूप से सहकारी कृषि समितियों में समूह बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
- शुरुआती योजनाकारों ने उम्मीद की थी कि, ग्राम पंचायत (सक्रिय पार्टी कार्यकर्ता और अक्टूबर 1952 में शुरू किए गए नए सामुदायिक विकास कार्यक्रम के प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं द्वारा सहायता प्राप्त ) न केवल ग्रामीण विकास परियोजनाओं को लागू करने में मदद करेगी, बल्कि भारतीय कृषि में महत्वपूर्ण संस्थागत परिवर्तन लाने में मदद भी मिलेगी।
द्वितीय पंचवर्षीय योजना – |
- द्वितीय पंचवर्षीय योजना के दौरान इस तरह के कदम उठाना की आवश्यकता थी, जिसके माध्यम से सहकारी खेती के विकास के लिए मजबूत नींव रखी जा सके| जिसके परिणामस्वरूप दस साल या उससे अधिक की अवधि में, कृषि योग्य भूमि पर पर्याप्त रूप से सहकारी पद्धतियों द्वारा खेती की जा सके।
- 1956 में दो भारतीय प्रतिनिधिमंडलों (एक योजना आयोग से तथा दूसरा खाद्य और कृषि मंत्रालय से) को यह अध्ययन करने के लिए चीन भेजा गया कि उन्होंने अपनी सहकारी समितियों को कैसे संगठित किया तथा कृषि उत्पादन में इतनी तेजी से वृद्धि कैसे हासिल की।
- इस प्रतिनिधिमंडल ने भारत में सहकारी खेती को बढ़ाने के लिए एक कार्यक्रम की सिफारिश की।
- राष्ट्रीय विकास परिषद और AICC ने, दूसरी योजना के परिकल्पित लक्ष्यों की तुलना में, अब अधिक लक्ष्य निर्धारित किए, जिनमें यह प्रस्तावित किया गया कि अगले पांच वर्षों में कृषि उत्पादन में , मुख्य रूप से कृषि-क्षेत्र में प्रमुख संस्थागत परिवर्तन लाकर, कम से कम 25 से 35 % की वृद्धि किया जा सकता है। जैसे-सहकारीकरण ।
- हालाँकि, राज्यों ने सहकारीकरण के लिए बड़े पैमाने पर योजना का विरोध किया, वे सहकारी खेती में केवल प्रयोगों के लिए सहमत हुए और वह भी तब, जब वे वास्तव में स्वैच्छिक हों।
कांग्रेस का नागपुर संकल्प, 1959- |
- इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ‘गांव का संगठन ग्राम पंचायतों और ग्राम सहकारी समितियों पर आधारित होना चाहिए, तथा दोनों के पास पर्याप्त शक्तियां और संसाधन होने चाहिए’।
- भविष्य का कृषि स्वरूप सहकारी संयुक्त खेती पर आधारित होगा, जिसमें भूमि को संयुक्त खेती के लिए रखा जाएगा, किसान अपनी संपत्ति के अधिकारों को बनाए रखेंगें तथा अपनी भूमि के अनुपात में, शुद्ध उपज का हिस्सा प्राप्त करेंगें।
- इसके अलावा, जो लोग वास्तव में जमीन पर काम करते हैं, चाहे वे जमीन के मालिक हों या नहीं, उन्हें संयुक्त खेत पर उनके द्वारा किये गए काम के अनुपात में हिस्सा मिलेगा।
- प्रथम कदम के रूप में, संयुक्त खेती के प्रतिष्ठापन से पहले, तीन साल की अवधि में पूरे देश में सहकारी समितियों का आयोजन किया जायेगा। इस अवधि के भीतर भी केवल वहीँ जहाँ संभव हो तथा आम तौर पर किसानों द्वारा सहमति दी गयी हो।
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तीसरी योजना– |
- तीसरी योजना ने बहुत ही व्यावहारिक रुख अपनाया गया।
- जैसा कि सहकारी खेती के संबंध में इसने, प्रति जिले दस प्रारंभिक परियोजनाओं की स्थापना के एक लक्ष्य को स्वीकार किया।
- इसी समय, यह घोषणा की गई कि ‘सहकारी खेती को, सामुदायिक विकास आंदोलन, ऋण, विपणन, वितरण तथा प्रसंस्करण में सहयोग की वृद्धि, ग्रामीण उद्योगों की वृद्धि तथा भूमि सुधार के उद्देश्यों की पूर्ति, के माध्यम से सामान्य कृषि प्रयासों को सफलता से आगे बढाना है।
- यह कार्ययोजना के बजाय एक क्रमिक प्रक्रिया की तरह लग रहा था।
सहकारी समितियों के प्रकार– |
- संयुक्त खेती के लिए, दो प्रकार की सहकारी समितियां देखी गईं।
- पहली वे जो निश्चित ही, भूमि सुधारों से बचने के लिए तथा राज्यों द्वारा प्रस्तावित प्रलोभनों तक पहुंचने के लिए बनायीं गयीं थीं। आमतौर पर, इन सहकारी समितियों का गठन संपन्न व प्रभावशाली परिवारों द्वारा किया गया था, जिन्होंने फर्जी सदस्यों के रूप में कई कृषि श्रमिकों या पूर्व-किरायेदारों को रखा हुआ था।
- दूसरी, प्रारंभिक परियोजनाओं के रूप में राज्य-प्रायोजित सहकारी खेत, जो आमतौर पर बेकार थे तथा पहले से ना जोती हुयी जमीन, भूमिहीन, हरिजनों, विस्थापितों तथा वंचित समूहों को उपलब्ध करायी गयी।
दुग्ध सहकारी समिति – |
- आजादी के बाद, कृषि को बेहतर बनाने तथा गरीबों को लाभ पहुंचाने के साधन के रूप में, सहकारी समितियों पर जोर दिया गया।
- कृषि में, विशेष रूप से भूमि-सुधारों में, यह विभिन्न कारणों की वजह से वांछित परिणाम प्राप्त नहीं कर सका। दुग्ध सहकारी समितियां, सहकारी समितियों में सबसे सफल प्रयोग थीं।
श्वेत क्रांति– |
- गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों की स्थिति (1997 में खेड़ा को विभाजित करके नया आनंद जिला बनाया गया था), आजादी के बाद देश के बाकी हिस्सों के किसानों की स्थिति, के समान थी।
- 1945 में बॉम्बे सरकार द्वारा शुरू की गयी, बॉम्बे दुग्ध योजना (बॉम्बे मिल्क स्कीम) से दूध ठेकेदारों को बहुत फायदा हुआ, वे मुनाफे का बड़ा हिस्सा प्राप्त करते थे ।
बॉम्बे मिल्क स्कीम
- किसानों में असंतोष बढ़ा। वे सरदार वल्लभभाई पटेल की सलाह लेने के लिए उनके पास पहुँचे। उन्होंने किसान सहकारी समिति के गठन के लिए, मोरारजी देसाई को खेड़ा भेजा।
- बॉम्बे सरकार के साथ कुछ संघर्ष के बाद, 1946 में खेड़ा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ की स्थापना की गई।
डॉ.वर्गीस कुरियन– श्वेत क्रांति के जनक
- खेड़ा संघ का उद्देश्य, जिले के दुग्ध उत्पादकों के लिए उचित विपणन सुविधाएं प्रदान करना था।
- इसने बॉम्बे मिल्क स्कीम के तहत दुग्ध प्रदान करना शुरू किया।
- डॉ.वर्गीस कुरियन 1950-73 तक संघ के मुख्य कार्यकारी थे।
- 1955 में, खेड़ा संघ ने अपने उत्पादों की बिक्री के लिए ‘अमूल’ (आनंद मिल्क यूनियन लिमिटेड) नाम प्रस्तावित किया।
- इस नए उद्यम ने, भैंस के दूध से दुग्ध उत्पादों का उत्पादन (जो दुनिया में पहली बार हुआ था) करके एक बड़ी सफलता हासिल की।
- सर्दियों में दूध की अधिक पैदावार होना तथा उसके लिए पर्याप्त बाजार न मिलने की समस्या से निपटने के लिए, 1955 में, इसने दूध पाउडर और मक्खन के निर्माण के लिए एक कारखाने की स्थापना की ।
- हर साल 600 टन पनीर और 2,500 टन बच्चों का भोजन (बेबी फूड) बनाने के लिए, तैयार किया गया, एक नया कारखाना 1960 में जोड़ा गया – भैंस के दूध का उपयोग करके बड़े पैमाने पर इन उत्पादों का निर्माण करने वाला यह विश्व का पहला कारखाना था।
- 1960 में, पनीर और बच्चो के भोजन के निर्माण के लिए एक नया कारखाना स्थापित किया गया था।
- 1964 में, पशु चारा बनाने के लिए, एक आधुनिक संयंत्र शुरू किया गया।
- ग्राम समाज कार्यकर्ताओं के माध्यम से एक कुशल कृत्रिम गर्भाधान सेवा शुरू की गई जिससे उत्पादक अपने पशुधन की गुणवत्ता में सुधार कर सकें।
