Final Result - CIVIL SERVICES EXAMINATION, 2023.

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आपदा एवं इसका प्रबंधन

आपदा एवं इसका प्रबंधन

 

Topic
आपदा और खतरे

Disaster and hazards

आपदाओं का वर्गीकरण, प्राकृतिक खतरे, उनका प्रबंधन Classification of disasters, Natural hazards, their management
भारत में आपदा प्रबंधन

Disaster Management in India

आपदा प्रबंधन और प्रौद्योगिकी

Disaster Management and Technology

आपदा प्रबंधन पर राष्ट्रीय नीति, 2009

National Policy on Disaster Management, 2009

वर्तमान विकास

Current Developments

 

आपदा और खतरे

  • आपदा जोखिम न्यूनीकरण संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (United Nations Office for Disaster Risk Reduction -UNISDR) ने ‘आपदा’ को कुछ इस तरह से परिभाषित किया है ““किसी समुदाय या समाज के सुचारु रूप से कार्य करने में एक ऐसी गंभीर बाधा जो व्यापक भौतिक,
  • आर्थिक, सामाजिक या पर्यावरणीय क्षति उत्पन्न करती है और जिसके प्रभावों से निपटना, समाज द्वारा अपने संसाधनों का उपयोग करते हुए संभव नहीं होता है।” ।”(UNISDR 2016)।
  • आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 (The DM Act 2005) के अनुसार आपदा की निम्न परिभाषा है:
  • “आपदा” का अर्थ किसी भी क्षेत्र में होने वाली तबाही, दुर्घटना, या गंभीर घटना से है, जो प्राकृतिक उथल-पुथल या मानवीय गतिविधियों के कारण उत्पन्न होती है तथा जिसके परिणाम स्वरूप जान एवं माल की अत्यधिक हानि होती है अथवा पर्यावरण का क्षरण होता है । आपदा की प्रकृति अथवा उसके हानिकारक प्रभाव का परिमाण इतना अधिक होता है कि उसका सामना करना , मानव समुदाय की क्षमता से परे होता है । “

संकट :

भविष्य में किसी स्रोत द्वारा होने वाले विनाश की संभावना को’ संकट’कहा जा सकता है जो निम्नलिखित पर प्रभाव डालता है:

  • लोग: मौत, चोट, बीमारी और तनाव
  • संपत्ति: संपत्ति को नुकसान, आर्थिक नुकसान, आजीविका का नाश
  • पर्यावरण: वनस्पतियों और जीवों की हानि, प्रदूषण, जैव विविधता पर हानिकारक प्रभाव ।

आपदा और संकट में अंतर

 

आपदा संकट
आपदा एक ऐसी घटना है जो ज्यादातर मामलों में अचानक / अप्रत्याशित रूप से होती है एवं प्रभावित क्षेत्रों में जीवन की सामान्य स्थिति को भंग करते है। इससे जीवन, संपत्ति या पर्यावरण में नुकसान या क्षति होती है। इसका प्रभाव स्थानीय आबादी /समाज की सहन ‌क्षमता से कहीं अधिक विनाशकारी होता है अतः इसका सामना करने के लिए बाहरी मदद की आवश्यकता होती है। संकट एक ऐसी घटना है जिसमें चोट / जीवन /संपत्ति / पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की क्षमता होती है।

 

आपदा प्रबंधन में प्रयुक्त महत्वपूर्ण शब्दावली:

  • संकट: यह एक ऐसी घटना होती है जो जीवन ,संपत्ति ,सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था अथवा पर्यावरणीय क्षति का कारण बन सकती है।
  • सुभेद्यता: यह एक आपदा द्वारा किसी व्यक्ति ,समुदाय अथवा स्थान पर संभावित विनाश को दर्शाता है , जो भौगोलिक और साथ ही सामाजिक परिस्थितियों को भी प्रभावित करता है ।
  • समुदाय: जो किसी गांव अथवा शहरी क्षेत्रों में एक साथ रहते हैं , इन्हें प्रायः स्थानीय समूह के रूप में पहचाना जाता है ।
  • फर्स्ट रिस्पांडर्स(first responders): यह लोगों का वह समूह होता है जो आपदा के समय सर्वप्रथम प्रतिक्रिया देते हैं l यह सरकार अथवा राहत एजेंसियों के पहुंचने से पहले आपदा प्रभावित व्यक्ति अथवा समुदायों को सहायता प्रदान करता है ।

 

आपदा एवं प्राकृतिक खतरों के प्रकार एवं वर्गीकरण

 

आपदाओं का वर्गीकरण:

आपदाओं को दो भागो में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  • आपदाओं का वर्गीकरण
    • प्राकृतिक आपदा
    • कृत्रिम आपदा

 

भारत में प्राकृतिक आपदाएँ:

  • प्राकृतिक आपदाएं
    • भूकंप
    • सुनामी
    • बाढ़
    • सूखा
    • भूस्खलन
    • भीड़ प्रबंधन
    • जंगल की आग
    • तेल रिसाव

भूकंप (Earthquake)

  • भूकंप अब तक सभी प्राकृतिक आपदाओं में सबसे अप्रत्याशित और अत्यधिक विनाशकारी आपदा हैं। विवर्तनिक मूल (tectonic origin) के भूकंप सर्वाधिक विनाशकारी सिद्ध हुए हैं एवं इनका प्रभाव क्षेत्र भी बहुत अधिक होता है ।
  • इस प्रकार के भूकंप, पृथ्वी की ऊपरी सतह में विवर्तनिक गतिविधियों के दौरान होने वाले संचरणों के कारण उत्पन्न ऊर्जा के परिणाम स्वरूप आते हैं ।
  • राष्ट्रीय भूभौतिकीय प्रयोगशाला (National Geophysical Laboratory), भारत का भूगर्भीय सर्वेक्षण(Geological Survey of India), मौसम विभाग के साथ-साथ हाल ही में गठित राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (National Institute of Disaster Management ) ने पिछले दिनों भारत में आए 1200 से अधिक भूकंपों का गहन विश्लेषण करके इसी आधार पर भारत को निम्नलिखित 5 भूकंप क्षेत्रों में विभाजित किया है:

 

भारत में भूकंपीय क्षेत्र (Seismic Zones in India)

  • भारत में चार भूकंपीय क्षेत्र (II, III, IV, और V) हैं, जो भूकंपीय गतिविधियों से संबंधित वैज्ञानिक इनपुट, भूतकाल में आए भूकंप के आधार पर एवं क्षेत्र की विवर्तनिक संरचना को ध्यान में रखते हुए विभाजित किए गए हैं।
  • इससे पूर्व भूकंप क्षेत्रों को भूकंप की गंभीरता के आधार में 5 क्षेत्रों में विभाजित किया गया था, लेकिन भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standards BIS) ने पहले दो क्षेत्रों को एकजुट करके देश को चार भूकंपीय क्षेत्रों में वर्गीकृत कर दिया हैं ।
  • BIS भूकंपीय संकट के नक्शे और कोड प्रकाशित करने के लिए आधिकारिक एजेंसी है।

 

भूकंपीय क्षेत्र II:

मामूली क्षति के साथ V से VI MM स्केल (MM-मॉडिफाइड मर्केली इंटेंसिटी स्केल(Modified Mercalli Intensity scale)) की तीव्रता होती है ।
भूकंपीय क्षेत्र III: VII MM स्केल की तुलना में मध्यम क्षति

 

भूकंपीय क्षेत्र IV: VII MM स्केल की तुलना में अधिक क्षति एवं उच्च MM स्केल
भूकंपीय क्षेत्र V:

· कुछ प्रमुख विवर्तनिक भ्रंश प्रणालियों द्वारा निर्धारित भूकंपीय क्षेत्र एवं भूकंपीय रूप से सबसे अधिक सक्रिय ।

· भूकंप क्षेत्र V सबसे अधिक असुरक्षित है इससे पहले भी यहां पर देश के कुछ सबसे शक्तिशाली भूकंप आए हैं ।

· इन क्षेत्रों में 7.0 से अधिक परिमाण वाले भूकंप आए हैं, और जिनकी तीव्रता IX स्केल से अधिक थी ।

 

भूकंपों: भारत का 59% भूभाग भूकंपों की चपेट में है

 

भूकंपों के सामाजिक पर्यावरणीय परिणाम:

  • भूकंप का विचार प्रायः भय पूर्ण होता है – उसके पैमाने ,परिमाण , एकाएक आने एवं अचानक ही पूरी पृथ्वी की सतह पर एक समान रूप से प्रसारित हो जाने के कारण
  • यदि यह उच्च जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्रों में आता है तो यह एक विनाशकारी आपदा का रूप ले लेता है ।
  • यह न केवल बुनियादी ढांचे, परिवहन ,संचार, नेटवर्क ,उद्योगों एवं अन्य विकासात्मक गतिविधियों को बाधित करता है अपितु उनकी सामग्री और सामाजिक सांस्कृतिक लाभ को भी नष्ट कर देता है जिसे उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी संरक्षित किया है l यह लोगों को बेघर कर देता है जो विकासशील देशों की कमजोर अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त दबाव उत्पन्न करता है ।

 

भूकंप के प्रभाव:

जमीन पर:

दरारें (Fissures): · भूकंप, पृथ्वी की ऊपरी सतह में दरारे बना सकता है जिसके कई संभावित श्रृंखला प्रभाव (chain effect)हो सकते हैं।

बस्ती:

· भूकंप के कारण विभिन्न बस्तियां नष्ट हो जाती हैं जिससे लोगों की जान भी चली जाती है परिणाम स्वरूप इन लोगों का पलायन सुरक्षित क्षेत्रों की ओर होता है ।

भूस्खलन

· अत्यधिक ढलान वाले क्षेत्रों में भूस्खलन का खतरा सबसे अधिक होता है । सघन चराई, वनों की कटाई और उच्च वर्षा जैसी प्राकृतिक एवं मानवीय गतिविधियां भूस्खलन का कारण बन सकती हैं हैं।

· उदाहरण: जैसे हिमालय के आसपास उच्च ढलान वाले क्षेत्र जो कि भारत के उच्च जोखिम क्षेत्र कहलाते हैं ।

 

मानव निर्मित संरचनाओं पर:

दरार:

भूकंप इमारतों, सड़कों और अन्य बुनियादी ढांचे में दरार उत्पन्न कर सकता है । लंबे समय के बाद ये दरारें संरचनाओं को और अधिक नुकसान पहुंचा सकती हैं।
स्लाइडिंग (सरकना):

भूकंप कुछ संरचनाओं को, उनकी बुनियाद से स्खलित कर सकता है । जब एक टेक्टोनिक प्लेट दूसरे पर स्लाइड करती है तो जमीन की सतह पर विभिन्न प्रकार की असमानता उत्पन्न हो सकती है । यह इमारतों, सड़कों और अन्य बुनियादी संरचना को भी स्खलित कर सकता है ।
नष्ट होना:

यदि किसी संरचना का निर्माण, क्षेत्र की भूगर्भीय और भू-आकृतिक स्थितियों के अनुसार न किया जाए तो भूकंप के दौरान इन पर गंभीर भूगर्भीय संकट आने की संभावना होती है। इस प्रकार की इमारतों का भूकंप के दौरान नष्ट होना स्वाभाविक है ।

 

पानी पर:

लहरें:

भूकंप प्रायः जल निकायों में सामान्य से अधिक लहरें उत्पन्न कर सकता है ,इतनी ऊंची लहरें मानव बस्तियों ,कृषि इत्यादि को नष्ट कर सकती है ।
हाइड्रोडायनामिक ाब:

जल निकाय, दाब में होने वाले परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते है। यदि भूकंप के कारण पर्याप्त दाब उत्पन्न होता है तो बांध टूट सकते हैं ।
सुनामी:

· विवर्तनिक प्लेटों के आपस में प्रतिस्थापन के कारण भूकंप आ सकता है और यह सामान्य तरंगों को उच्च तरंगदैर्ध्य में परिवर्तित कर सकता है । ऐसी तरंगें अधिक विनाशकारी होती हैं।

· उदाहरण: 2004 सुनामी, इंडोनेशिया (2018) में सुनामी लहरें।

 

भूकंप के खतरे से बचाव:

भूकंप को रोकना संभव नहीं है अतः दूसरा विकल्प यह है कि इसे रोकने की बजाय इस आपदा की तैयारियों और इससे निपटने पर जोर दिया जाए:

  • भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में नियमित निगरानी एवं सूचना के प्रसार हेतु भूकंप निगरानी केंद्र स्थापित करने चाहिए l टेक्टोनिक प्लेटों के संचरण पर निगरानी रखने हेतु GPS का उपयोग अत्यधिक सहयोगी होगा।
  • देश का सुभेद्यता मानचित्र तैयार करना एवं लोगों को इन आपदा प्रभावित क्षेत्रों की जानकारी प्रदान करते हुए इन आपदाओं के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने हेतु लोगों को इसके उपायों एवं साधनों के बारे में शिक्षित करना।
  • सुभेद्य क्षेत्रों में घर के प्रकार एवं भवनों के निर्माण की प्रक्रिया में संशोधन करना ।
  • भूकंप प्रतिरोधी संरचना का विकास एवं भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में प्रमुख निर्माण गतिविधियों हेतु हल्की सामग्री का उपयोग अनिवार्य होना चाहिए।
वर्तमान घटनाक्रम:

  • इंडिया क्वेक ऐप पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने लोगों को भूमि अथवा जल से संबंधित प्राकृतिक खतरो की जानकारी प्राप्त करने में सक्षम बनाने के लिए India Quake app लॉन्च किया है। भूकंप की घटना के पश्चात स्थान एवं समय के आधार पर भूकंप पैरामीटर के स्वचालित प्रसार हेतु राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र (National centre for Seismology) ने इस ऐप को विकसित किया है जिसके माध्यम से भूकंप से संबंधित जानकारियां समय पर प्रसारित की जा सकेंगी

सुनामी:

• सुनामी (जापान में इसे “हार्बर वेव” कहा जाता है), जिसे भूकंपीय समुद्री लहर के रूप में भी जाना जाता है, यह जल में उठने वाली तरंगे हैं जिनकी तरंग दैर्ध्य बहुत ही अधिक होती है। गहरे समुद्र में इनकी ऊंचाई लगभग 100 किलोमीटर से भी अधिक हो सकती है ।

  • यह प्रायः भूकंप, भूस्खलन, या ज्वालामुखी गतिविधि के कारण समुद्र तल में अचानक हुए विस्थापन द्वारा उत्पन्न होता है।
  • अधिकांश विनाशकारी सुनामी बड़े भूकंप से उत्पन्न होती है जो प्रायः भूगर्भीय प्लेटो के टकराने के स्थान पर अथवा भ्रंश रेखा (fault-lines) के पास उत्पन्न होते हैं ।
  • समुद्र तल में हुई अकस्मिक ऊर्ध्वाधर विकृति के कारण समुद्र के विशाल भाग में कुछ परिवर्तन होते हैं जिस से जल तरंगे उत्पन्न होती हैं । इन तरंगों की ऊंचाई गहरे समुद्र में केवल कुछ डेसीमीटर अथवा इससे कम होगी जो जहाजों द्वारा भी महसूस नहीं की जा सकती है ।
  • ना ही उन्हें खुले समुद्र में ऊपर से देखा जा सकता है ।
  • परंतु यही तरंगे ट्रिगरिंग स्रोत से‌ काफी लंबी दूरी पर 800 किलोमीटर प्रति घंटा की गति से पहुंच सकती हैं ।
  • ये तरंगे तट में , हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करती हैं क्योंकि जब सुनामी तटीय क्षेत्रों के उथले जल में पहुंचती है तो लहरों की ऊंचाई में वृद्धि तथा वेग में कमी आती है ।
  • उथले पानी में, एक बड़ी सुनामी की लहरों की ऊंचाई 30 मीटर से अधिक हो सकती है जो बहुत ही कम समय में तटीय क्षेत्रों का विनाश कर सकती है ।
  • दिसंबर 2004 में हिंद महासागर के तटों पर ऐसी ही एक घटना घटित हुई थी जिसमें बड़े पैमाने पर लोगों की मृत्यु के साथ साथ भारी जानमाल का नुकसान हुआ था ।
  • ट्रिगरिंग स्रोत में उत्पन्न हुई तरंगे तटीय क्षेत्र पर पहुंचकर भयावह रूप ले लेती हैं और इन्हें इस स्रोत से तट तक पहुंचने में कुछ 10 मिनट से भी कम लग सकता हैं ।
  • 26 दिसंबर 2004 को हिंद महासागर में भूकंप के परिणाम स्वरूप आई सुनामी ने भारत पर विनाशकारी प्रभाव डाला था । अनेक लोगों की मृत्यु हुई, लाखों लोग विस्थापित हो गएl इस सुनामी का सबसे अधिक प्रभाव भारत के दक्षिणी तट एवं अंडमान एवं निकोबार दीप समूह पर पड़ा था ।
  • सुनामी में संपत्ति की क्षति, बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे की क्षति, जान एवं माल की क्षति और दीर्घकालिक नकारात्मक आर्थिक प्रभाव पड़ने की संभावना होती है । सुनामी की चपेट में आने वाले लोगों एवं वस्तुओं के बचने की संभावना अत्यधिक कम होती है ।लोग या तो डूब कर या तो मलबे में दबकर मर जाते हैं ।
  • सुनामी द्वारा होने वाली क्षति को कम करने के लिए विभिन्न राज्यों एवं केंद्र सरकार को अपनी क्षमता में वृद्धि करनी चाहिए । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसके द्वारा होने वाले विनाश से बचने हेतु संयुक्त प्रयास के माध्यम से संभावित उपाय उपलब्ध है । भारत ने दिसंबर 2004 की सुनामी आपदा के बाद अंतर्राष्ट्रीय सुनामी चेतावनी प्रणाली (the International Tsunami Warning System –ITWS) में सम्मिलित होकर आवश्यक सुधारों का कार्यान्वयन किया है।

 

सुनामी: क्षमता निर्माण

अनुसंधान और विकास:

  • सुनामी द्वारा होने वाले जोखिम मूल्यांकन एवं परिदृश्य विकास हेतु मानकीकृत विधियों के विकास को प्रोत्साहित करना, डाटा एकत्र करने एवं ज्ञान का संकलन करने के लिए अध्ययन का समर्थन करना।
  • पूर्व सुनामी घटनाओं के आधार पर सुनामी के खतरे के संकेतक हेतु बड़े पैमाने पर डिजिटल मानचित्रण विकसित करना चाहिए।
  • राज्यों को आपदा प्रबंधन गतिविधि योजना एवं समन्वय के लिए भूकंप प्रभावित क्षेत्रों के विस्तृत कंप्यूटरीकृत नक्शे और डाटा बेस तैयार करना चाहिए।

 

ज़ोनिंग या मैपिंग:

  • तूफानी लहरों, उच्च डेस, स्थानीय स्नानागार आदि की जानकारी के साथ तटीय क्षेत्रों में सुनामी जोखिम एवं वैधता का डेटाबेस तैयार करना चाहिए।
  • राज्यों को केंद्र सरकार की एजेंसियों में ज़ोनिंग या मैपिंग हेतु समर्थन प्रदान करना चाहिए और अपने स्तर पर इसमें आवश्यक सुधार करने चाहिए।

 

अवलोकन नेटवर्क, सूचना प्रणाली, निगरानी, ​​अनुसंधान, पूर्वानुमान और प्रारंभिक चेतावनी:

  • सुनामी का सामना करने के लिए तटीय क्षेत्रों में मौजूदा महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों की स्थिति का आकलन करें
  • महत्वपूर्ण उपकरणों के बिना ‘फेल सेफ ‘कार्यान्वयन (fail-safe functioning) सुनिश्चित करने हेतु इनका रखरखाव एवं संरक्षण करना चाहिए ।
  • राज्यों को डेटा संग्रह और अपडेट के लिए सहयोग करना चाहिए।

 

चेतावनी, डेटा और सूचना का प्रसार:

  • भूकंपीय गतिविधि की निगरानी करना, भूकंपीय मॉडल के आधार पर चेतावनी देना और समय-समय पर आवश्यक जानकारी का प्रसारण करना ।
  • सभी आवश्यक चेतावनी का प्रसारण दूरस्थ ग्रामीण व शहरी जोखिम क्षेत्रों तक नियमित रूप से होना चाहिए ।

 

केंद्र और राज्य निम्नलिखित मामलों पर समन्वय कर सकते हैं:

  • जीवनरेखा संरचनाओं और उच्च प्राथमिकता वाली इमारतों का सुदृढ़ीकरण
  • तूफानों एवं सुनामी की स्थिति में लोगों के लिए आश्रय निर्माण
  • बड़े पैमाने पर जलमग्न सैंडबार(रेती )का निर्माण
  • समय-समय पर इनलेट्स और संबंधित जल निकायों के माध्यम से सुनामी के दौरान आने वाले जल प्रवाह को अवशोषित करन
  • जलमग्न डाइक्स (submerged dykes) का निर्माण (तट के खिंचाव के साथ एक या दो पंक्तियों) जिससे भविष्य में आने वाली सुनामी का प्रभाव कम करके महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों की सुरक्षा की जा सके l
  • सभी महत्वपूर्ण संरचनाओं एवं बुनियादी ढांचोंसंकट प्रतिरोधी निर्माण सुदृढ़ीकरण ‘एवं रिट्रोफिटिंग किया जाना चाहिएl

 

वर्तमान घटनाक्रम:

 

सागर वाणी ऐप (Sagar Vani App):

  • यह पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अंतर्गत, भारतीय राष्ट्रीय महासागर सूचना सेवा केंद्र (Indian National Centre for Ocean Information Services – INCOIS) द्वारा विकसित किया गया है।
  • यह एक सॉफ्टवेयर प्लेटफ़ॉर्म है जो समुद्री जानकारी के प्रसार और संभावित मत्स्य पालन क्षेत्र (PFZ) एडवाइजरी, महासागर राज्य पूर्वानुमान (OSF), राज्य मार्ग चेतावनी एवं सुनामी चेतावनियों के लिए अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग करता है।

 

उष्णकटिबंधीय चक्रवात (Tropical cyclones):

  • भारत की लगभग 7500 किलोमीटर लंबी तट रेखा का 5400 किलोमीटर मुख्य भूमि में, 132 किलोमीटर लक्ष्यदीप में एवं 1900 किलोमीटर अंडमान और निकोबार दीप समूह में है ।
  • भारत के अधिकांश तूफान बंगाल की खाड़ी में प्रारंभ होते हैं एवं पूर्वी भारतीय तटों को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं ।
  • प्रत्येक वर्ष, औसतन पाँच से छह उष्णकटिबंधीय चक्रवात आते हैं, जिनमें से दो या तीन गंभीर हो सकते हैं।
  • प्रायः पश्चिमी तटों में अरब सागर के अंतर्गत एवं पूर्वी तटों में बंगाल की खाड़ी के पास ज्यादातर चक्रवात आते हैं ।
  • अरब सागर की तुलना में बंगाल की खाड़ी में अधिक चक्रवात आते हैं।
  • भारत के पूर्वी और पश्चिमी तटों पर चक्रवातों की आवृत्तियों के विश्लेषण से पता चलता है कि लगभग 308 चक्रवात (जिनमें से 103 गंभीर थे) ने पूर्वी तटों को सबसे अधिक प्रभावित किया था ।
  • भारत में मई-जून और अक्टूबर-नवंबर के माह में उष्णकटिबंधीय चक्रवात आते हैं।
  • हिंद महासागर के उत्तरी भाग में अत्यधिक तीव्रता और आवृत्ति के चक्रवात आते हैं l नवंबर और मई में इनकी तीव्रता अधिक होती हैं ।
  • विनाशकारी हवा, तूफान सर्ज और मूसलाधार वर्षा के कारण हिंद महासागर (बंगाल की खाड़ी और अरब सागर) के उत्तरी भाग में भूस्खलन जैसी आपदाओं की संभावना सबसे अधिक होती है । इसके अतिरिक्त अत्यधिक तूफान चक्रवात आदि आते हैं जिसके कारण निचले तटीय क्षेत्रों में समुद्र का पानी भारी बाढ़ लाता है जो समुद्री तटों तटबंधों एवं वनस्पतियों को नष्ट कर देता है साथ ही मिट्टी की उर्वरता को भी कम करता है ।
  • देश के 30 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को मिलाकर कुल 84 जिले उष्णकटिबंधीय चक्रवात से प्रभावित है ।
  • पूर्वी तट पर चार राज्य (तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और पश्चिम बंगाल) और एक UT (पुदुचेरी) , पश्चिमी तट पर एक राज्य (गुजरात) चक्रवात आपदा से सर्वाधिक प्रभावित हैं ।