- उन महिला किसानों को शिक्षित करने के लिए एक विशेष प्रयास किया गया, जो किसान परिवारों में जानवरों की देखभाल किया करती थीं।
- ग्रामीण विकास परियोजनाओं के लिए, पेशेवर प्रबंधकों को प्रशिक्षण देने के लिए ,आनंद में एक ग्रामीण प्रबंधन संस्थान (IRMA) की स्थापना की गई, जिसमें AMUL कॉम्प्लेक्स और खेड़ा सहकारी का उपयोग एक जीवित प्रयोगशाला के रूप में किया जाता था।
- तत्पश्चात्, पशु आहार बनाने के लिए एक आधुनिक संयंत्र शुरू किया गया। यह पशु का चारा और उनके पोषण में निवेशित कीमतों का लागत-लाभ (coastbenefit) विश्लेषण करने के लिए कंप्यूटर प्रौद्योगिकी का उपयोग करता था।
- 1974 में ‘आनंद’ के प्रसार के साथ, गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ लिमिटेड (Gujarat cooperative milk marketing federation ltd.) का गठन जिले में संघों के एक शीर्ष संगठन के रूप में किया गया, जिससे विपणन की ओर ध्यान दिया जा सके।
राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) |
- 1964 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने खेड़ा का दौरा किया।
- डॉ.कुरियन के साथ उनकी चर्चा के बाद, वह समाज के समाजवादी स्वरूप को प्राप्त करने के लिए, सहकारिता के इस सफल प्रतिरूप को, भारत के अन्य हिस्सों में भी प्रतिरूपित करना चाहते थे।
- पीएम की उत्सुकता के फलस्वरूप 1965 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) का गठन हुआ। इसका मुख्यालय आनंद में था। डॉ.कुरियन इसके पहले अध्यक्ष थे, जिन्होंने 1998 तक इसका नेतृत्व किया।
- इसका उद्देश्य किसान सहकारी समितियों को मजबूत करना था। उनका लक्ष्य था कि, डेयरी के रूपांतरण का उपयोग, ग्रामीण भारत के विकास के लिए, एक साधन के रूप में किया जाए ।
- NDDB ने खुद को केवल दूध सहकारी समितियों तक ही सीमित नहीं रखा। NDDB की पहल पर, फल और सब्जी उत्पादकों, तिलहन की खेती करने वाले, छोटे पैमाने पर नमक बनाने वाले और पेड़ उगाने वालों के लिए सहकारी समितियाँ बनाने की शुरुआत की गयी। उदाहरण के लिए, ‘धारा’(‘Dhara’) एक वनस्पति तेल ब्रांड, NDDB के प्रयासों का परिणाम है।
सफलता के कारण – |
- दूरदर्शी नेतृत्व – डॉ. कुरियन द्वारा प्रदान किया गया दूरदर्शी नेतृत्व। उन्होंने ग्राम स्तरीय सहकारी समितियों के माध्यम से दुग्ध विपणन की महत्वपूर्ण समस्या का हल निकाला।
- पशु चिकित्सा सेवाएं – उत्पादकों को पशु चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध कराई गईं जिसमें पशु की गुणवत्ता में सुधार के लिए कृत्रिम गर्भाधान सेवा भी शामिल थी ।
- उच्च गुणवत्ता – उच्च गुणवत्ता वाले चारे के बीज, टीके आदि भी दूध उत्पादन में सहायता करते हैं। यह पशु प्रजनन, पशु पोषण तथा पशु स्वास्थ्य और स्वच्छता, पशुधन विपणन और वैज्ञानिक तरीकों से विस्तार, के एक व्यापक कार्यक्रम की परिकल्पना भी करता है।
- वित्तीय सुरक्षा– उत्पादकों को बीमा कवर उपलब्ध करवाया गया तथा किसानों को पशुपालन के विकास के बारे में शिक्षित किया गया। आमतौर पर जानवरों की देखभाल करने वाली महिलाओं को भी दुग्ध उत्पादन में वैज्ञानिक प्रथाओं को अपनाने के लिए शिक्षित किया गया।
- कामकाज का लोकतांत्रिक मॉडल -यह सहकारी समितियों के कामकाज का लोकतांत्रिक मॉडल था जिसने सभी में स्वामित्व की भावना पैदा की।
ऑपरेशन फ्लड – |
परिचय
- 1969 में NDDB ने, एक व्यवहार्य, स्व-सहायक राष्ट्रीय डेयरी उद्योग, की नींव रखने के लिए एक डेयरी विकास कार्यक्रम तैयार किया।
- इसने सहकारी समितियों के माध्यम से, ग्रामीण दूध उत्पादन को शहरी दूध विपणन से जोड़ने का प्रयास किया।
- 1970 में, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) तथा खाद्य और कृषि संगठन (FAO) की तकनीकी सहायता के द्वारा ‘ऑपरेशन फ्लड’ कार्यक्रम को आयोजित किया गया।
- विशेषज्ञता आदि के लिए यह खेड़ा संघ से बहुत अधिक आकर्षित हुआ। इसका लक्ष्य देश के अन्य दुग्ध-क्षेत्रों में ‘आनंद पैटर्न’ को दोहराने का था।
ऑपरेशन फ्लड के उद्देश्य– |
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प्रभाव |
- ऑपरेशन फ्लड’ के लॉन्च से पहले, राष्ट्रीय दूध उत्पादन7% बढ़ा, कार्यक्रम की शुरुवात से यह 4% से अधिक बढ़ गया।
- डेयरी विशेष रूप से छोटे किसानों और भूमिहीन लोगों के लिए आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत बन गया। लगभग 60% लाभार्थी छोटे किसान और भूमिहीन लोग थे। इसने एक महत्वपूर्ण गरीबी उन्मूलन उपाय के रूप में कार्य किया।
- पोषण, स्वास्थ्य सहित समग्र पशु सेवाओं में सुधार किया गया तथा यह वंचित वर्गों तक पहुंचने में भी सफल रहा।
- ‘ऑपरेशन फ्लड’ ने ‘गैर-सरकारी संगठनों’(NGOs),जैसे-स्वयं-नियोजित महिला संघ(SEWA) के साथ मिलकर लगभग 6000 महिला डेयरी सहकारी समितियों की स्थापना की, जो केवल महिलाओं द्वारा संचालित की जाती थीं। इन्हें उनके पुरुष समकक्षों की तुलना में अधिक कुशलता से चलाया गया। इसने उन्हें विभिन्न मंचों में निर्णय लेने में सक्षम बनाया।
- आय में वृद्धि के साथ, बच्चों के लिए शिक्षा की पहुंच बढ़ी और ड्रॉपआउट(शिक्षा बीच में छोड़ देने वाले बच्चे) की दरों में गिरावट आई।
- बालिकाओं पर काम का बोझ कम हुआ जिससे उनकी स्कूल में उपस्थिति बढ़ गई। इसके अलावा, आय में वृद्धि ने बाल-श्रम को रोकने में मदद की।
- इस कार्यक्रम से, स्वदेशी डेयरी उपकरण निर्माण उद्योग के लिए एक प्रेरणा मिली। इससे इस क्षेत्र के समग्र आधुनिकीकरण में मदद मिली।
आज़ादी के बाद के कृषि संघर्ष – |
श्रीकाकुलम किसान विद्रोह – |
- श्रीकाकुलम किसान विद्रोह 1967-1970 के मध्य, भारतीय राज्य आन्ध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले के क्षेत्रों में घटित हुआ था। यह विद्रोह नक्सली विद्रोह से प्रेरित था।
- 31 अक्टूबर, 1967 को, लेवीडी गाँव के जमींदारों ने, कम्युनिस्टों से जुड़े दो व्यक्तियों, कोराना और मंगन्ना की हत्या कर दी, जब वे दोनों गिरिजन समागम सम्मेलन में भाग लेने जा रहे थे।
- प्रतिशोध में, गिरिजनों ने भूमि, संपत्ति और खाद्यान्न की जब्ती के द्वारा बदला लेना शुरू कर दिया।
- आदिवासियों को अप्रिय समस्या का सामना करना पड़ा। नेतृत्व ने किसान छापामार दल को और अधिक व्यवस्थित प्रतिरोध संगठन में परिवर्तित करके, जन आंदोलन को संगठित आंदोलन में व्यवस्थित करना शुरू कर दिया।
- 1969 तक किसान दस्तों की गतिविधियाँ उनके बढ़ते कार्यों के साथ-साथ बढ़ती गईं।
- सरकार ने विद्रोह से निपटने के लिए 12,000 CRPF के जवान भेजे । 6 महीने तक गंभीर युद्ध जारी रहा।
- जनवरी 1970 तक, 120 CRPF के जवान मारे गए। लेकिन जल्द ही विद्रोह में तेजी से गिरावट देखी गई ।
नए किसान आंदोलन– |