 

उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के उद्भव के लिए प्रारंभिक परिस्थितियां:

अत्यधिक मात्रा में निरंतर गर्म और आद्र वायु की आपूर्ति जो बहुत अधिक गुप्त ऊष्मा का उत्पादन कर सकती है ।

 

  • मजबूत कोरिओलिस बल जो केंद्र में दाब को कम नहीं होने देता है (भूमध्य रेखा के पास कोरिओलिस बल की अनुपस्थिति( 0-5 डिग्री अक्षांश के बीच) के कारण उष्णकटिबंधीय चक्रवात यहां उत्पन्न नहीं होते है)।
  • छोभ मंडल में अस्थिर स्थिति का उत्पन्न होना जिसके चारों ओर ही चक्रवात विकसित होता है ।
  • तेज ऊर्ध्वाधर वायु की अनुपस्थिति जो गुप्त ऊष्मा के ऊर्ध्वाधर परिवहन को अस्थिर करती है ।

 

चक्रवात: देश के 84 समुद्र तटीय जिले चक्रवात की चपेट में हैं दुनिया के उष्णकटिबंधीय चक्रवातों का 10% भारतीय तटों को प्रभावित करता है।

 

उष्णकटिबंधीय चक्रवात: NDMA दिशानिर्देश

 

  • अवलोकन नेटवर्क, सूचना प्रणाली, निगरानी, अनुसंधान, पूर्वानुमान और प्रारंभिक चेतावनी:
  • अनुसंधान और अध्ययन को बढ़ावा देना – शोधकर्ताओं और संस्थानों को अनुसंधान अनुदान प्रदान करके आंतरिक एवं बाहरी अनुसंधान को बढ़ावा देना l
  • पारिस्थितिकी तंत्र और तटरेखा में परिवर्तन पर अध्ययन
  • सार्वजनिक पटल/डोमेन पर चक्रवात और उसके पूर्वानुमान से जुड़े डेटाबेस की उपलब्धता सुनिश्चित करना।
  • अवलोकन नेटवर्क स्टेशनों (ONS) का संवर्द्धन
  • नियोजित स्वचालित मौसम स्टेशनों (AWS) और रेन-गेज नेटवर्क (RGN) की स्थापना
  • तटीय क्षेत्रों पर एक डॉपलर मौसम रडार नेटवर्क का संवर्द्धन
  • AWS और RGN के साथ सभी ONS का एकीकरण
  • अवलोकन (observation) नेटवर्क, उपकरण, प्रणाली और प्रौद्योगिकी का आधुनिकीकरण

 

  • ज़ोनिंग या प्रतिचित्रण (mapping):
  • सर्वश्रेष्ठ साधनों , क्षेत्रों का अध्ययन और उपग्रह से प्राप्त डेटा का उपयोग करके तटीय जैव-ढाल के लिए तटीय आर्द्रभूमि, मैंग्रोव और वातरोधी (shelterbelt) और संबंधित भूभाग विस्तृत रूपरेखा तैयार करना।

 

  • चेतावनी, डेटा और सूचना का प्रसार:
  • केंद्रीय और राज्य एजेंसियों के बीच त्वरित, स्पष्ट, प्रभावी प्रसार
  • संचार उपकरणों की उपलब्धता
  • सभी प्रकार के विकल्पों, प्रौद्योगिकियों के प्रकार और माध्यमों का उपयोग करके चेतावनी उपलब्ध कराना
  • मोबाइल नेटवर्क सेवा के साथ ऑनलाइन, ऑफलाइन मौसम की जानकारी प्रदान करना।
  • रेडियो, टीवी और सेलफोन पर चेतावनी प्रदान करना।
  • अंतरएजेंसी समन्वय:
  • चेतावनी, सूचना और डेटा के त्वरित, सुरक्षित, प्रभावी प्रसार को सुनिश्चित करने के लिए केंद्रीय और राज्य एजेंसियों के बीच प्रभावी समन्वय और निर्बाध संचार।
  • संरचनात्मक उपाय:
  • सभी महत्वपूर्ण संरचनाओं और महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे का जोखिम प्रतिरोधी निर्माण, सुदृढ़ीकरण, और पुनःसंयोजन
  • जागरूकता पैदा करना:
  • बड़े पैमाने पर मीडिया अभियान चलाना
  • जागरूकता अभियानों/IEC में व्यवहारिक परिवर्तन को बढ़ावा देना
  • आपदा जोखिम निवारण, शमन और जोखिम प्रबंधन की संस्कृति को बढ़ावा देना
  • बीमा/जोखिम हस्तांतरण को बढ़ावा देना
  • सामुदायिक रेडियो को बढ़ावा देना
  • DRR और DM के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए नागरिक समाज संगठन (civil society organization) के नेटवर्क को मजबूत करना

 

  • मॉक अभ्यास (mock drill):
  • सभी मंत्रालयों और सभी राज्यों/केंद्र-शासित प्रदेशों द्वारा आपातकालीन अभ्यासों की योजना और निष्पादन को बढ़ावा देना
  • व्यावसायिक प्रशिक्षण/कौशल विकास:
  • विभिन्न प्रकार के आवास और बुनियादी ढांचे के लिए बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में बहु-जोखिम प्रतिरोधी निर्माण के लिए कौशल विकास को बढ़ावा देना।
  • महिलाओं, समुदाय (जो हाशिए पर हैं) और दिव्यांगों को सशक्त बनाना:
  • आपदा प्रबंधन के सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए क्षमता विकास में लैंगिक संवेदनशीलता और न्यायसंगत दृष्टिकोण को शामिल करना।
  • समुदायआधारित आपदा प्रबंधन
  • PRI, SHG, NCC, NSS, युवा, स्थानीय सामुदायिक संगठनों के लिए प्रशिक्षण
  • समुदायों की आपदा प्रबंधन क्षमता को मजबूत करना, जो कि बहु- संकट (multi-hazard) वाले दृष्टिकोण पर आधारित होना चाहिए।

 

वर्तमान के विकास:

राष्ट्रीय तटीय आपदा जोखिम न्यूनीकरण और लोचशीलता (CDRR&R) पर प्रथम सम्मेलन -2020

  • इस सम्मेलन का आयोजन नई दिल्ली में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (NIDM) द्वारा किया गया था।
  • इस सम्मेलन के तहत प्रधानमंत्री के 10- सूत्रीय एजेंडा और आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए सेंडाइ फ्रेमवर्क को लागू कर के तटीय आपदा जोखिमों और प्रभावी सहयोगी कार्यों के बारे में बेहतर समझ के मामले में मानव क्षमता को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया गया।
  • NIDM, गृह मंत्रालय के अंतर्गत आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के तहत गठित किया गया था।
  • इसे आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में मानव संसाधन विकास, क्षमता निर्माण, प्रशिक्षण, अनुसंधान, प्रलेखन और नीतियों की सहायता के लिए राष्ट्रीय नोडल के तौर पर जिम्मेदारी सौंपी गई है।

शीतलहरें:

  • शीतलहर और पाला, मौसमी और स्थानीयकृत संकट हैं, जो केवल अत्यधिक सर्दियों वाले क्षेत्रों में आते हैं। लंबे समय तक ठंढ और शीतलहर, ठंढ के प्रति संवेदनशील पौधों को नुकसान पहुंचा सकती है, जिससे फसलों को नुकसान होता है। ठंढ के प्रति संवेदनशीलता फसलों में व्यापक रूप से भिन्न होती है।
  • शीतलहर से होने वाली क्षति की मात्रा तापमान, उद्भासन काल (Length of exposure), आर्द्रता का स्तर और हिमकारी तापमान तक पहुंचने की अवधि पर निर्भर होती है। उस निश्चित तापमान स्तर का अनुमान लगाना कठिन है जिसपे फसलें, शीतलहर/ठंढ को सहन कर सकती हैं क्योंकि कई अन्य कारक भी इसे प्रभावित करते हैं।
  • शीतलहर से मनुष्यों, पशुओं और वन्यजीवों की मृत्यु और आकस्मिक आघात हो सकता है। सभी जानवरों और मनुष्यों को ठंड से लड़ने के लिए उच्च कैलोरी सेवन की आवश्यकता होती है, और अत्यधिक ठंड की स्थिति में खराब पोषण घातक साबित हो सकता है।
  • यदि शीतलहर लगातार और भारी बर्फबारी के साथ पड़ती है, तो चरने वाले जानवर अपेक्षित भोजन प्राप्त करने में असमर्थ हो सकते हैं। लंबे समय तक भोजन ना प्राप्त करने या हाइपोथर्मिया से उनकी मृत्यु हो सकती हैं।

 

IMD द्वारा शीतलहर और शीत दिवस की परिभाषा:

 

  • हवा की गति के आधार पर वास्तविक न्यूनतम तापमान को कम करने में शीतल पवन संबंधी कारक (wind chill factor) महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। WMO के मानदंड का उपयोग करते हुए विंड चिल फैक्टर के आधार पर किसी जगह के वास्तविक न्यूनतम तापमान को “विंड चिल इफ़ेक्ट मिनिमम टेम्परेचर (WCTn)” तक कम किया जाना चाहिए।
  • “शीतलहर” और “शीत दिवस” ​​की घोषणा के लिए WCTn का ही उपयोग किया जाना चाहिए। यदि WCTn 10 °C या उससे कम है, तो हीं शीतलहर माना जाना चाहिए। शीतलहर तब होती है:
  • जब सामान्य न्यूनतम तापमान 10 °C या उससे अधिक के बराबर होता है; यदि शीतलहर का विचलन सामान्य से -5 ° C से -6 ° C है, और गंभीर शीतलहर का विचलन सामान्य से -7 ° C या उससे अधिक
  • जब सामान्य न्यूनतम तापमान 10°C से कम है; ‘शीतलहर’- यदि विचलन सामान्य से -4 ° C से -5 ° C हो, और गंभीर शीतलहर- विचलन सामान्य से -6 ° C या उससे कम ो।
  • जब WCTn 0°C या उस से कम है, तो स्टेशन के सामान्य न्यूनतम तापमान के बावजूद शीतलहर को घोषित किया जाना चाहिए। हालांकि, यह मानदंड उन स्टेशनों के लिए लागू नहीं है, जिनका सामान्य न्यूनतम तापमान 0°C से नीचे है।

 

तटीय केंद्रों/स्टेशनों के लिए शीतलहर की स्थिति:

 

तटीय स्टेशनों में शायद ही कभी 10°C न्यूनतम तापमान सीमा का मान पहुंचा होगा। हालाँकि, स्थानीय लोगों को विंड चिल फैक्टर के कारण असुविधा महसूस होती है, जो वायु की गति के आधार पर न्यूनतम तापमान को कुछ डिग्री कम कर देता है। तटीय स्टेशनों के लिए, “कोल्ड डे” अवधारणा का उपयोग निम्नलिखित मानदंडों के आधार पर किया जा सकता है:

  • एक स्टेशन के वास्तविक न्यूनतम तापमान को WCTn तक कम किया जाना चाहिए।
  • इस WCTn का उपयोग “शीतलहर” या “शीतदिवस” ​​घोषित करने के लिए किया जाना चाहिए।
  • जब न्यूनतम तापमान विचलन -5°C या उससे कम हो, तो 10°C के सीमा मान के बावजूद “शीत दिवस” घोषित किया जा सकता है।
  • हालांकि, 10 डिग्री की सीमा तक पहुंचने पर शीतलहर घोषित कर दिया जाना चाहिए
  • जब कोई स्टेशन शीतलहर और शीतदिवस, दोनों मानदंडों को पूरा करता है, तो शीतलहर घोषित कर दी जानी चाहिए।

 

NDMA द्वारा दिशा निर्देश:
  • दिशा-निर्देश
    • शीत लहरें: लोगों के लिए शमन उपाय
    • शीत लहरें: फसलों और जानवरों के लिए शमन उपाय

 

शीत लहरें: लोगों के लिए शमन/राहत उपाय राज्य सरकारों को भारत मौसम विज्ञान विभाग (MOES) (IMD) के साथ घनिष्ठ समन्वय बनाए रखना चाहिए, और शीतलहर की स्थिति की बारीकी से निगरानी करनी चाहिए। नियमित आधार पर उपयुक्त मंचों (स्थानीय समाचार पत्रों और रेडियो स्टेशनों सहित) के माध्यम से जनता को चेतावनी प्रसारित की जानी चाहिए। निम्नलिखित शमन उपायों में से कुछ नीचे दिये गए हैं:

· जितना हो सके घर के अंदर रहें

· मौसम की नियमित जानकारी के लिए स्थानीय रेडियो स्टेशनों को सुनें

· शरीर को गर्मी प्रदान करने के लिए स्वस्थ खाद्द्य पदार्थों का सेवन करें और निर्जलीकरण से बचने के लिए गैरमादक पेय का सेवन करें

· भारी कपड़ों की एक परत के बजाए, हल्के और गर्म कपड़ों की कई परतें पहनें। बाहरी कपड़ों को कस कर बुना जाना चाहिए और जलरोधक होना चाहिए।

· स्वयं को सूखा रखें। शरीर की गर्मी के नुकसान को रोकने के लिए अक्सर गीले कपड़े बदलें।

· जहरीले धुएं से बचने के लिए मिट्टी के तेल, हीटर या कोयले के ओवन का उपयोग करते समय उचित वेंटिलेशन बनाए रखें।

· ताप व्यवस्था की अनुपलब्धता के मामले में, सार्वजनिक स्थानों पर जाएं जहां प्रशासन द्वारा हीटिंग की व्यवस्था की जाती है।

· अपने सिर को ढँक लें, क्योंकि शरीर की अधिकांश गर्मी सिर के ऊपर से होकर गुज़रती है, और अपने फेफड़ों को बचाने के लिए अपने मुँह को ढँक लें।

· अधिक काम से बचें। अधिक परिश्रम से दिल की धड़कन बढ़ सकती है।

· शीत दंश के संकेतों पर ध्यान दें: उंगलियों, पैर की उंगलियों, कान की लोब और नाक की नोक पर सफेद और पीला दिखाई देना।

· हाइपोथर्मिया (शरीर के असामान्य तापमान) के संकेतों के लिए देखें: अनियंत्रित कंपकंपी, स्मृति हानि, भटकाव, असावधानी, भाषण, उनींदापन और थकावट। तुरंत चिकित्सा के लिए नजदीकी अस्पताल ले जाएं।

· शीतलहर से पहले भोजन, पानी और अन्य आवश्यकताओं का भंडारण

· पशुधन के लिए शीतलहरों से पहले उपयुक्त चारा का भंडारण

· शीतदंश और हाइपोथर्मिया के पीड़ितों के लिए अस्पतालों तक त्वरित पहुंच की सुविधा

 

 

 

शीत लहरें : फसलों और जानवरों के लिए शमन/राहत उपाय

 

· किसानों को जरूरत के अनुसार हल्की सिंचाई करनी चाहिए , नुकसान पहुंचाने वाली शाखाओं की तुरंत काट-छांट कर देनी चाहिए , ड्रिप सिंचाई करने के सुझाव दिए जाने चाहिए, धुआँ उत्पन्न करने वाले पत्तियों/अपशिष्ट पदार्थों को बगीचे में जलाएं, और स्प्रे के माध्यम से उर्वरक की अतिरिक्त खुराक देना, मृत सामग्री की छंटाई के माध्यम से क्षतिग्रस्त फसलों के कायाकल्प का प्रबंधन किया जाना।

· कमजोर फसलों पर पानी का छिड़काव किया जा सकता है, जो ठंड के प्रतिकूल आसपास की हवा से ठंड को अवशोषित कर के पौधों की रक्षा करेगा।

· जानवरों की देखभाल में विशेषज्ञता रखने वाली एजेंसियों को जानवरों की देखभाल और सुरक्षा के लिए आवश्यक सलाह और सहायता प्रदान करनी चाहिए।

· शीत लहर की स्थिति में, पशुओं को मृत्यु से बचाने के लिए उचित चारा देना चाहिए। पशुओं को खिलाने के लिए शीत लहर से पहले उपयुक्त चारा भंडारण करना चाहिए।

· अत्यधिक ठंड में जानवरों को नहीं छोड़ना चाहिए।

 

ग्रीष्म लहर:

 

  • ग्रीष्म लहर असामान्य रूप से उच्च तापमान की वह स्थिति है, जो शारीरिक दबाव का कारण बन कर कभी-कभी जानलेवा भी साबित हो सकता है।
  • विश्व मौसम विज्ञान संगठन एक ग्रीष्म लहर को पांच दिन या लगातार उससे अधिक दिनों के रूप में परिभाषित करता है, जिसमें अधिकतम दैनिक तापमान औसत 5 डिग्री सेल्सियस से अधिक होता है।
  • ग्रीष्म लहरें आमतौर पर मार्च और जून के बीच में चलती हैं, और कभी-कभी बढ़कर जुलाई तक भी चला करती हैं। भारत की गंगा के मैदानी इलाकों में ग्रीष्म लहरें अधिक चलती हैं।.
  • देश के उत्तरी भागो में हर साल औसतन 5-6 ग्रीष्म लहर की घटनाएं होती हैं। देश के उत्तरी मैदानी इलाकों में, निलंबनकारी धूल कणक कई दिनों तक रहतें हैं, जिससे न्यूनतम तापमान सामान्य से बहुत अधिक हो जाता है, और अधिकतम तापमान सामान्य से अधिक या आसपास रहता है।
  • IMD के अनुसार, भारत में, यदि किसी क्षेत्र का अधिकतम तापमान मैदानी इलाकों में कम से कम 40°C या उससे अधिक, तटीय क्षेत्रों में 37°C या इससे अधिक तक पहुँच जाए और पहाड़ी क्षेत्रों में 30°C या अधिक पहुंच जाए, तो ग्रीष्म लहर के रूप में माना जाएगा।
  • उच्च दैनिक अधिकतम तापमान और ग्रीष्म लहरें, जलवायु परिवर्तन के कारण वैश्विक स्तर पर लगातार बढ़ती जा रही हैं, भारत भी ग्रीष्म लहरों के संदर्भ में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को महसूस कर रहा है, जो साल दर साल प्रकृति में चरम होते जा रहे हैं, और मानव स्वास्थ्य पर विनाशकारी प्रभाव डाल रहे हैं, जिससे ग्रीष्म लहर द्वारा होने वाली आपदाओं की संख्या में बढ़ोतरी होती है।
  • ग्रीष्म लहर के स्वास्थ्य प्रभावों में आमतौर पर निर्जलीकरण, ऐंठन, थकावट या ऊष्माघात (हीटस्ट्रोक) शामिल होते हैं।

संकेत और लक्षण निम्लिखित हैं:
  • गर्मी से ऐंठन (Heat Cramps): एडिमा (सूजन) और सिंकैप (बेहोशी) आमतौर पर 39 डिग्री सेल्सियस से नीचे बुखार के साथ
  • गर्मी से थकान (Heat Exhaustion): थकान, कमजोरी, चक्कर आना, सिरदर्द, मतली, उल्टी, मांसपेशियों में ऐंठन और पसीना
  • हीटस्ट्रोक: अचेतना, दौरे या कोमा के साथ-साथ 40°C या उससे अधिक शारीरिक तापमान, जो संभवत: जानलेवा हो सकता है।

 

ग्रीष्म लहर: क्षमता निर्माण

  • पर्यवेक्षण नेटवर्क, सूचना प्रणाली, निगरानी, ​​अनुसंधान, पूर्वानुमान, प्रारंभिक चेतावनी और ज़ोनिंग/मैपिंग:
    • सुभेद्यता का आकलन और हिट हेल्थ थ्रेशोल्ड तापमान की स्थापना
    • ग्रीष्म लहर चेतावनी के लिए थ्रेसहोल्ड हेतु आवश्यक तापमान, आर्द्रता, आदि के लिए निगरानी और डेटा लॉगिंग सिस्टम को बनाए रखना और मजबूत करना
    • चेतावनी साझा करने के लिए समुदायआधारित नेटवर्क की स्थापना और रखरखाव।
    • राज्य/संघराज्य क्षेत्र के लिए उपयुक्त थ्रेसहोल्ड के अनुसार चेतावनी को संशोधित या अपने अनुसार बनाना।
  • चेतावनी, डेटा और सूचना का प्रसार:
    • जागरूकता, निवारक उपाय बनाएँ जाये।
    • प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया के माध्यम से जागरूकता फैलाने के लिए व्यापक IEC अभियान
    • बुजुर्ग, छोटे बच्चों, बाहरी श्रमिकों और झुग्गी निवासियों, जैसे अत्यधिक कमजोर समूहों के लिए विशिष्ट संदेश
  • अंतरएजेंसी समन्वय:
    • सुनिश्चित करना कि स्थानीय प्रशासन (शहर/जिला) केंद्र और राज्य की विभिन्न एजेंसियों और स्वास्थ्य अधिकारियों से ग्रीष्म लहर संबंधी सभी जानकारी को समझ कर उसका सार्थक रूप से उपयोग करें
    • टीम का गठन और समन्वय – सुनिश्चित करें, कि अधिकारी और एजेंसियां ​​ग्रीष्म-लहर वाले मौसम से निपटने के लिए अच्छी तरह से तैयार हैं या नहीं
    • सूखे की गंभीरता के आधार पर पूर्वानुमान, पूर्व चेतावनी और चेतावनी प्रणाली के बारे में IMD के साथ समन्वय करना
    • एक राज्य नोडल एजेंसी और अधिकारी नियुक्त करना
    • ग्रीष्म लहर एक्शन प्लान तैयार करना/अपनाना
    • राज्य में विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार कार्यान्वयन
    • प्रमुख स्थानों में प्राथमिक चिकित्सा (first-aid)/चिकित्सा सहायता सुविधाओं की स्थापना
    • भेद्य स्थानों की पहचान करना और उन स्थानों और कार्यस्थलों पर ORS के साथ पीने योग्य जल की सुविधा प्रदान करना
    • घर से बाहर खेले जाने वाले खेलों/खेल गतिविधियों से बचना
    • गर्म मौसम के दौरान मवेशियों की सुरक्षा की तैयारी – यह सुनिश्चित करना कि गर्म दिनों में मवेशियों को पर्याप्त छाया और पानी उपलब्ध कराया जा सके ।
  • चेतावनी, सूचना, डेटा:
    • चेतावनी का प्रसार करते हुए, दूरस्थ ग्रामीण या शहरी; जोखिम वाले क्षेत्रों में लोगों को नियमित अपडेट देना
    • ग्रीष्म लहर के दौरान क्या करें और क्या नहीं (डूएंडडोनट्स)” स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध होना चाहिए, और मीडिया के माध्यम से प्रसारित किया जाना चाहिए।
  • ग्रीष्म लहर (heat wave) के लिए आश्रय और अन्य उपाय:
    • चिकित्सा सहायता सुविधाओं के नेटवर्क को मजबूत करना और मुख्यधारा में लाना
    • तापमान का पूर्वानुमान और मोबाइल फोन, स्थानीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर बल्क संदेशों के रूप में हीट अलर्ट भेजे जाने चाहिए
    • व्यस्त ट्रैफ़िक चौराहों और बाज़ार स्थानों पर इलेक्ट्रॉनिक स्क्रीन लगाना
    • प्रभावी परिवहन