- 1980 में,शरद जोशी के शेतकरी संगठन( Shetkari Sangathan ) के नेतृत्व में, नासिक महाराष्ट्र में सड़क और रेल रोको आंदोलन के साथ किसानों का आंदोलन, राष्ट्रीय राजनीतिक मंच पर आ गया। लगभग 200,000 किसानों ने 10 नवंबर को बॉम्बे-कलकत्ता और बॉम्बे-दिल्ली मार्ग पर सड़क और रेल यातायात को रोक दिया तथा प्याज और गन्ने के उच्च मूल्यों की मांग की।
- हजारों और लाखों किसानों ने राजमार्गों और रेल मार्गों पर यातायात रोक दिया, शहरों में आपूर्ति रोक दी, तथा स्थानीय और क्षेत्रीय केंद्रों के सरकारी कार्यालयों में अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गए तथा राजनीतिक नेताओं और अधिकारियों को गांवों में प्रवेश करने से रोका, खासकर चुनाव के समय में, जब तक की वे उनकी मांगों का समर्थन व सहयोग ना करें।
- आंदोलन क्यों आरंभ हुआ – मूल समझ, जिस पर आंदोलन आधारित था, वह यह है कि शहरी क्षेत्रों में सस्ते भोजन और कच्चे माल उपलब्ध कराने के लिए सरकार कृत्रिम रूप से कृषि कीमतों को निम्न बनाए रखती थी और इसके परिणामस्वरूप कीमतों में असमानता के कारण किसानों को उनकी उपज के लिए उच्च कीमतों का भुगतान करने पर कम प्रतिफल प्राप्त होता था।
- इन ‘नए किसानों’ के आन्दोलनों ने, जो विशेष रूप से 1980 के दशक में बहुत अधिक मीडिया और राजनीतिक ध्यान आकर्षित करते थे, मुख्य रूप से, कृषि उपज के लिए पारिश्रमिक मूल्य की मांग तथा और सरकारी बकायों जैसे-नहर के पानी के शुल्क, बिजली शुल्क, ब्याज दरों और मूलधन ऋण आदि को कम या समाप्त करने के लिए थे।
- इन संगठनों ने भूमिहीन ग्रामीण, गरीब या ग्रामीण महिलाओं के विषय में अल्प चिंता जाहिर की। हालांकि, यह सच है कि, ये केवल ऊपरी वर्गों तक ही सीमित ना होकर, किसान वर्ग के बीच भी व्यापक था।
- यद्यपि नेताओं द्वारा गांधीजी की राह पर चलने के कई दावों के बावजूद भी, उनके द्वारा सिखाए गए पाठ के साक्ष्य बहुत कम ही देखनों को मिला खासकर नेतृत्व की जिम्मेदारी के विषय में।
- इन आंदोलनों को अक्सर ‘नए’ रूप में संदर्भित किया जाता है, तथा यह सुझाव दिया जाता है कि वे ‘नए’ गैर-वर्ग या उच्च दर्जे के सामाजिक आंदोलनों के विश्वव्यापी रुझान का हिस्सा हैं, जो औपचारिक राजनीतिक संरचनाओं के बाहर हैं, उदाहरण के लिए, महिलाओं और पर्यावरणीय आंदोलनों का होना ।
- दूसरा आधार जिस पर ‘नयापन’ का दावा किया जाता है यह है कि ये आंदोलन राजनीतिक दलों से नहीं जुड़े। हालांकि, यह सच है कि कोई भी संगठन राजनीतिक दलों द्वारा शुरू नहीं किये गए बल्कि वे समय के साथ राजनीति से जुड़ गए।
कृषि विकास तथा हरित क्रांति |
पृष्ठभूमि–
- स्वतंत्रता के दौरान, भारतीय कृषि की स्थिति अविकसित अवस्था में थी।
- 1949 से 1965 तक, 3% वार्षिक कृषि विकास दर के बावजूद, भारत को भोजन की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा था।
- भारत खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था, इसलिए भारत को बड़ी मात्रा में भोजन आयात करने की आवश्यकता थी।
- 1962 और 1965 के दो युद्धों तथा 1965-66 में लगातार सूखे की वजह से कृषि उत्पादन में भारी कमी आई।
- बड़े पैमाने पर जनसंख्या वृद्धि के कारण भोजन की मांग में वृद्धि हुई।
- 1960 के दशक में, भारत अपनी जनसंख्या को खिलाने के लिए, भारी मात्रा में अनाज का आयात कर रहा था।
- इसने अधिकांश हिस्सों में अकाल की स्थिति का सामना किया।
- इसके अलावा, हमने पहले अध्ययन किया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत को PL-480 योजनाओं के तहत खाद्यान्न की आपूर्ति की। यह समझौता भारत के लिए अपमानजनक था और इस स्थिति में, अमेरिका ने भारत को खाद्य निर्यात बंद करने की धमकी दी थी।
- इसलिए, भारतीय नेताओं ने भारत को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनाने का फैसला किया।
हरित क्रांति– |
- हरित क्रांति एक ऐसी घटना है जिसकी पहचान, भारत को भोजन के लिए आयात पर निर्भर देश से आत्मनिर्भर देश बनने के लिए की जाती है। यह 1960 के दशक के मध्य से भारतीय कृषि क्षेत्र में किए गए प्रमुख तकनीकी सुधारों से संबंधित है।
- इस परियोजना का नेतृत्व एक भारतीय आनुवांशिकीविद् तथा जीवविज्ञानी, डॉ. एमएस स्वामीनाथन द्वारा किया गया था।
- तत्कालीन प्रधानमंत्री, लाल बहादुर शास्त्री ने इंदिरा गांधी के साथ मिलकर नई कृषि रणनीति को पूरा समर्थन दिया। इसके तहत निम्न पर बल दिया गया था:
- उच्च उपज किस्म के बीज (हाई यील्ड वैरायटी ,HYV), रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक के उपयोग पर बल
- कृषि यंत्र पर बल जिसमें ट्रैक्टर, पंप–सेट और मृदा–परीक्षण सुविधाएं आदि शामिल थीं।
- संस्थागत साख उन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करते हुए, जिन्होंने कृषि के बुनियादी ढाँचे को समर्थन देने के साथ–साथ सिंचाई सुविधाओं का आश्वासन दिया था।
- कृषि में सरकारी निवेश की काफी वृद्धि हुई ।
- यह सुनिश्चित करने के प्रयास किए गए कि, किसानों को पारिश्रमिक कीमतों पर बाजार का आश्वासन प्राप्त हो।
- 1965 में , गेहूं और चावल जैसे कृषि उपज की कीमतों की सलाह के लिए, कृषि मूल्य आयोग की स्थापना की गयी।
- सरकार द्वारा की गई इन सभी पहलों से, कृषि से सकल पूंजी निर्माण में भी वृद्धि हुई।
हरित क्रांति का परिणाम– |
- 1967-68 और 1970-71 के दौरान खाद्य उत्पादन में 35% की वृद्धि हुयी। जिससे खाद्यान्न उपलब्धता में वृद्धि हुई और साथ ही खाद्यान्नों के विपणन योग्य अधिशेष में भी वृद्धि हुई।
- 1970 में खाद्य आयात, 1966 में3 मिलियन टन से घटकर 3.6 मिलियन टन हो गया और इससे भारत में न केवल खाद्यान्न का बफर हो गया, बल्कि खाद्यान्न का निर्यात भी शुरू कर दिया गया। इन सब से किसानों का विकास हुआ।
- इसके अतिरिक्त, कृषि-उद्योगों, कृषि उपज के लिए भंडारगृह, परिवहन, उर्वरकों, कृषि उपकरणों के विनिर्माण आदि के परिणामस्वरूप देश के समग्र रोजगार में भी वृद्धि हुई ।
- इसके अतिरिक्त, हरित क्रांति के तहत उत्पन्न अधिशेष ने सरकार को रोजगार सृजन के लिए योजनाएं शुरू करने में सहायता प्रदान की। इसका गरीबी उन्मूलन पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
- कृषि उपकरणों की आवश्यकता ने औद्योगिक विकास में योगदान दिया और कृषि के प्रति किसानों का दृष्टिकोण परिवर्तित कर दिया। किसानों ने कृषि में निवेश करना प्रारंभ किया, जिससे पूंजीवादी कृषि में परिवर्तन आया।
हरित क्रांति की आलोचना– |
- पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्रों में संसाधनों के केंद्रीकरण के लिए हरित क्रांति की आलोचना की गई |
- इससे क्षेत्रीय असमानताओं में वृद्धि हुई।
- हरित क्रांति का लाभ लघु किसानों और पट्टेदारों की कीमत पर, बड़े किसानों द्वारा लिया गया।
- इसने असमानता की वृद्धि में योगदान दिया और कृषि के मशीनीकरण ने ग्रामीण बेरोजगारी को जन्म दिया।
- रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से पर्यावरण और भूजल स्तर में कमी आयी , विशेष रूप से पंजाब में, इसकी असंधारणीयता के लिए आलोचना की गई।
भारतीय खाद्य निगम (FCI) – |
- भारतीय खाद्य निगम अधिनियम 1964 के तहत, भारतीय खाद्य निगम (FCI) की स्थापना 1965 में की गई थी।
- इसे खाद्यान्नों तथा अन्य खाद्य पदार्थों की खरीद, बिक्री,भंडारण, परिवहन, वितरण के लिए स्थापित किया गया था। इसे खाद्य नीति के निम्नलिखित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए स्थापित किया गया था:
- प्रभावी मूल्य समर्थन – किसानों के हितों की रक्षा के लिए संचालित।
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत संपूर्ण देश में खाद्यान्न का वितरण किया जाता है|
- राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए खाद्यान्न के परिचालन और बफर स्टॉक का संतोषजनक स्तर बनाए रखना।
पर्यावरणीय आंदोलन |
चिपको आंदोलन: – |
परिचय–
- चिपको आंदोलन, भारत में एक वन संरक्षण आंदोलन था ।
- यह 1970 के दशक में उत्तराखंड में प्रारंभ हुआ था, तब यह उत्तर प्रदेश (हिमालय की तलहटी में) का एक हिस्सा था और विश्व भर में भावी पर्यावरणीय आंदोलनों के लिए एक तीर्थ स्थल बन गया। इसने भारत में एक अहिंसक विरोध आंदोलन का उदाहरण प्रस्तुत किया।
- यह एक ऐसा आंदोलन था जिसने सत्याग्रह का प्रयोग किया |
- इसे जयप्रकाश नारायण और सर्वोदय आंदोलन से प्रेरणा प्राप्त हुई थी।
आंदोलन का स्वरूप – |
- यह आंदोलन उत्तराखंड में प्रारंभ हुआ, जब वन विभाग ने ग्रामीणों को कृषि उपकरण बनाने के लिए ऐश वृक्ष (ash tree ) को काटने से मना कर दिया और व्यावसायिक उपयोग के लिए खेल सामग्री निर्माताओ को उसी भूमि का एक भाग आवंटित कर दिया।
- ग्रामीणों ने मांग की कि बाह्य लोगों को कोई भी वन दोहन अनुबंध नहीं दिया जाना चाहिए और स्थानीय समुदायों का भूमि, जल और जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर प्रभावी नियंत्रण होना चाहिए।
- महिलाओं की सक्रिय भागीदारी चिपको आंदोलन में आंदोलन का एक बहुत ही नवीन पहलू था।
- प्रायः ग्रामीणों, और विशेष रूप से महिलाओं ने वृक्षों से लिपटकर व्यवसायिक कार्यों के लिए वृक्षों को काटने से रोक दिया, इसी प्रथा से इसका नाम चिपको आंदोलन पड़ा |
- आंदोलन को तब सफलता प्राप्त हुई, जब हिमालय क्षेत्रों में पंद्रह वर्षों तक वृक्षों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया गया , जब तक कि हरित आवरण पूरी तरह से बहाल नहीं हो जाता ।
मुख्य उपलब्धि – |
- गौरा देवी, गाँव की एक मध्यम आयु वर्ग की विधवा महिला इस आंदोलन की प्रमुख नेता थी।
- इस आंदोलन के बाद, चिपको आंदोलन ने कई पर्यावरणीय आंदोलनों को प्रेरित किया और गांधीवादियों और वामपंथियों के नेतृत्व में हिमालय की तलहटी में वृक्षों की वाणिज्यिक कटाई के विरुद्ध आंदोलनों की श्रृंखला को जन्म दिया।
- 1987 में, चिपको आंदोलन को भारत के प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, पुनर्स्थापना और पारिस्थितिकी के संरक्षण में योगदान के लिए “ right livelihood award” से सम्मानित किया गया।
नर्मदा बचाओ आंदोलन– |
परिचय– |
- 60 के दशक की शुरुआत में मध्य भारत की नर्मदा घाटी में एक महत्वाकांक्षी विकासात्मक परियोजना शुरू की गई थी।
- बांध की आधारशिला 5 अप्रैल, 1961 को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी।
- इस परियोजना में नर्मदा और इसकी सहायक नदियों पर बनने वाले 30 बड़े बांध, 135 मध्यम आकार के तथा लगभग 3000 छोटे बांध शामिल थे, जो तीन राज्यों, मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में प्रवाहित होती हैं।
- इस परियोजना के तहत सरदार सरोवर परियोजना (गुजरात) तथा मध्यप्रदेश नर्मदा सागर परियोजना (मध्यप्रदेश) बहुउद्देशीय बांध परियोजना शामिल थीं।
- उपर्युक्त परियोजनाओं का उद्देश्य पीने योग्य जल की उपलब्धता सुनिश्चित करना ,सिंचाई, विद्युत उत्पादन और कृषि उत्पादन में वृद्धि करना था।
- नेतृत्वकर्ता – मेधा पाटकर तथा बाबा आमटे।
आंदोलन का स्वरूप– |
- इस परियोजना के लिए लगभग ढाई लाख लोगों के पुनर्वास की आवश्यकता थी और 245 गाँवों के जलमग्न होने की आशंका थी। प्रारंभ में स्थानीय लोगों ने उचित पुनर्वास की मांग की।
- 80 के दशक के उत्तरार्ध में नर्मदा बचाओ आंदोलन के बैनर तले इस मुद्दे का विरोध हुआ, जो स्थानीय स्वैच्छिक लोगों का एक सामूहिक समूह था।
- नर्मदा बचाओ आंदोलन ने देश में अब तक पूरी की गई प्रमुख विकासात्मक परियोजनाओं की उचित लागत- लाभ विश्लेषण की मांग की। इसने यह भी मांग की, कि ऐसी परियोजनाओ के संबंध में सामाजिक लागत (social cost ) की गणना भी की जानी चाहिए।
- सामाजिक लागत का तात्पर्य था परियोजना से प्रभावित लोगों का जबरन पुनर्वास, आजीविका और संस्कृति के साधनों की गंभीर क्षति, पारिस्थितिक संसाधनों की क्षति आदि हैं।
- निरंतर संघर्ष के कारण, सरकार और न्यायपालिका द्वारा पुनर्वास के अधिकार को मान्यता दी गई ।
- 2003 में सरकार द्वारा गठित एक व्यापक राष्ट्रीय पुनर्वास नीति को नर्मदा बचाओ आंदोलन(NBA ) जैसे आंदोलनों की उपलब्धि माना जा सकता है।
- नर्मदा बचाओ आंदोलन के अभियान में विभिन्न कार्यवाही जैसे,-अदालती कार्यवाही, भूख हड़ताल, रैलियां और फिल्म तथा कला से संबद्ध हस्तियों से समर्थन जुटाना शामिल था |
- आंदोलन ने अपनी मांगों को आगे बढ़ाने के लिए हर उपलब्ध लोकतांत्रिक रणनीति का इस्तेमाल किया, जैसे कि प्रदर्शन, धरना, घेराव, रास्ता रोको, जेल भरो आन्दोलन, भूख हड़ताल आदि।
- मेधा पाटकर आंदोलन में सबसे आगे थीं । उन्होंने कई उपवास और सत्याग्रह आयोजित किये , और इस कारण से उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा।
- एक और लोकप्रिय शख्सियत थी, बाबा आमटे, जिन्हें कुष्ठ रोग के विरुद्ध उनके द्वारा किए गए कार्यों के लिए जाना जाता है । उन्होंने 1989 में ” cry o beloved Narmada” नामक एक पुस्तिका प्रकाशित की, ताकि बांध के निर्माण का विरोध किया जा सके।
- नर्मदा बचाओ आंदोलन के लिए जिन प्रमुख हस्तियों ने अपना समर्थन दिखाया, उनमें से एक बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधति रॉय और आमिर खान थे ।
- Band Indian Ocean में संगीतकार और गिटारवादक राहुल राम द्वारा भी इसका समर्थन किया गया था, जो 1990 से 1995 तक आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल थे।
- 1994 में फिल्म निर्माता अली कज़िमी द्वारा ” Narmada: A Valley Rises” लॉन्च किया गया था। यह 1991 की पांच सप्ताह की संघर्ष यात्रा का दस्तावेज है।
- फिल्म ने कई पुरस्कार जीते और इस फिल्म को इस मुद्दे पर एक क्लासिक माना। 1996 में, अनुभवी डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता,आनंद पटवर्धन ने एक पुरस्कार विजेता डॉक्यूमेंट्री: A Narmada diary बनायी ।आलोक अग्रवाल जो वर्तमान में आम आदमी पार्टी के सदस्य हैं, आंदोलन में एक सक्रिय भागीदार थे।