जागरूकता पैदा करना:

  • जागरूकता, सतर्कता और तैयारियों को बढ़ावा देना
  • लोगों, PRI / ULBs के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम
  • हीट-वेव प्रवण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर मीडिया अभियान चलाना
  • गर्मी की लहरों के साथ मुकाबला करने के बारे में जागरूकता पैदा करना
  • महिलाओं, समुदाय (जो हाशिए पर हैं), SC/ST और दिव्यांगों को सशक्त बनाना:
  • ग्रीष्म लहर से संबंधित आपात स्थितियों का मुकाबला करने के लिए क्षमता विकास में लैंगिक संवेदनशीलता और न्यायसंगत दृष्टिकोण को शामिल करना।

बाढ़:

 

  • बाढ़ की घटना अपेक्षाकृत कम होती है, और यह प्रायः निर्धारित क्षेत्रों में और एक वर्ष में अपेक्षित समय के भीतर हीं होती है।
  • बाढ़ की घटना आमतौर पर तब होती है, जब जल, नदी चैनलों की वहन क्षमता से अधिक हो जाता है, और सतही अपवाह के रूप में प्रवाहित होता है तथा समीप के निचले इलाकों में प्रवाहित होने लगता है।
  • कभी-कभी यह झीलों और अंतःस्थलीय जल निकायों की क्षमता से भी अधिक हो जाता है, जिसमें वह प्रवाहित होता है।
  • बाढ़- तूफान, अधिक समय के लिए उच्च तीव्रता वाली बारिश, बर्फ के पिघलने से, रिसने की दर में कमी और मिट्टी के कटाव की उच्च दर के कारण पानी में अपरदित पदार्थों की उपस्थिति के कारण भी हो सकता है।
  • अन्य प्राकृतिक आपदाओं के विपरीत, मानव बाढ़ की उत्पत्ति और प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अंधाधुंध वनों की कटाई, अवैज्ञानिक कृषि पद्धति, प्राकृतिक जल निकासी चैनलों के साथ गड़बड़ी/छेड़छाड़ और बाढ़क्षेत्र और नदीतलों के उपनिवेशण (colonisation), कुछ मानवीय गतिविधियां हैं, जो बाढ़ की भयावहता और तीव्रता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
  • भारत के विभिन्न राज्यों में आवर्ती बाढ़ के कारण जान-माल की भारी हानि होती है।
  • राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने भारत में 40 मिलियन हेक्टेयर भूमि को बाढ़ प्रभावित भूमि के रूप में चिन्हित किया है।
  • असम, पश्चिम बंगाल और बिहार उच्च बाढ़ प्रभावित राज्यों में से हैं।
  • इनके अलावा, उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे उत्तरी राज्यों की अधिकांश नदियाँ भी लगातार बाढ़ की चपेट में हैं।
  • राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और पंजाब जैसे राज्य भी हाल के वर्षों में बाढ़ की वजह से जलमग्न हो रहे हैं। यह आंशिक रूप से मानसून के पैटर्न के कारण ,और मानव गतिविधियों द्वारा अधिकांश धाराओं और नदियों के अवरुद्ध होने के कारण हो रहा है।
  • मानसून के निवर्तन के कारण कभीकभी तमिलनाडु में नवंबरजनवरी के माह में बाढ़ आती है।

बाढ़: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) द्वारा दिशा निर्देश

  • अवलोकन (observation) नेटवर्क, सूचना प्रणाली, निगरानी, अनुसंधान, पूर्वानुमान और प्रारंभिक चेतावनी:
  • एक सटीक रूपरेखा और बाढ़ भेद्यता मानचित्र तैयार करना
  • नदी बेसिन के आधार पर बाढ़-पूर्वानुमान और चेतावनी प्रणाली का आधुनिकीकरण करना
  • प्राथमिक बाढ़ सुरक्षा और जल-निकासी सुधार कार्यों की पहचान में राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों की सहायता
  • बाढ़ से जुड़ी तैयारी, नदी बेसिन और जलाशय प्रबंधन योजनाओं की निगरानी
  • पड़ोसी देशों से बहने वाली नदियों का अध्ययन और निगरानी
  • पूर्वानुमान और सीमा पार मुद्दों के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से संबंधित अध्ययन
  • नेपाल, भूटान और चीन से बहने वाली महत्वपूर्ण नदियों पर जल-मौसम संबंधी आंकड़ों के रियलटाईम संग्रह के लिए योजनाओं का कार्यान्वयन
  • विभिन्न प्रकार की बाढ़ और बाढ़ के कारणों के लिए विशेष प्रयास करना, जिसमें बादल फटने की घटना भी शामिल हैं
  • बांधों के प्रवाह और भंडारण की मात्रा के परिमाणन के लिए पूर्वानुमान विधियों का विकास / सुधार और अद्यतन करना।

 

बाढ़ प्रवण क्षेत्रों ज़ोनिंग, प्रतिचित्रण और वर्गीकरण:

  • बाढ़ प्रवण क्षेत्रों का संकट संबंधित नक्शा तैयार करना और उच्च भेद्यता वाले क्षेत्रों की पहचान करना।

 

अनुसंधान और विकास:

  • बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में लोगों के लिए सहायता/समर्थन प्रणालियों पर अध्ययन
  • बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में आश्रयों के लिए डिजाइन तैयार करना
  • बाढ़ का सामाजिकआर्थिक प्रभाव
  • नदी बेसिन का अध्ययन
  • नदियों में बाढ़, तलछट का क्षरण, नदी के प्रवाह में परिवर्तन और तटबंधों के अनुचित उपयोग के कारण बाढ़ संबंधी समस्याओं पर अध्ययन
  • अनुसंधान और अध्ययन को बढ़ावा देना – शोधकर्ताओं और संस्थानों को, आंतरिक (in-house) और बाह्य दोनों के लिए अनुसंधान अनुदान प्रदान करना
  • बाढ़ नियंत्रण या रोकथाम के उपाय करने से पहले जलविज्ञान (हाइड्रोलॉजिकल) और रूपात्मक/आकृतिक अध्ययन।

 

चेतावनी, डेटा और सूचना का प्रसार:

  • केंद्रीय और राज्य एजेंसियों के बीच त्वरित, स्पष्ट और प्रभावी प्रसार
  • आवश्यक संचार उपकरणों के वितरण, अंतिम मील कनेक्टिविटी और आपदा जोखिम की जानकारी तक पहुंच को सुगम बनाना
  • पड़ोसी देशों से बहने वाली नदियों के बारे में चेतावनी साझा करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग
  • केंद्रीय और राज्य एजेंसियों के बीच डेटा और सूचना साझा करने के लिए विश्वसनीय नेटवर्किंग प्रणाली को बढ़ावा देना
  • नदियों में रुकावटों और भूस्खलन की निगरानी
  • चेतावनी प्रणाली
  • सभी संभव तरीकों और सभी प्रकार के माध्यमों का उपयोग करके जानकारी प्रदान करना
  • चेतावनी के लिए मोबाइल नेटवर्क सेवा प्रदाताओं के साथ अंतराफलक (interface)
  • अंतरएजेंसी समन्वय:
  • चेतावनी, सूचना और डेटा के त्वरित, स्पष्ट और प्रभावी प्रसार को सुनिश्चित करने के लिए केंद्रीय और राज्य एजेंसियों के बीच प्रभावी समन्वय और निर्बाध संचार
  • संरचनात्मक उपाय:
  • बाढ़ नियंत्रण के उपाय, जैसे तटबंधों और लेवी (levee) का निर्माण।
  • सड़कों, राजमार्गों और एक्सप्रेसवे के लिए जलमार्ग और जल निकासी प्रणालियों का उचित संरेखण और अभिकल्पन (designing)
  • बांधों और जलाशयों की सुरक्षा बढ़ाना
  • प्रवाह को बेहतर बनाने के लिए नदियों का विगादन/तलकर्षण (Desilting/dredging) ;जल निकासी में सुधार; मौजूदा या नए चैनलों के माध्यम से बाढ़ के पानी का व्यपवर्तन
  • सभी महत्वपूर्ण संरचनाओं और महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे का जोखिम प्रतिरोधी निर्माण, सुदृढ़ीकरण, और पुनःसंयोजन
  • जागरूकता पैदा करना:
  • बड़े पैमाने पर मीडिया अभियान चलाना
  • आपदा जोखिम निवारण, शमन और जोखिम प्रबंधन की संस्कृति को बढ़ावा देना
  • जागरूकता अभियानों/IEC में व्यवहारिक परिवर्तन को बढ़ावा देना
  • DRR और DM के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए नागरिक समाज संगठन (civil society organization) के नेटवर्क को मजबूत करना
  • बीमा/जोखिम हस्तांतरण को बढ़ावा देना
  • सामुदायिक रेडियो को बढ़ावा देन
  • मॉक अभ्यास (mock drill):
  • सभी मंत्रालयों और सभी राज्यों/केंद्र-शासित प्रदेशों द्वारा आपातकालीन अभ्यासों की योजना और निष्पादन को बढ़ावा देना
  • व्यावसायिक प्रशिक्षण/कौशल विकास:
  • विभिन्न प्रकार के आवास और बुनियादी ढांचे के लिए बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में बहु-जोखिम प्रतिरोधी निर्माण के लिए कौशल विकास को बढ़ावा देना।
  • महिलाओं, समुदाय (जो हाशिए पर हैं) और दिव्यांगों को सशक्त बनाना:
  • आपदा प्रबंधन के सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए क्षमता विकास में लैंगिक संवेदनशीलता और न्यायसंगत दृष्टिकोण को शामिल करना।
  • समुदायआधारित आपदा प्रबंधन
  • PRI, SHG, NCC, NSS, युवा, स्थानीय सामुदायिक संगठनों के लिए प्रशिक्षण
  • समुदायों की आपदाओं का प्रबंधन और सामना करने की क्षमता को मजबूत करना, जो कि बहु-खतरे (multi-hazard) वाले दृष्टिकोण पर आधारित होना चाहिए।

 

सूखा:

  • सूखे के लिए वैश्विक रूप से अपनाई जाने वाली कोई प्रचलित परिभाषा नहीं है, जो सभी संदर्भों पर लागू होती हो।
  • यह इस बात का प्राथमिक कारण है, कि नीति निर्माता, संसाधन नियोजक, और अन्य निर्णय लेने वालों के साथ-साथ प्रशासकों को भी अन्य आपदाओं की तुलना में, सूखे की पहचान करने और योजना बनाने में काफी कठिनाई होती है।
  • वैश्विक आकलन रिपोर्ट (GAR) 2015 के अनुसार, कृषि सूखा (agriculture drought) सभी आपदा जोखिमों (UNISDR 2015) में संभवतः सबसे अधिक “सामाजिक रूप से निर्मित” जोखिम है और यह रिपोर्ट यह भी चेतावनी देती है, कि वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण इसकी आवृत्ति में अत्यधिक परिवर्तन होने की उम्मीद है।
  • सूखे की शुरुआत के बारे में निर्धारित करने हेतु प्रचलित परिभाषाएं कुछ इस तरह से हैं- औसत वर्षा या कुछ अन्य जलवायु चर से लंबी अवधि (आमतौर पर कम से कम 30 साल) की विचलन की स्थिति।
  • मोटे तौर पर सूखे को पानी की कमी के रूप में जाना जाता है, जो प्राकृतिक जलमेट्रोलॉजिकल कारकों, कृषिपारिस्थितिक स्थितियों, और वर्तमान फसल विकल्पों (प्रणाली, पैटर्न) के तहत फसलों की नमी की आवश्यकताओं में भिन्नता के कारण होता है।
  • WMO सूखे को एक प्राकृतिक खतरे के रूप में मानता है, जो प्राकृतिक जलवायु में परिवर्तन के कारण खंडों में घटित होता है।
  • हाल के वर्षों में, दुनिया भर में यह चिंता बढ़ी है, कि जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे की आवृत्ति में संभावित वृद्धि हो रही है।
  • संकट प्रबंधन के संदर्भ में, दुनिया के अधिकांश हिस्सों में सूखा से निपटने की योजनाएं उतनी बेहतर नहीं है। वैचारिक रूप से, सूखे को लंबी अवधि के लिए वर्षा की कमी के रूप में जाना जाता है, जिसके परिणामस्वरूप पानी की कमी, बड़े पैमाने पर फसलों‌ की क्षति होती है , और उपज का नुकसान भी होता है।
  • सूखा, देश के विभिन्न क्षेत्रों (विभिन्न राज्यों में) को प्रभावित करता है। देश का एकतिहाई हिस्सा सूखा से प्रभावित है। लोगों की आजीविका और छोटे बच्चों के पोषण पर इसका व्यापक असर होता है।
  • यह राजस्थान के कुछ हिस्सों (कालानुक्रमिक), गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश (MP), उत्तर प्रदेश (UP), छत्तीसगढ़, झारखंड और आंध्र प्रदेश को भी प्रभावित करता है।
  • सूखा प्रभावित क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
  • सूखा को क्रीपिंग आपदा के रूप में संदर्भित किया जाता है जिसके प्रभाव काफी लंबे समय तक बने रहते हैं।
  • सूखा के परिणाम धीरे-धीरे सामने आते हैं और लंबे समय तक आपदा के रूप में बने रहते हैं।
  • इसके प्रभाव प्राकृतिक स्थिति, सामाजिक आर्थिक स्थिति एवं भूमि और जल संसाधनों की उपलब्धता पर निर्भर करते हैं।
  • सामान्यत:, सूखा प्राकृतिक जलवायुवीय कारको पर निर्भर करता है और इसकी उपस्थिति के विभिन्न पैटर्न होते हैं।
  • सामान्यता सूखा, शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में बार बार देखने को मिलता है लेकिन यह पर्याप्त वर्षा वाले नम क्षेत्रों में भी हो सकता है।
  • इसके प्रभाव से निपटने की क्षमता तकनीकी, संस्थागत, राजनीतिक एवं सामाजिक प्रणाली के साथ-साथ जल की उपलब्धता एवं सूखे की स्थिति पर निर्भर करती है।
  • सूखे को भुखमरी की स्थिति में तब्दील होने से बचाने के लिए प्रभावी रोकथाम उपाय अपनाना आवश्यक होता है क्योंकि इससे जल एवं खाद्य पदार्थों का संकट आ जाता है। सूखा काफी लंबे समय तक रहने वाले शुष्क मौसम का परिणाम होता है।

 

भारत में राष्ट्रीय कृषि आयोग ने तीन प्रकार के सूखा की व्याख्या की है :

 

मौसमी सूखा (Meteorological drought) किसी क्षेत्र में लंबे समय तक औसत वार्षिक वर्षा में 25% से अधिक की कमी आना।
कृषि सूखा (Agricultural drought) फसलों की सामान्य वृद्धि हेतु अपर्याप्त वर्षा एवं मृदा में नमी की अपर्याप्त मात्रा।
जलीय सूखा (Hydrological drought) लंबे समय तक मौसमी सूखा रहने के परिणाम स्वरूप सतह एवं भूमि के जल संसाधनों में जल की कमी हो जाना। औसत वर्षा में कमी आने एवं सरफेस वाटर होल्डिंग कैपेसिटी में कमी आने से इस प्रकार की स्थिति विकसित होती है।

 

IMD ने 5 सूखा स्थितियों की पहचान की है:

 

  • सूखा सप्ताह (‘Drought Week’)-जब साप्ताहिक वर्षा, सामान्य वर्षा से आधे से भी कम होती है।
  • कृषि सूखा (‘Agricultural Drought’)-मध्य जून से सितंबर के बीच जब लगातार 4 सप्ताह तक सूखा की स्थिति रहती है।
  • मौसमी सूखा (‘Seasonal Drought’)- जब मौसमी वर्षा, सामान्य वर्षा से निर्धारित मानदंडों से भी काफी कम होती है।
  • सूखा बर्ष (‘Drought Year’)-जब वार्षिक वर्षा सामान्य वर्षा से 20% या इससे अधिक कम होती है।
  • गंभीर सूखा वर्ष (‘Severe Drought Year’)-जब वार्षिक वर्षा सामान्य वर्षा से 25 से 40% तक कम होती है।

सूखे के प्रबंधन पर NDMA द्वारा निर्धारित दिशानिर्देश में इस बात पर जोर दिया गया है कि कई कारकों के आधार पर सूखे को वर्गीकृत करने के लिए एक बहु-मानदंड सूचकांक विकसित करने की आवश्यकता है:

  • मौसमी (वर्षा एवं तापमान इत्यादि.)
  • मृदा स्थिति (गहराई, प्रकार एवं उपलब्ध जल की मात्रा इत्यादि)
  • सतही जल उपयोग (सिंचित क्षेत्र का अनुपात, सतही जल की आपूर्ति इत्यादि)
  • भूमिगत जल (उपलब्धता एवं उपयोग इत्यादि)
  • फसल (फसल प्रतिरूप में परिवर्तन, भूमि उपयोग, फसल स्थिति एवं फसल स्थिति में बदलाव इत्यादि)
  • सामाजिक आर्थिक (कमजोर समुदाय का अनुपात, गरीबी एवं भूमि जोत का आकार इत्यादि)

 

Droughts: 68% of agricultural land and 30% of total land in India is drought prone

 

सूखा: NDMA के दिशा निर्देश

 

सुभेद्यता मैपिंग ( Vulnerability mapping):

  • मानसून की निर्णायक स्थिति (उदाहरण के लिए प्रारंभ, मध्य एवं अंत में) पर SW और NE मानसून के लिए अलग-अलग प्रासंगिक क्षेत्रों में वर्षा की कमी वाले क्षेत्रों की मैपिंग करना।
  • SW और NE मानसून के अंत में प्रत्येक वर्ष शुष्क भूमि कृषि, वर्षा आधारित कृषि एवं सूखा संवेदनशील क्षेत्र में जल की कमी का समग्र आकलन करना।
  • SW और NE मानसून के अंत में प्रासंगिक क्षेत्रों के लिए पृथक रूप से कृषि जलवायु क्षेत्र आधारित जल की कमी का आकलन करना।
  • संवेदनशीलता मैप को तैयार करने में राज्य सरकार/SDMC को तकनीकी सहायता प्रदान करना।

 

आकलन, निगरानी, ​​पूर्वानुमान, पूर्व चेतावनी

 

  • शुष्क, अर्ध शुष्क, सूखा संवेदनशील एवं शुष्क कृषि भूमि क्षेत्रों में जल की कमी का आकलन (उपलब्धता एवं आवश्यकता के बीच अंतर का पता लगाना) करना।
  • प्रत्येक राज्य एवं संघ शासित क्षेत्र में जल की कमी एवं सूखा की स्थिति के आधार पर विशेषज्ञों से सलाह लेकर जल संरक्षण एवं फसल प्रबंधन उपायों पर विस्तृत निर्देश तैयार करना।
  • सूखा प्रबंधन पर राष्ट्रीय मैनुअल के अनुसार राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर प्रमुख सूखा सूचकांकों की मॉनिटरिंग करना।
  • प्रत्येक कृषि जलवायु क्षेत्र के लिए प्रासंगिक सूखा सूचकों का समग्र सूचकांक विकसित करना।
  • कृषि-जलवायु क्षेत्रों पर विचार करते हुए सूखे के पूर्वानुमान हेतु मानकीकृत ढांचे के रूप में विभिन्न सूचकांकों (वनस्पति, मिट्टी, पानी की उपलब्धता आदि) के आधार पर एक बहु-मापदंड विधि विकसित करना।

 

सूखा की घोषणा:

  • उपयुक्त एजेंसी की नवीनतम सिफारिशों के अनुसार, सूखे की स्थिति और प्रमुख संकेतकों के मूल्यांकन के लिए नवीनतम (सबसे अद्यतन) मानदंड और तरीके लागू करना।
  • सूखे की मॉनिटरिंग एवं घोषणा के लिए राज्य सरकार एवं इसकी एजेंसियों के साथ विचार विमर्श करना।
  • यदि आवश्यक हो तो SW और NE मानसून के अंत में, SW मानसून वाले राज्यों के लिए अक्टूबर के अंत में एवं NE मानसून के अंतर्गत शामिल राज्यों के लिए मार्च के अंत में ,सूखा से संबंधित दिशा निर्देश प्रदान करने चाहिए।

 

अनुसंधान:

  • शुष्क, अर्ध शुष्क एवं शुष्क भूमि कृषि क्षेत्र में कृषि अनुसंधान को बढ़ावा देना चाहिए।
  • जल संरक्षण एवं प्रबंधन से संबंधित अनुसंधान को बढ़ावा देना।

अंतर एजेंसी समन्वय (Inter-agency coordination):

  • चेतावनी, जानकारी एवं डाटा के तीव्र एवं प्रभावी उपयोग को सुनिश्चित करने हेतु राज्य एवं केंद्र की एजेंसियों के बीच समन्वय होना आवश्यक है।

 

संरचनात्मक उपाय:

  • सूखा प्रभावित क्षेत्रों में जल संरक्षण संरचनाओं, एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन और पेयजल भंडारण, वर्षा जल संचयन और भंडारण सुनिश्चित करने के साथ वितरण सुविधाओं को मजबूत बनाना।

 

गैर संरचनात्मक उपाय:

  • जल दक्षता वाली सिंचाई प्रणाली को प्रोत्साहित करना ( स्प्रिंकलर एवं ड्रिप सिंचाई इत्यादि)
  • माइक्रो सिंचाई प्रणाली के अंतर्गत संरक्षण सिंचाई को प्रोत्साहित करना।
  • सूखा की स्थिति में किसानों को प्रभावी जल प्रबंधन, फसल प्रबंधन इत्यादि के संदर्भ में सलाह प्रदान करना।
  • जल एवं मृदा नमी संरक्षण में प्रशिक्षण प्रदान करना ।
  • प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के लिए गांव आधारित सूचना प्रणाली को प्रोत्साहित करना ।

 

कृषि ऋण, कृषि आगत, वित्त, बाजार एवं फसल बीमा:

  • सूखा संवेदनशील क्षेत्रों के लिए प्रासंगिक ऋण एवं वित्त सुविधा प्रदान करना।
  • कृषि बीमा कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ किसानों को कृषि बीमा उत्पादों के बारे में जानकारी उपलब्ध कराना।
  • शुष्क-भूमि / वर्षा आधारित किसानों के लिए जोखिम कवर सुनिश्चित करना, जो बहुत अधिक वर्षा अनिश्चितता का सामना करते हैं।

 

सूखा प्रबंधन योजना:

  • कृषि जलवायु क्षेत्रों को ध्यान में रखते हुए सूखा संवेदनशील क्षेत्रों के लिए सूखा प्रबंधन योजना तैयार करना।
  • सूखा एवं जल की कमी का सामना करने वाले राज्य के लिए दिशा निर्देश प्रदान करना।

 

जागरूकता अभियान (Awareness Generation):

  • व्यापक स्तर पर मीडिया अभियान करना चाहिए।
  • आपदा जोखिम निवारण, शमन और जोखिम प्रबंधन की संस्कृति को बढ़ावा देना ।
  • जागरूकता अभियानों के माध्यम से प्रवृत्ति एवं व्यवहार में परिवर्तन को प्रोत्साहित करना चाहिए।
  • DRR और DM के बारे में जागरुकता का प्रसार करने के लिए नागरिक समाज संगठन को मजबूत करना चाहिए।
  • बीमा/जोखिम हस्तांतरण के उपयोग को प्रोत्साहन देना चाहिए।
  • सामुदायिक रेडियो को प्रोत्साहन देना चाहिए।