मुख्य उपलब्धि – |
- अदालत ने आंदोलन पर फैसला सुनाया, जिससे बांध पर काम को तत्काल रोक दिया और पुनर्वास और प्रतिस्थापन की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए संबंधित राज्यों को निर्देश दिया गया।
- इसने इस मुद्दे पर कई वर्षों तक विचार-विमर्श किया तथा अंत में अपना निर्णय दिया और 2000 में शर्तों के अधीन निर्माण कार्य को आगे बढ़ाने की अनुमति प्रदान की।
- अंत में, सितंबर, 2017 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध का उद्घाटन किया।
साइलेंट वैली आंदोलन / सेव साइलेंट वैली – |
परिचय– |
- सेव साइलेंट वैली, केरल के पलक्कड़ जिले में स्थित एक सदाबहार उष्णकटिबंधीय वन साइलेंट वैली, के संरक्षण के उद्देश्य से एक सामाजिक आंदोलन था।
- इसे 1973 में एक गैर – सरकारी संगठन ने शिक्षकों और केरल शास्त्र साहित्य परिषद ( S. S. P) के नेतृत्व में यह आंदोलन शुरू किया गया था, ताकि साइलेंट वैली को पनबिजली परियोजना की बाढ़ से बचाया जा सके।
आंदोलन का स्वरूप– |
- कुन्तीपुझा नदी पर जलविद्युत बांध निर्माण की घोषणा के बाद “सेव साइलेंट वैली” आंदोलन 1973 में आरंभ किया गया और केरल शास्त्र साहित्य परिषद (K. S. S. P) ने प्रभावी ढंग से साइलेंट वैली को बचाने के लिए जनता के समक्ष विचारों को प्रस्तुत किया|
- कवयित्री सुगाथाकुमारी ने साइलेंट वैली विरोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उनकी कविता “Marathinu Stuthi ” (“ode to a tree 🙂 समुदाय के विरोध का प्रतीक बन गई और” Save The Silent Valley ” अभियान के बैठकों का यह उद्घाटन गीत / प्रार्थना बन गई।
- डॉ सलीम अली, बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के प्रख्यात पक्षी वैज्ञानिक, ने घाटी का दौरा किया और पनबिजली परियोजना को रद्द करने की अपील की।
- जनवरी 1980 में केरल के उच्च न्यायालय ने कटाई पर प्रतिबंध हटा दिया, लेकिन तब भारत के प्रधान मंत्री ने केरल सरकार से परियोजना क्षेत्र में आगे के कार्यों को रोकने के लिए अनुरोध किया जब तक कि सभी पहलुओं पर पूरी तरह से चर्चा नहीं हो जाती।
- दिसंबर में, केरल सरकार ने पनबिजली परियोजना क्षेत्र को छोड़कर, साइलेंट वैली को राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया।
- 1982 में, एक बहु-विषयक समिति जिसके अध्यक्ष प्रो. एम.जी.के. मेनन , तथा माधव गाडगिल,दिलीप के. विश्वास और अन्य इसके सदस्य थे | इस समिति का कार्य यह तय करना था कि क्या जलविद्युत परियोजना बिना किसी महत्वपूर्ण पारिस्थितिक क्षति के संभव है।
- 1983 के प्रारंभ में, प्रो मेनन की समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। मेनन रिपोर्ट का सावधानीपूर्वक अध्ययन के बाद, भारत के प्रधान मंत्री ने परियोजना को वापस लेने का फैसला किया।
मुख्य उपलब्धि – |
- अंत में, प्रदर्शनकारी 1985 में सफल रहे, जब तत्कालीन पीएम राजीव गांधी ने साइलेंट वैली राष्ट्रीय उद्यान का उद्घाटन किया और पार्क को नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व के मुख्य क्षेत्र के रूप में नामित किया ।
- साइलेंट वैली लुप्तप्राय शेर-पूंछ वाले मैकाक के लिए भी प्रसिद्ध है।
मछुआरों का आंदोलन: – |
- हमारे देश के पूर्वी और पश्चिम तटीय क्षेत्र में स्वदेशी मछुआरे समुदाय से संबंधित सैकड़ों हजारों परिवार मत्स्य पालन व्यवसाय में लगे हुए हैं।
- इन मछुआरों की आजीविका को खतरा पैदा हो गया था, जब सरकार ने भारतीय समुद्रों में मछलियों को बड़े पैमाने पर पकड़ने के लिए मशीनीकृत ट्रॉलर( मछली पकड़ने के जहाज) और प्रौद्योगिकियों के प्रवेश की अनुमति दी।
- अपने हितों और आजीविका की रक्षा के लिए, मछुआरे राष्ट्रीय स्तर पर एक राष्ट्रीय मछली मजदूर मंच( National fish workers forum,NFF) के रूप में साथ आए।
- NFF ने गहरे समुद्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों सहित वाणिज्यिक जहाजों के प्रवेश को खोलने के भारत सरकार के फैसले के विरुद्ध अपनी पहली सफलता प्राप्त की।
- जुलाई 2002 में, NFF ने देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया और साथ ही विदेशी ट्रॉलरों को लाइसेंस जारी करने के सरकार के फैसले का विरोध किया।
महिलाओं के आंदोलन |
स्वतंत्रता पूर्व- |
इसे दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है:
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स्वतंत्रता पश्चात– |
- भारत की स्वतंत्रता के पश्चात , महिलाओं से संबंधित प्रश्न सार्वजनिक क्षेत्र से 20 वर्ष के लिए गायब हो गए जबकि संविधान का अनुच्छेद 14 और 16 जाति, पंथ या लिंग के आधार पर सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है।
- हालाँकि, 1960 के दशक के मध्य से, विकासात्मक नीतियों से मोहभंग और महिलाओं की स्थितियों में कोई सकारात्मक परिवर्तन नहीं आने के कारण आंदोलनों के स्वरूपों में परिवर्तन देखा गया:
- भूमि अधिकार और समानता
- रोजगार और मजदूरी की सुरक्षा
- जनसंख्या संबंधित नीतियां
- महिलाओं पर अत्याचार (बलात्कार और शराब से संबंधित घरेलू हिंसा सहित)।
- 1970 के दशक से, विभिन्न आंदोलनों की शुरुआत हुई, कभी-कभी इनका स्वरूप स्थानीय था और कभी-कभी इन मुद्दों की एक बड़ी स्थानिक पहुंच, इन सब कारणों से इन मुद्दों से संबंधित सार्वजनिक जागरूकता बढ़ गयी ।
भारतीय राष्ट्रीय महिला संघ |
- इसकी स्थापना 1954 में महिला आत्म रक्षा समिति से संबंधित कई नेताओं द्वारा की गई थी| बंगाल में जिसका संबंध भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से था ।
- यह प्रथम महिला जन संगठन था, जिसने महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में संगठित किया और उनके सशक्तीकरण, मुक्ति और लैंगिक समानता पर आधारित समाज और देश के निर्माण के लिए कार्य किया।
- इसने महिलाओं से संबंधित सभी मुद्दों और विकास पर जागरूकता के लिए अभियान आयोजित किए और महिलाओं के जीवन को प्रभावित करने वाली सकारात्मक गतिविधियों जैसे वयस्क साक्षरता केंद्र, जरूरतमंद महिलाओं के लिए उत्पादन इकाइयां, रोजगार के लिए प्रशिक्षण, हिंसा से पीड़ितों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता और सामाजिक उत्पीड़न के लिए कार्य किया ।
- इसने हिंदू कोड बिल 1956, दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, मातृत्व अधिकार अधिनियम, घरेलू हिंसा रोकथाम अधिनियम, जैसे लिंग संवेदनशील कानूनों को लाने के लिए अलग-अलग समय में केंद्र सरकार पर दबाव बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई|
- अरुणा आसफ अली, पुष्पमोई बोस, रेनू चक्रवर्ती, हजारा बेगम, गीता मुखर्जी, अनुसूया ज्ञानचंद, विमला डांग, विमला फारूकी जैसे कई प्रख्यात व्यक्तित्व और प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी भारतीय राष्ट्रीय महिला संघ(NFIW )के साथ जुड़े थे।
स्वरोजगार महिला संघ (SEWA) |
- स्वरोजगार महिला संघ (SEWA) का जन्म 1972 में इला भट्ट की पहल पर स्वरोजगार महिलाओं के व्यापार संघ के रूप में हुआ था।
- विभिन्न व्यवसायों में सम्मिलित महिलाओं को उनके समान अनुभवों द्वारा एक साथ संगठित किया गया जो कम आय, घर पर उत्पीड़न, ठेकेदारों और पुलिस द्वारा उत्पीड़न , निम्न कार्य – स्थिति, अपने श्रम की गैर-पहचान आदि समस्याओं से पीड़ित थी ।
- यह संस्था, भारत के सबसे पुराने और सबसे बड़े टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन के रूप में विकसित हुई, जिसकी स्थापना 1920 में एक महिला अनसूया साराभाई ने की थी, जो 1917 में अहमदाबाद टेक्सटाइल प्रदर्शन में महात्मा गांधी की भागीदारी से प्रेरित थी।
- SEWA का उद्देश्य महिलाओं की कार्य स्थितियों में सुधार करना है:
- प्रशिक्षण की प्रक्रिया
- तकनीकी सहायता, कानूनी साक्षरता
- SEWA के सदस्यों को ईमानदारी, गरिमा और सादगी, (गांधीवादी लक्ष्यों) के मूल्यों को सिखाना
- इसके मुख्य लक्ष्य महिला श्रमिकों को संगठित करना है:
- पूर्ण रोजगार: महिलाओं को कार्य सुरक्षा, आय सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा का प्रयोजन करना |
- आत्मनिर्भरता: महिलाओं को आर्थिक और निर्णय लेने की क्षमता के संदर्भ में स्वायत्त और आत्मनिर्भर बनाने का लक्ष्य रखता है।
मूल्य वृद्धि के विरोध में आंदोलन– |
- 1973 में, सूखा और अकाल की स्थिति के परिणामस्वरूप महिलाओं को महंगाई के खिलाफ लामबंद करने के लिए ‘संयुक्त महिला मूल्य वृद्धि विरोधी मोर्चा’ का गठन किया गया, जिसने 1970 के दशक की शुरुआत में ग्रामीण महाराष्ट्र को प्रभावित किया।
- इसने उपभोक्ता संरक्षण के लिए बड़े पैमाने पर महिलाओं के आंदोलन को आकार दिया और सरकार से न्यूनतम मूल्य तय करने और आवश्यक वस्तुओं को वितरित करने की मांग की।
- 10,000 से 20,000 के बीच महिलाओं के बड़े समूहों ने, सरकारी कार्यालयों, संसद सदस्यों और व्यापारियों के घरों पर प्रदर्शन किये ।
- जो लोग अपने घरों से बाहर नहीं निकल सकते थे , उन्होंने थालियों (धातु की प्लेटों) को डंडो या बेलनों (रोलिंग पिन) से पीटकर अपना समर्थन व्यक्त किया ।
- मूल्य वृद्धि के विरुद्ध आंदोलन पड़ोसी राज्य गुजरात में फैल गया, जहां इसे नव निर्माण आंदोलन कहा गया। इस आंदोलन को स्वतंत्रता के पश्चात भारत में एकमात्र ऐसा आंदोलन होने का गौरव प्राप्त है जिसके कारण राज्य की निर्वाचित सरकार भंग हो गई।
- यह एक छात्र आंदोलन के रूप में शुरू हुआ और बाद में एक मध्यम-वर्ग आंदोलन में विकसित हुआ जिसमें हजारों महिलाओं ने भागीदारी की।
- राज्य में व्यापक स्तर पर स्थित मूल्य-वृद्धि, भ्रष्टाचार और कालाबाजारी ने इस आंदोलन को बल प्रदान किया।
- प्रदर्शनकारी महिलाओं और छात्रों द्वारा प्रयोग की जाने वाली विधियाँ :
- कृत्रिम अदालतें स्थापित करना,जहां भ्रष्ट राज्य अधिकारियों और राजनेताओं पर निर्णय पारित किए गए ।
- कृत्रिम अंतिम संस्कार का जुलूस।
- एक नए युग की शुभकामनाओं के लिए जुलूस।
शराब विरोधी आंदोलन– |
- भारत में शराब विरोधी आंदोलनों का आजादी के बाद अपना इतिहास रहा है और वे समय के साथ-साथ देश के विभिन्न भागों में आयोजित हुए।
जिसमें दो प्रमुख आंदोलनों थे:
- उत्तराखंड:
-
- 1963 में, विमला और सुंदरलाल बहुगुणा ने, सर्वोदय आंदोलन के सदस्यों द्वारा स्थापित आश्रम के नजदीक एक गाँव में शराब बेचने के लिए ठेके देने के खिलाफ उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में एक आंदोलन शुरू किया। जिससे प्रभावित होकर सरकार अनुबंध रद्द करने पर सहमत हो गई।
- बाद में, इस आंदोलन ने महिलाओं को आकर्षित किया, जिन्होंने शराब की दुकानों , शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने की मांग की और अंततः उन्हें बंद करने के लिए मजबूर किया।
- शराब की दुकानों के विरोध और पथराव के लिए, कई महिलाओं को जेल भी जाना पड़ा परंतु बाद के वर्षों में भी विरोध प्रदर्शन जारी रहा।
- आखिरकार, 1972 में सरकार ने उत्तराखंड में शराबबंदी लागू करने पर सहमति व्यक्त की।
- आंध्र प्रदेश:
- आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले के डबगुंटा के अंदरूनी इलाके के एक गाँव में महिलाओं ने 1990 के दशक की शुरुआत में बड़े पैमाने पर वयस्क साक्षरता अभियान में पंजीकरण कराया था।
- इस दौरान महिलाओं ने अपने परिवार में पुरुषों द्वारा स्थानीय रूप से बड़े पैमाने पर शराब पीने की शिकायत की
- निम्नलिखित कारणों से क्षेत्र की महिलाओं में असंतोष पनप रहा था:
- उनके परिवारों में पुरुषों द्वारा स्थानीय रूप से तैयार शराब की खपत में वृद्धि ।
- शराब की आदत, जो गाँव के लोगों के बीच गहरी जड़ें जमा चुकी थी, पुरुषों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बर्बाद कर रही थी।
- ऋणग्रस्तता बढ़ने से इसने क्षेत्र की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया।
- शराब के ठेकेदार ताड़ी व्यापार पर अपना एकाधिकार हासिल करने के लिए अपराध को बढ़ावा दे रहे थे।
- महिलाएं सबसे ज्यादा पीड़ित थीं क्योंकि इससे परिवार की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई और उन्हें पुरुष परिवार के सदस्यों, विशेषकर पति से हिंसा का खामियाजा भुगतना पड़ा।
आंदोलन का प्रसार: |
- नेल्लोर में महिलाएं एक साथ स्थानीय रूप से स्थानीय पहल में आईं, जिन्होंने ताड़ी-व्यपार के विरोध में और शराब की दुकान को जबरन बंद करवाया।
- कुछ महिलाओं ने खुद को लाठी, मिर्च पाउडर और झाड़ू से भी लैस कर लिया और आस-पास की दुकानों को बंद करने के लिए मजबूर कर दिया।
- यह खबर तेजी से फैली और लगभग 5000 गाँवों की महिलाएँ प्रेरित हुईं और एक साथ बैठकें करने लगीं, निषेधाज्ञा लागू करने के लिए प्रस्ताव पारित किए गए और उन्हें जिला कलेक्टर को भेजा गया।
- नेल्लोर जिले में यह आंदोलन धीरे-धीरे पूरे राज्य में फैल गया।
- इस आंदोलन ने अंततः 1995 में सरकार को पूरे राज्य में मादक पेय पर प्रतिबंध लगाने के लिए मजबूर किया | लेकिन बाद में इसे आंशिक रूप से 1997 में बहाल कर दिया गया।
महिला आंदोलन का महत्वपूर्ण विश्लेषण– |
- आजादी के बाद,पहली बार विभिन्न जातियों, वर्गों और समुदायों की महिलाओं ने आंदोलन में भाग लिया, साथ ही कई तरह की राजनीतिक प्रवृत्तियों, दलों और समूहों से प्राप्त गतिविधियों में विभिन्न विचारधाराओं से जुड़े लोगों ने आंदोलन को विषम बनाया।
- इन अभियानों ने महिलाओं के सवालों के बारे में समग्र सामाजिक जागरूकता बढ़ाने में बहुत योगदान दिया। सामाजिक टकरावों को खोलने के लिए महिला आंदोलन का फोकस धीरे-धीरे कानूनी सुधारों से हट गया।
- स्वतंत्रता-पूर्व चरण में, महिलाओं के केवल कुछ वर्ग शामिल थे, जबकि स्वतंत्रता-बाद के चरण में, महिलाओं के विभिन्न वर्गों की भागीदारी देखी गयी और यह किसी विशेष वर्ग तक सीमित नहीं रही।