महिलाओं, वंचित समुदायों एवं दिव्यांगों को सशक्त बनाना:

  • आपदा प्रबंधन के सभी आयामों में क्षमता विकास हेतु लिंग संवेदनशीलता एवं समान दृष्टिकोण को ध्यान में रखना चाहिए।

भूस्खलन (Landslides):

 

  • भूस्खलन की घटना भारत के हिमालय एवं उत्तर पूर्वी राज्य, नीलगिरी पहाड़ियों, पूर्वी घाट एवं पश्चिमी घाट में देखने को मिलती है।
  • विश्व की लगभग 30% भूस्खलन की घटनाएं हिमालय रेंज में होती हैं।
  • युवा हिमालय पर्वत एकल स्तरीय नहीं है बल्कि इसमें 7 समानांतर फोल्ड लगभग 3,400 किलोमीटर तक फैले हुए हैं।
  • पश्चिमी घाट में भूस्खलन एक सामान्य घटना है। 1978 में नीलगिरी पहाड़ियों में अनिश्चित वर्षा के कारण होने वाली भूस्खलन की घटना के कारण संचार तारों, चाय के बागानों के साथ फसलों का व्यापक स्तर पर नुकसान हुआ।
  • हिमालय क्षेत्र में उत्तरी सिक्किम एवं गढ़वाल क्षेत्र में किए गए वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार इस क्षेत्र में प्रति वर्ग किलोमीटर में औसतन दो भूस्खलन देखने को मिलते हैं।
  • भूमि के नुकसान की औसत दर 120 मीटर प्रति किमी प्रति वर्ष है और वार्षिक मिट्टी का नुकसान लगभग 2500 टन प्रति वर्ग किमी है।
  • भूस्खलन एक प्रमुख एवं विस्तृत प्राकृतिक आपदा है जिससे व्यापक स्तर पर जन-धन की हानि होती है।
  • एक अनुमान के अनुसारविभिन्नविकासशीलदेशोंमेंभूस्खलनसेकुलसकलराष्ट्रीयउत्पादमें 1-2% तककीहानिहोतीहै।.
  • विकासशीलदेशोंमेंभूस्खलनसेहोनेवालेनुकसानकोरोकनानीतिनिर्माताओंएवंटेक्नीशियनकेलिएचुनौतीपूर्णमुद्दाबनाहुआहै।
  • भारतमेंलगभग42 मिलियनवर्गकिमीया 12.6% भूमिक्षेत्र(बर्फसेढकेक्षेत्रकोछोड़कर) भूस्खलनकेखतरेसेग्रस्तहै।इसमेंसे0.18 मिलियनवर्गकिमीक्षेत्रउत्तरपूर्वीहिमालयमेंजिसमेंदार्जिलिंगएवंसिक्किमहिमालयनशामिलहै, 0.14 मिलियनवर्गकिमीक्षेत्रउत्तरपश्चिमीहिमालय(उत्तराखंड,हिमाचलप्रदेशऔरजम्मूएवंकश्मीर) में, 0.09 मिलियनवर्गकिमीक्षेत्रपश्चिमीघाटएवंकोंकणपहाड़ियों (तमिलनाडु,केरल,कर्नाटक,गोवाएवंमहाराष्ट्र) एवं 0.01 मिलियनवर्गकिमीक्षेत्रआंध्रप्रदेशमेंअराकुक्षेत्रकेपूर्वीघाटकेअंतर्गतशामिलहै।
  • भूस्खलनकेप्रतिसंवेदनशीलहिमालयकातराईक्षेत्रसर्वाधिकभूकंपप्रवणक्षेत्र(जोन-IV और V; BIS 2002) केअंतर्गतआताहै।यहांपरमरकेलीस्केलपरVIII से IX तीव्रताकेभूकंपआसकतेहैं।इसकासबसेनवीनउदाहरण, 18 सितंबर 2011 केबादसिक्किमदार्जिलिंगहिमालयक्षेत्रमेंसिक्किममेंआनेवालाभूकंपहै।

 

विश्व की 30% भूस्खलन की घटनाएं हिमालय पर्वत श्रृंखला में होती हैं।

 

भूमिका एवं उत्तरदायित्व (Roles and Responsibilities)

 

  • भारतीयभूवैज्ञानिकसर्वेक्षण- भूस्खलनअध्ययनहेतुनोडलएजेंसीहै।

 

  • भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण निम्नलिखित के लिए उत्तरदाई है:
    • भूस्खलनकेखतरेकोकमकरनेकेलिएभूवैज्ञानिकअध्ययनकासमन्वयऔरक्रियान्वयनकरना।
    • भूस्खलनखतरेवालेक्षेत्रोंकीपहचानकरना।
    • भूस्खलनऔरहिमस्खलनकीनिगरानीकरना।
    • भूस्खलनकेलिएउत्तरदायीकारकोंकाअध्ययनकरनाऔरGSI एवंअन्यसंगठनोंद्वाराप्रदानकिएजानेवालेदिशानिर्देशोंकेअनुसाररोकथामकेउपायविकसितकरना।
कार्य योजना की मुख्य विशेषताएं (Salient Features of Action Plan)

 

  • मैक्रोएवंमीजोस्केलपरभूस्खलनसंकटवालेक्षेत्रों(LHZ) कीपहचानकरनेकेलिएसमानविधिकाउपयोगकरना।
  • मैक्रोस्केलपरभूस्खलनसंकटवालेक्षेत्रोंकीपहचानकरना:
  • 10,000 km संचाररूटकोमैक्रोस्केलकेअंतर्गतकवरकरना।
  • विस्तृतअध्ययनकेलिएप्राथमिकक्षेत्रोंएवंनिर्णायकढालवालेक्षेत्रोंकीपहचानकरना।
  • इसक्रियाकलापहेतुराज्यसरकारेंदिशानिर्देशप्रदानकरतीहैंऔरGSI द्वारासर्वेक्षणकियाजाताहै।

 

  • मीजो स्केल पर आईडेंटिफाइड क्षेत्रों के भूस्खलन खतरे की पहचान करना:
    • संरचनात्मकविकासकेलिएआबादीवालीयाप्रस्तावितसाइटोंकोकवरकरना।
    • प्रारंभिकस्तरपर20- 25 स्थलोंकोशामिलकरनाजिसमें 10 स्थलोंकोGSI द्वाराएवंअन्यका, दूसरीएजेंसियोंद्वाराचुनाजाना।
    • एकसमितिजिसमेंIIT- रुड़की, CBRI, NIRM, CRRI, CWC, IMD, THDC आदिशामिलहैं, समयबद्धतरीकेसेचिन्हितक्षेत्रोंमेंकामकरनेकेइच्छुकलोगोंकोकामवितरितकरेगी।

भूस्खलन की निगरानी करना

  • भूस्खलनसेहोनेवालेसंचाररूटएवंसिंचाईरूटकीक्षतिकोनियमितरूपसेमॉनिटरकरनाचाहिए।

पूर्व चेतावनी प्रणाली को विकसित करना:

  • भूस्खलनवालेक्षेत्रोंमेंपूर्वचेतावनीप्रणालीकोविकसितकरनेकीआवश्यकताहै।विभिन्नएजेंसियोंद्वाराइसक्षेत्रमेंकार्यकियाजारहाहैलेकिनइसदिशामेंपर्याप्तअनुसंधानएवंविकासकरनेकीआवश्यकताहै।क्योंकिभूस्खलनकेव्यक्तिगत, प्रत्यक्षतथाअप्रत्यक्षएवंअन्यकारकहोतेहैं।

LHZ पर इन्वेंटरी/ डेटाबेस तैयार करना (To prepare Inventory/ Database on LHZ):

  • पूर्वचेतावनीप्रणालीकेकिसीभीमॉडलकीसफलताकेलिएभूस्खलनइन्वेंटरीआवश्यकहै।GSI नेएकप्रारूपविकसितकियाहैऔरइसेराज्यएवंBRO, CPWD आदिएजेंसियोंकोभूस्खलनकीघटनाओंकेबारेमेंसूचितकरनेकेलिएपरिचालितकियाहै।GSI नेउत्तरपश्चिमीहिमालय,पूर्वीहिमालयएवंउत्तरपूर्वीहिमालयसेसंबंधित 1000 भूस्खलनघटनाओंकोशामिलकरतेहुएएकइन्वेंटरीकोविकसितएवंप्रकाशितकियाहै।इससूचीकानियमितरूपसेअद्यतनकियाजानाहैऔरइसकेलिएBRO, CPWD, सशस्त्रबलों, बुनियादीढांचेकेविकासमेंलगीएजेंसियोंऔरवन, PWD जैसेराज्यविभागोंसेसहयोगकीआवश्यकताहै।

जागरूकता अभियान:

  • GSI केपासजागरूकतारणनीतिकोविकसितकरनेऔरराज्यसरकारोंकेसाथविचार-विमर्शकरकेसंवेदनशीलक्षेत्रोंमेंजागरूकताअभियानसंचालितकरनेकीजिम्मेदारीहै।
  • GSI कोदीगईएकअन्यजिम्मेदारी, GSI केदृष्टिकोणकोप्रस्तुतकरनेकेउद्देश्यसेएकदिनकीकार्यशालाकीव्यवस्थाकरनाऔरभूस्खलनकेक्षेत्रमेंसक्रियराज्यसरकारोंऔरअन्यएजेंसियोंकेसाथबातचीतकरनाशामिलहै।
  • इसकाउद्देश्यमीडियाअभियान, पत्रऔरपोस्टर, बैठकऔरकार्यस्थलआदिकेविकासऔरप्रसारकेमाध्यमसेविभिन्नस्तरोंपरजागरूकताबढ़ानाहै।

समन्वय:

  • भूस्खलनकेशमनहेतुप्रतिबद्धकिसीभीएजेंसीकोGSI सेअनुमतिप्राप्तकरनाआवश्यकहैजिससे(a) कार्यकेदोहरेपनकोरोकाजासके(b) यहसुनिश्चितहोसकेकिशमनकार्यनिर्धारितमानदंडोंकेअनुसारहोरहेहैं।कार्यपूर्णहोनेकेबादकार्यकीरिपोर्टकीएकप्रतिGSI कोसौंपीजातीहै।GSI विभिन्नकार्योंपरहुईप्रगतिकेसंबंधमेंसमय-समयपरसंयुक्तसचिवऔरकेंद्रीयराहतआयुक्तकेमाध्यमसेMHA केअंतर्गतनेशनलकोरग्रुपकोरिपोर्टकरेगा।

 

राष्ट्रीय भूस्खलन जोखिम प्रबंधन रणनीति (NATIONAL LANDSLIDE RISK MANAGEMENT STRATEGY):

 

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) ने राष्ट्रीय भूस्खलन जोखिम प्रबंधन रणनीति की शुरुआत की है।

इस रणनीति के प्रमुख बिंदु :

  • भूस्खलन जोखिम क्षेत्रों की पहचान करना (Landslide Hazard Zonation): इसमें मैक्रो एवं मीजो स्तर (macro scale and meso leve) पर भूस्खलन जोखिम मैप को तैयार करने की अनुशंसा की गई है। यह मानव रहित हवाई वाहन (UAV), स्थलीय लेजर स्कैनर और बहुत ही उच्च-रिज़ॉल्यूशन वाले पृथ्वी अवलोकन (EO) डेटा जैसे अत्याधुनिक उपकरणों का उपयोग करने पर केंद्रित है।
  • भूस्खलन निगरानी एवं पूर्व चेतावनी प्रणाली: वर्षा थ्रेसहोल्ड, न्यूमेरिकल वेदर प्रेडिक्शन (NWP), स्वचालित वर्षा गेज, आदि को विकसित करने और कार्यान्वित करने की तकनीकी सिफारिशो को शामिल किया गया है।
  • जागरूकता कार्यक्रम: इसमें सहभागी दृष्टिकोण को परिभाषित किया गया है ताकि समुदाय का प्रत्येक वर्ग जागरूकता अभियान में शामिल हो सके। चूंकि किसी भी सहायता के पहुंचने से पहले सबसे पहले समुदाय द्वारा आपदा का सामना किया जाता है इसीलिए समुदाय को इसमें शामिल करने और शिक्षित करने हेतु जागरूकता तंत्र विकसित किया गया है।
  • हितधारकों का प्रशिक्षण एवं क्षमता निर्माण: देश में विशेषज्ञता का तकनीकी-वैज्ञानिक पूल बनाने के लिए सेंटर फॉर लैंडस्लाइड रिसर्च स्टडीज़ एंड मैनेजमेंट (CLRSM) की स्थापना की गई है।

 

मानव निर्मित आपदाएं (MANMADE DISASTERS):

  • MANMADE DISASTERS
    • Mass Gatherings (Crowd)
    • Forest Fires
    • Chemical Disasters
    • Biological Emergencies
    • Nuclear and Radiological Emergencies
    • Climate Emergencies
    • Urban Flooding

 

व्यापक स्तर पर लोगों के एकत्र होने से उत्पन्न आपातकालीन चुनौती (Emergencies Associated with Mass Gatherings)

  • देशभर में समय-समय पर ऐसी गतिविधियां होती रहती हैं जिसमें एक साथ व्यापक स्तर पर लोग एकत्र हो जाते हैं।
  • लोगों के व्यापक स्तर पर इकट्ठे होने से उत्पन्न होने वाली संभावित चुनौतियां काफी विस्तृत भी हो जाती हैं।
  • इस समस्या से निपटने हेतु अपर्याप्त योजना के कारण विभिन्न जोखिम बने रहते हैं।
  • इसमें व्यापक स्तर पर चोटें लगना एवं मृत्यु होना तक शामिल है।
  • लोगों के व्यापक स्तर पर इकट्ठा होने से आपातकालीन स्थिति का बन जाना एक वैश्विक घटना है।
  • त्योहारों या समारोहों के दौरान बड़े पैमाने पर – रेलवे, रोडवेज और वायुमार्ग आदि स्थानों पर लोगों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि को देखा जा सकता है।
  • ऐसी जगहों पर संचालन और प्रबंधन के लिए जिम्मेदार एजेंसियों को सार्वजनिक सुरक्षा के लिए रणनीतिक योजना तैयार करते समय “भीड़” और ‘भीड़ के व्यवहार’ को खतरे के रूप में शामिल करना आवश्यक होता है।
  • भीड़ और भीड़ के व्यवहार के अनुसार, प्रबंधन के लिए आवश्यक विशेष व्यवस्था को लागू करने पर ध्यान देना आवश्यक होता है।
  • राज्य सरकारों, स्थानीय अधिकारियों और अन्य एजेंसियों के लाभ के लिए NDMA ने लोगों की भीड़ के इकट्ठा होने ( mass gatherings) पर दिशानिर्देश जारी किया है।
  • घटना के आधार पर रेलवे स्टेशनों, बस टर्मिनलों और हवाई अड्डों पर लोगों की संख्या में वृद्धि हो सकती है।
  • NDMA दिशानिर्देश रेलवे, बस परिवहन और वायुमार्ग जैसी एजेंसियों द्वारा सार्वजनिक सुरक्षा योजना तैयार करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
  • ये योजनाएं स्थानीय प्राधिकरण एवं प्रशासकों की सलाह पर तैयार की जाती हैं।.
  • चूंकि भीड़ से संबंधित समस्याएं स्थानीय घटनाएँ होती है इसीलिए इन समस्याओं के प्रबंधन की जिम्मेदारी मुख्य रूप से राज्य और राष्ट्रीय अधिकारियों के समर्थन एवं दिशानिर्देशों के साथ स्थानीय / जिला प्रशासन की होती है।
  • समारोह की योजना बनाते समय आयोजक संभावित आपात स्थितियों की अनदेखी करते हैं जो प्रमुख आपात स्थितियों और सबसे खराब स्थितियों को जन्म देती है।
  • यह आवश्यक होता है कि इन घटनाओं से संबंधित जोखिमों की पहचान करके योजना बनाई जाए।
  • लोक समारोह के आयोजन में आयोजकों एवं सरकार, निजी और सामुदायिक संगठन के बीच सहयोग एवं समन्वय आवश्यक होता है।
  • एक पार्टी का निर्णय दूसरे को प्रभावित कर सकता है इसीलिए समारोह के दौरान सूचनाओं को साझा करना आवश्यक होता है।
  • कोई भी घटना की जिम्मेदारी आयोजकों या प्रबंधकों की होती है लेकिन पूर्व-नियोजन चरण में स्वास्थ्य पेशेवरों और आपातकालीन प्रबंधकों की भागीदारी से काफी जोखिमों से बचा जा सकता है।

 

NDMA ने भीड़ आपदाओं के छह प्रमुख कारणों को सूचीबद्ध किया है जिन्हें नीचे , संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है। दिशानिर्देश में इनका वर्णन विस्तार से किया गया है :

 

संरचनात्मक

कार्यक्रम स्थल पर आधारभूत संरचना, स्थितियाँ और व्यवस्थाओं का पर्याप्त न होना (बैरिकेड्स एवं फेंसिंग का अपर्याप्त होना, अस्थायी संरचनाएं, अपर्याप्त निकास, जटिल इलाक़ा, फिसलन / कीचड़ युक्त सड़कें इत्यादि)
अग्नि/विद्युत खतरनाक क्रियाकलापों जिनमें दुकानों में खाना पकाने एवं आसानी से ज्वलनशील सामग्री के उपयोग में लापरवाही, आग बुझाने की मशीन, अवैध बिजली कनेक्शन और ऐसी कई संभावनाओं से लेकर आग और बिजली से जुड़े जोखिम युक्त क्रियाकलापों का किया जाना
भीड़ नियंत्रण कार्यक्रम स्थल की क्षमता से अधिक भीड़, खराब प्रबंधन (जिसके कारण भ्रम पैदा होता है) और सभी आदेशों की विफलता, पर्याप्त आपातकालीन निकास नहीं होना, भीड़ और इसी तरह की समस्याओं के साथ प्रभावी ढंग से निपटने में सिस्टम की अपर्याप्तता का होना
भीड़ व्यवहार भीड़ के व्यवहार से जुड़े कई मुद्दों को देखा जा सकता है जिसमें लोगों की अनियंत्रित, गैर जिम्मेदार और उग्र प्रतिक्रियाएं ,आपातकालीन स्थिति में परिवर्तित हो जाती हैं।
सुरक्षा भीड़ को नियंत्रित करने के लिए सुरक्षा कर्मियों की तैनाती के तहत,सुरक्षा व्यवस्था की योजना में खामियां
हितधारकों के बीच समन्वय का अभाव समारोह से संबंधित एजेंसियों एवं अधिकारियों के बीच समन्वय का अभाव

 

Recent examples of stampedes:

 

Statistics:

· नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, वर्ष 2000 से 2013 के बीच , भगदड़ के कारण लगभग 2000 लोगों की जान गई।

· इंटरनेशनल जर्नल आफ डिजास्टर रिस्क रिडक्शन के अनुसार, भारत में होने वाली भगदड़ की 78% घटनाएं, तीर्थ स्थलों एवं धार्मिक आयोजनों के मौके पर होती हैं।

 

भीड़ प्रबंधन पर NDMA के दिशा निर्देश:

  • समारोहएवंत्योहारोंकेदौरानएकजगहपरइकट्ठेहोनेवालीभीड़केप्रबंधनहेतुराष्ट्रीयआपदाप्रबंधनप्राधिकरणनेकुछदिशानिर्देशजारीकिएहैं।

 

दिशा निर्देश:

 

समारोह स्थल, आगंतुकों और हितधारकों को समझना (Understanding venue, visitors and stakeholders):

  • समारोहस्थलमेंआगंतुकोंऔरहितधारकोंकोसमझना, भीड़प्रबंधनकाप्रमुखआयामहै।
  • इसमेंघटनाकेप्रकारकीसमझ(जैसेधार्मिक, स्कूल / विश्वविद्यालय, खेलआयोजन, संगीतकार्यक्रम, राजनीतिकघटना, उत्पादप्रचारआदि) ,अपेक्षितभीड़ (आयु, लिंग, आर्थिकस्तर), भीड़केउद्देश्य (जैसेसामाजिक, शैक्षणिक, धार्मिक, मनोरंजन, आर्थिकआदि), स्थान (स्थान, क्षेत्रकीस्थलाकृति, लौकिकयास्थायी, खुलायाबंद), औरअन्यहितधारकों (जैसेगैरसरकारीसंगठन, घटनास्थलकेपड़ोसी, स्थानीयप्रशासकआदि) कीभूमिकाकेप्रतिसमझआवश्यकहै।

भीड़ से निपटना (Crowd Handling)

  • भीड़केचारोंओरवाहनोंकीगतिविधियोंकोनियंत्रितकरनाचाहिए
  • समारोहकेलिएआपातकालीननिकासव्यवस्थाकेसाथरूटमैपबनानाचाहिए।
  • भीड़कोनियंत्रितकरनेकेलिएबैरिकेडकीसमुचितव्यवस्थाहोनीचाहिए।
  • अत्यधिकभीड़वालीकतारोंमेंस्नेकलाइनदृष्टिकोणकापालनकियाजानाचाहिए।
  • भीड़वालेकार्यक्रमोंमेंआयोजनप्रबंधकोंकेद्वारासामान्यप्रवेशकोरोकाजानाचाहिएऔरVIP आगंतुकोंकेप्रबंधनकेसाथसुरक्षाचिंताओंकेजुड़ेहोनेसेइन्हेंभीरोकाजानाचाहिए।

 

सेफ्टी और सिक्योरिटी:

  • कार्यक्रमकेआयोजकोंकोसुरक्षादिशानिर्देशोंकेअनुसारबिजली, अग्निशमनऔरअन्यव्यवस्थाओंकाअधिकृतउपयोगसुनिश्चितकरनाचाहिए।
  • भीड़परनजररखनेकेलिएCCTV कैमरोंकाउपयोगकरनाचाहिए।

 

संचार:

  • भीड़केसाथसंवादकरनेकेलिएसभीभीड़बिंदुओंपरलाउडस्पीकरोंकीव्यवस्थाकरनीचाहिए।

 

चिकित्सा एवं आपातकालीन देखभाल:

  • आपदाकेबादकीआपातस्थितियोंसेनिपटनेकेलिएप्राथमिकचिकित्साकक्षऔरआपातकालीनसंचालनकेंद्रस्थापितकिएजानेचाहिए।

 

समारोह प्रबंधकों की भूमिका:

  • कार्यक्रमकेआयोजकोंऔरस्थलप्रबंधकोंकोस्थानीयप्रशासनऔरपुलिससहितअन्यकेसाथसमन्वयद्वाराआपदाप्रबंधनयोजनाकाविकास, कार्यान्वयन, समीक्षाऔरसंशोधनकरनाचाहिए।

 

नागरिक समाज की भूमिका:

  • घटना / स्थलप्रबंधक, यातायातनियंत्रणमेंNGOs औरनागरिकसुरक्षाकासहारालेसकतेहैं।आपदाकेमामलेमेंलोगोंकानियंत्रण, चिकित्सासहायता, स्वच्छताऔरस्थानीयसंसाधनोंपरध्यानदेनाआवश्यकहै।

 

पुलिस की भूमिका:

  • पुलिसकोसमारोहस्थलकामूल्यांकनकरनेकेसाथतैयारियोंकाजायजालेनाचाहिएऔरभीड़औरयातायातआंदोलनोंकामार्गदर्शनकरनाचाहिए।

 

क्षमता निर्माण:

  • क्षमतानिर्माण, मॉकअभियान, सुरक्षाकर्मियोंकेप्रशिक्षणकेआवधिकमूल्यांकनकेसाथभीड़आपदाओंकोरोकनेकेलिएपुलिसकीभूमिकानिर्णायकहोतीहै।

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