- शाह बानो जैसे मामलों को लैंगिक समानता के आधार पर राजनीतिक रूप से देखा गया।
- श्रम विभाजन को अभी भी नारीवादियों द्वारा लिंग के आधारपर देखा गया और इसमें महिलाओं की जमीनी स्थिति पर बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ।
दलित आंदोलन– |
परिचय– |
- दलित शब्द का प्रथम बार प्रयोग 19वीं सदी में ज्योतिबा फुले द्वारा हिंदुओं के बीच अछूत जातियों के उत्पीड़न के संदर्भ में किया गया।
- यह देश में अछूतों, मुख्यतः हिंदुओं के बीच, की सामाजिक आर्थिक स्थिति को दर्शाता है।
- वर्तमान में दलित शब्द का प्रयोग, इसके प्रारंभिक अर्थ, ‘अछूत वर्ग द्वारा सामना किए जाने वाले उत्पीड़न’ के इतर एक नई राजनीतिक पहचान के रूप में किया जाता है।
- भारत में दलितों ने संगठित होकर देश के विभिन्न हिस्सों में न्याय और समानता के अधिकारों के लिए अनेक आंदोलन चलाए।
हिंदू विरोधी आंदोलन– |
- भक्ति का पुन:उद्भव- यह एक समानतावादी धर्म था, मुख्यतः अछूतों के लिए जिन्होंने धार्मिक आंदोलन को विकसित किया और तर्क दिया कि भक्ति, भारत के मूल निवासियों और शासकों, आदि हिंदुओं, जिन्होंने अछूतों का वंशज होने का दावा किया था, का धर्म है।
- अछूतों की साक्षरता- अछूतों की नई पीढ़ी जो साक्षर थी, ने आंदोलन का नेतृत्व किया और तर्क दिया कि जाति की स्थिति पर आधारित श्रम का सामाजिक विभाजन भारतीय समाज पर आर्य विजेताओं द्वारा जबरन थोपा गया, जिन्होंने आदि-हिंदू शासकों को अपने अधीन कर उन्हें दास बना दिया।
- निम्न जाति की स्थिति को अलग करके देखना – इस विचारधारा ने निम्न जाति की स्थिति को अलग करने का प्रयास किया तथा सामाज में अशुद्ध माने जाने वाले व्यवसाय और ऐसी निम्न सामाजिक भूमिका, कार्य और व्यवसाय को चुनौती दी गई।
- अछूतों की संख्या को आकर्षित करना- हिंदू विरोधी विचारधारा ने अछूतों को बड़ी संख्या में आकर्षित किया और अछूतों की गरीबी और वंचित अवस्था के लिए ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया और पूर्व में खो चुकी उनकी शक्ति एवं अधिकारों को पुनः प्राप्त करने के लिए आशा जागृत की ।
गांधी और दलित आंदोलन– |
- 1920 में, महात्मा गांधी ने पहली बार “अस्पृश्यता” की प्रथा को राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल किया और कांग्रेस के नागपुर प्रस्ताव में हिंदूओ को संकट से उबारने हेतु अपील कर इसे सार्वजनिक चिंता का विषय बताया।
- उन्होंने “अछूतों” के कल्याण के लिए एक अभियान शुरू किया, जो हिंदू जाति से अधिक समर्थन जुटाने में विफल रहा।
- आगे चलकर उन्होंने अस्पृश्यता को संदर्भित करने के लिए हरिजन शब्द का प्रयोग किया जिसका अर्थ हरि या ईश्वर है।
- उन्होंने पृथक निर्वाचक मंडल के विचार का भी विरोध किया है, जिसे 1932 के कम्युनल एकॉर्ड द्वारा प्रदान किया गया था, क्योंकि उनका मानना था कि एक बार वंचित वर्गों को शेष हिंदुओं से पृथक कर दिया गया तो उनके प्रति हिंदू समाज के दृष्टिकोण को परिवर्तित करने के लिए कोई आधार नहीं बचेगा।
संवैधानिक प्रावधान– |
- इसमें पूर्वर्ती दलितों और कुछ अन्य जातियों को उनके सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर अनुसूचितों में शामिल किया गया था। इसके पश्चात संविधान में प्रयुक्त शब्द के आधार पर दलित वर्गों के लिए अनुसूचित जातियों या SCs का प्रयोग किया गया।
- इसने भारत के सभी नागरिकों को, जाति, धर्म, लिंग, रंग और जन्म-स्थान तथा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के इतर अवसर की समानता और कानून की समानता की गारंटी प्रदान की।
दलित पैंथर्स |
- 1970 के दशक की शुरुआत में,स्वयं को दलित पैंथर से कहने वाले एक संगठन का गठन ति आधारित दलित राजनीति की स्थापना की योजना के साथ किया गया था।जा
- अप्रैल 1972 को मुंबई में नामदेव धासल (Namdev Dhasal) द्वारा दलित पैंथर्स की स्थापना एक सामाजिक संगठन के रूप में की गई।
- यह कट्टरपंथी राजनीति की देशव्यापी लहर का एक हिस्सा था जिसने दलितों की दुर्दशा को समाज के समक्ष लाने के लिए रचनात्मक साहित्य का उपयोग किया।
- यद्यपि इस आंदोलन की शुरुआत बंबई की मलिन बस्तियों में हुई,परंतु देखते ही देखते यह विद्रोह देश के सभी शहरों और गांवों में फैल गया।
- पैंथर्स ने अंबेडकर के आंदोलन के अंतर्गत दलित राजनेताओं की एकता के लिए आवाहन किया तथा इसके साथ ही उन्होंने गांव में अछूतों के विरुद्ध हो रही हिंसा का मुकाबला करने का भी प्रयास किया।
- उन्होंने उभरते हुए दलित साहित्य तथा वंचित वर्गों के साहित्य के माध्यम से जनता का ध्यान आकर्षित किया।
- देखते ही देखते दलित पैंथर तेजी से लोकप्रिय हो गए और उन्होंने दलित युवाओं और छात्रों को एकजुट किया तथा बल देकर कहा कि, वे दलित शब्द का प्रयोग आत्म-वर्णन के लिए किसी भी अन्य उपलब्ध शब्द के विरुद्ध करते हैं। निश्चित ही दलित पैंथर्स एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति बनकर उभरा, विशेषतः शहरों में ।
- हालांकि या आंतरिक विभाजन के द्वंद से बचने के लिए नहीं था, जिसने अन्य दलित संगठनों को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया।
- आपातकाल के पश्चात, गरीब गैर-दलितों और गैर-बौद्ध दलितों को शामिल करने के विषय पर संगठन के भीतर गंभीर मतभेद उभरने लगे।
बहुजन समाज पार्टी (BSP) |
- 1980 में, कांशी राम (Kanshi Ram) ( और इसके पश्चात् मायावती जो आगे चलकर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी) के नेतृत्व में उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी (BSP) का उदय हुआ।
- बसपा ने चुनावी शक्ति को अपनी मूल रणनीति और उद्देश्य के रूप में घोषित किया, जिसे इसके राजनीतिक इतिहास में देखा जा सकता है। वर्तमान में,यह अपनी राजनीतिक शक्ति को आगे बढ़ाने के लिए किसी भी मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टी के साथ सहयोग करने के लिए तैयार है।
- यह उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब जैसे उत्तरी राज्यों में पर्याप्त राजनीतिक आधार हासिल करने में सफल रही जिसने गठबंधन की राजनीति में अपने महत्व को बढ़ाया हैं।
दलित पूंजीवाद– |
- 2002 में भोपाल में हुए सम्मेलन में, दलित बुद्धिजीवियों ने यह तर्क दिया कि वैश्वीकरण के दौर में राज्य का पीछे हटना, केवल आरक्षण पर निर्भर रहने से कम होगा।
- इसके पश्चात दलित बुद्धिजीवियों ने जातियों को तोड़ने के लिए आधुनिक अर्थव्यवस्था में पूंजीवाद को आवश्यक माना।
- उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण,जिसे मोटे तौर पर दलित पूंजीवाद के नाम से जाना जाता है, को सामाजिक भेदभाव के चंगुल से दलित मुक्ति के साधन के रूप में भी प्रस्तावित किया गया है।
- यह इस तर्क पर आधारित है कि सामाजिक भेदभाव से बचने के लिए आर्थिक पिछड़ेपन से मुक्ति आवश्यक है।
- हाल के वर्षों में, दलितों के बीच उद्यमी बनने का यह प्रयास तेजी से आगे बढ़ रहा है।
- इस दिशा में सरकार द्वारा अनेक कदम उठाए गए हैं, जैसे-लघु उद्योग को स्थापित करने हेतु मुद्रा योजना के अंतर्गत 10 लाख रुपए तक की धनराशि प्रदान की जाती है, स्टैंड अप इंडिया के अंतर्गत 10 लाख और अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए 1 करोड़ रुपए तक का लोन प्रदान किया जाता है|
दलित आंदोलन के प्रभाव और विश्लेषण– |
- हिंदू रीति-रिवाजों का अभ्यास– यह देखा जाता है कि गांव में बौद्ध धर्मान्तरित लोगों ने अपने पुराने देवी देवताओं में अपनी आस्था को अभी भी नहीं छोड़ा है, और वे अभी भी अपने त्योहारों को उसी तरह मनाते हैं जैसा वह पहले मनाते आए हैं। इस प्रकार, रूपांतरण के बावजूद भी,यह स्पष्ट है कि दलित समानता तभी महसूस करते हैं जब वे उन धार्मिक संस्कारों का अभ्यास करने में स्वयं को सक्षम पाते है जो उनके लिए पहले अस्वीकार्य थे।
- दलितों की दुर्दशा के विरुद्ध संघर्ष– दलित दुर्दशा के विरुद्ध संघर्ष के विषय में गांधीजी की समझ, जिसने मंदिर में प्रवेश के माध्यम से धार्मिक समानता प्राप्त करने और जाति व्यवस्था को सुधारने पर बल दिया, कुछ हद तक स्वीकार्य है।
- आरक्षण– यह अनुसूचित जातियों के भीतर भी समानता में वृद्धि लाने में सहायक है।
- सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया–सामाजिक आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया, औद्योगीकरण, वैश्वीकरण, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, शिक्षा का अधिकार, मध्यान्ह भोजन व्यवस्था, प्राथमिक स्वास्थ्य और शिक्षा केंद्रों का विस्तार आदि सामाजिक अभियान समाज में दलितों की समग्र स्थिति को सुदृढ़ करने के साथ-साथ बाल श्रम के उन्मूलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
- हाउस साइटों के लिए प्रावधान– गांव में घरों हेतु हाउस साइटों के लिए प्रावधान ने उच्च जाति द्वारा उन्हें सजा के रूप में गांव से बाहर निकाले जाने के जोखिम के साथ-साथ उनकी संवेदनशीलता को भी कम किया है, इसके साथ ही भूमि पुनर्वितरण वाले क्षेत्रों में भी भूमिहीनता से जुड़े हुए कलंक में कमी आई है।
- जाति व्यवस्था का विलोपन– परंपरागत व्यवसाय से जुड़ी जाति व्यवस्था का परिसीमन भी महत्वपूर्ण रहा है। इस प्रकार की कई पहलों के परिणामस्वरूप, शहरी क्षेत्रों में अस्पृश्यता लगभग समाप्त हो गई है और विशेष रूप से उन ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पृश्यता में गिरावट आई है जहां रोजगार के अवसरों में वृद्धि की गई है।
- सकारात्मक सामाजिक उपाय-यह देखा जाता है कि जाति और साक्षरता के बीच बहुत मजबूत संबंध होता है, जिसे निचली जाति, विशेष रूप से महिलाओं की साक्षरता दर में देखा जा सकता है। इस असमानता को केवल सकारात्मक सामाजिक उपायों, जैसे-अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा और यहां तक कि माध्यमिक शिक्षा और रोजगार गारंटी योजनाओं के माध्यम से कम करना संभव है।
ICT का युग ( सूचना और संचार तकनीक ) – |
- प्रौद्योगिकी में किसी भी नवाचार के पीछे मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि यह अपने नागरिकों को कार्य की अनुकूल दर्शाए और अवकाश, उत्पादकता और जीवन की बेहतर गुणवत्ता के साथ-साथ अनुकूल वातावरण भी प्रदान करे।
- भारत में, विशेष रुप से ICT से जुड़े प्रौद्योगिकी प्रेरित विकास की दिशा में, राजीव गांधी सरकार द्वारा 1984 में अत्यधिक बल दिया गया।
- उन्होंने कंप्यूटरीकरण के व्यापक कार्यक्रम के साथ-साथ विकास के लिए एक प्रभावी मार्ग को भी अपनाया, साथ ही इसे सार्वजनिक क्षेत्रकों के साथ-साथ वाणिज्यिक और सार्वजनिक क्षेत्रक के उपक्रमों और प्रशासनिक विभागों में भी लॉन्च किया।
- 1985 तक, बड़े क्षेत्रकों ने कंप्यूटरीकरण योजनाओं की घोषणा कर दी थी, जिसमें रेलवे, बैंकिंग परिचालन आदि शामिल थे।
- 1998 में, सूचना प्रौद्योगिकी और सॉफ्टवेयर के विकास पर नेशनल टास्क फोर्स ने सभी सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर सशक्त कार्यबल के एक विस्तृत नेटवर्क की स्थापना कर, IT को राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में अपनाने हेतु एक ब्लू प्रिंट तैयार किया।
- 1999 में, सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय की स्थापना संचार के प्रसार के द्वारा प्रदान किए गए रोजगार के अवसरों के उपयोग के लिए IT के विभिन्न आयामों में शामिल सरकारी एजेंसियों को एक साथ लाने और इलेक्ट्रॉनिक शासन के उपयोग में IT के उपयोग को सुविधाजनक बनाने के लिए की गई थी।
- ICT, ग्रामीण गरीबी, असमानता और पर्यावरणीय परिस्थितियों में होने वाली गिरावट से संबंधित समस्याओं को दूर करने के लिए नई संभावनाएं उत्पन्न करता है। भारत में पिछले दो दशकों में सूचना प्रौद्योगिकी और संचार की वृद्धि अत्यधिक महत्वपूर्ण रही है।
- भारत के , IT उद्योग में, सॉफ्टवेयर उद्योग और सूचना प्रौद्योगिकी सक्षम सेवाएं (ITES) शामिल हैं, जिसमें बीपीओ(BPO) उद्योग भी शामिल है।
- भारत को सॉफ्टवेयर विकास में अग्रणी और IT-सक्षम सेवाओं (ITES) के लिए एक पसंदीदा गंतव्य माना जाता है।
- अनेक देश भारत को वैश्विक आउटसोर्सिंग के लिए एक मॉडल के रूप में देखते हैं तथा इसका अनुसरण करने की कोशिश करते हैं।
- भारत सरकार और अन्य राज्य सरकारें; नागरिकों (G2C), व्यवसाय (G2B), कर्मचारियों (G2E) और सरकारों (G2G) को सरकारी सूचनाओं को प्रदान करने के लिए आईसीटी का उपयोग करती हैं।
- भारत सरकार ने 1990 के दशक के अंत में ई गवर्नमेंट कार्यक्रम पहल की शुरुआत करते हुए, सूचना एवं प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 को अपनाया।
- इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य इलेक्ट्रॉनिक अनुबंधों की पहचान करना, कंप्यूटर अपराधियों को रोकना और इलेक्ट्रॉनिक फाइलिंग को संभव बनाना है। इसके पश्चात 2006 में, सरकार ने भारत में, ई गवर्नमेंट पहल को बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस (NeGP) योजना को मंजूरी दी।
- लगभग सभी राज्य सरकारों और संघ शासित प्रदेशों ने भी अपने नागरिकों और व्यवसायों को बेहतर सेवाएं उपलब्ध कराने हेतु स्वयं की ई-सरकारी सेवाओं को लागू किया। कुछ सबसे प्रमुख सेवाओं में कर्नाटक की “भूमि”, मध्य प्रदेश की “ज्ञानदूत”, आंध्र प्रदेश की “स्मार्ट गवर्नमेंट”, तमिलनाडु की “SARI” शामिल हैं।
विगत वर्षों के प्रश्न– |
- आचार्य विनोबा भावे और उनके उत्तराधिकारियों द्वारा शुरू किए गए ‘भूदान’ और ‘ग्रामदान’ आंदोलनों के उद्देश्यों की आलोचनात्मक चर्चा कीजिए (Critically discuss)। (2013)
- “जय जवान जय किसान” के नारे के विकास और महत्व पर आलोचनात्मक टिप्पणी (critical note) कीजिए।