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स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में महत्वपूर्ण मुद्दे

स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में महत्वपूर्ण मुद्दे

शास्त्री युग

प्रस्तावना:
  • नेहरू की मृत्यु ने भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के सामने एक चुनौती खड़ी कर दी थी। उत्तराधिकार के मुद्दे पर भारतीय राजनीतिक व्यवस्था और कांग्रेस में उथल-पुथल के अंतर्विरोध की भविष्यवाणी को परिपक्व तरीके से सुलझाना भारतीय लोकतंत्र की ताकत को दर्शाता है|
  • कांग्रेस नेताओं का एक समूह जिसे सिंडिकेट के नाम से जाना जाता था, के दिशा निर्देशन में उत्तराधिकार संबंधी समस्याओं का समाधान किया गया ।
  • 1963 में गठित इस समूह में कांग्रेस के अध्यक्ष और क्षेत्रीय पार्टी के नेता के. कामराज, बंगाल के अतुल्य घोष, बॉम्बे के एस. के. पाटिल, आंध्र प्रदेश के एन. संजीव रेड्डी और मैसूर (कर्नाटक) के एस. निजलिंगप्पा शामिल थे।
  • जब उन्हें शास्त्री और मोरारजी देसाई के बीच चुनाव करना था, तो उन्होंने शास्त्री को अधिक समर्थन दिया, क्योंकि अन्य गुणों के अलावा, पार्टी में उनकी व्यापक स्वीकार्यता थी जो पार्टी को एकजुट रखने में मदद करती।
  • पार्टी सांसदों द्वारा संसदीय नेता के रूप में निर्विरोध चुने गए शास्त्री जी ने 2 जून, 1964 को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।

 

प्रधानमंत्री के रूप में शास्त्री जी:
  • इंदिरा गांधी को सूचना और प्रसारण मंत्री के तौर पर मंत्रिमंडल में शामिल करने के अलावा शास्त्री जी ने नेहरू मंत्रिमंडल में कोई बड़ा बदलाव नहीं किया।
  • उनके अधीन कैबिनेट मंत्रियों ने अधिक स्वायत्तता से काम किया। उन्होंने पार्टी के मामलों में या राज्य सरकारों के कामकाज में भी कभी हस्तक्षेप नहीं किया।

 

शास्त्री के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत के सामने आने वाली समस्याएं :
  • 1965 में हिंदी बनाम अंग्रेजी की आधिकारिक भाषा की समस्या जोरो से उठी।
  • पंजाबी सूबा (राज्य) और महाराष्ट्र के साथ गोवा के विलय की मांग को भी जोर मिला।
  • आर्थिक समस्याएं:
    • भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले कुछ वर्षों से स्थिर बनी हुई थी।
    • औद्योगिक विकास दर में मंदी आई तथा भुगतान संतुलन की समस्या बदतर हो गई।
    • सबसे गंभीर समस्या अन्न की कमी थी। कृषि उत्पादन कम हो गया था, 1965 में कई राज्यों में भयंकर सूखा पड़ा तथा बफर खाद्य भंडार जोखिमपूर्ण स्तर तक कम हो गए थे।
  • आलोचकों ने कहा कि सरकार ने उन समस्याओं पर सोच समझकर काम नहीं किया, उन्होंने इसके बजाय बहाव की नीति(drift theory) का पालन किया ।
  • स्पष्ट रूप से, उस स्थिति से निपटने के लिए दीर्घकालिक उपायों की आवश्यकता थी लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, विशेष रूप से खाद्य अनाज-अधिशेष रखने वाले राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सहयोग करने से इनकार कर दिया।
  • भारत-पाक युद्ध के कारण अमेरिका ने सभी खाद्य अनुदानों को निलंबित कर दिया था। सरकार को वैधानिक राशन देने के लिए बाध्य किया गया लेकिन इसमें केवल सात प्रमुख शहरों को ही शामिल किया गया।
  • सरकार ने जनवरी 1965 में राज्य खाद्य व्यापार निगम की भी स्थापना की, लेकिन यह पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न उपलब्ध कराने में सफल नहीं हो पायी।
  • हालांकि, एक सकारात्मक उपलब्धि यह थी कि कृषि उत्पादन बढ़ाने तथा दीर्घकाल तक खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता हासिल करने के उद्देश्य से हरित क्रांति की शुरुआत की गई थी।

 

शास्त्री जी की अभिवृत्ति तथा सत्ता में परिवर्तन:
  • शुरूआत में आलोचकों द्वारा शास्त्री पर निर्णय न लेने तथा सरकारी नीतियों को दिशा देने में विफल रहने या अपने कैबिनेट सहयोगियों का नेतृत्व करने और नियंत्रित करने में विफल रहने का आरोप लगाया गया था।
  • हालांकि, समय बीतने के साथ, शास्त्री ने स्वयं को अधिक स्वावलंबी दिखाना तथा मुखर करना शुरू कर दिया था।
  • उत्तरी वियतनाम पर अमेरिकी बमबारी की आलोचना करने वालों में सबसे पहले भारत की सरकार थी।
  • शास्त्री जी ने भी मंत्रालयों से स्वतंत्र, नीतिगत मामलों पर प्रधानमंत्री को सूचना और सलाह देने के स्रोत के रूप में अपने प्रधान मंत्री सचिवालय की स्थापना की, जिसके प्रमुख एल.के. झा थे।
  • सचिवालय, जिसे प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के रूप में जाना जाता है, ने सरकारी नीतियां बनाने तथा उनके क्रियान्वयन में बहुत अधिक प्रभाव और शक्ति प्राप्त करना शुरू कर दिया।

 

भारत के एकीकरण में शास्त्री जी की भूमिका:

 

  • सुरक्षा
    • उनके सैन्य कौशल का प्रदर्शन, कश्मीर पर पाकिस्तान के हमले से निपटने में स्पष्ट दिखाई देता था।
    • शास्त्री ने शुरू से ही भारत की रेड लाइन (red lines) को स्पष्ट करने के लिए संसद में भाषणों के माध्यम से सीमा पर पाकिस्तानी मंसूबा का जवाब दिया।
    • वह राष्ट्रपति खान को यह समझाने के लिए दृढ़ संकल्प थे कि “भारत को पाकिस्तानी क्षेत्र का एक वर्ग इंच भी हासिल करने की कोई इच्छा नहीं है, लेकिन कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा किसी भी तरह के हस्तक्षेप की अनुमति भी नहीं दी जाएगी।
    • 1965 के युद्ध के उनके सफल संचालन ने भारत को एक उचित सैन्य ढांचा दिया तथा 1962 की तुलना में भारत की सैन्य खुफिया क्षमता को और अधिक सक्षम बनाया।
  • अंतर्राष्ट्रीय
    • उन्होंने हस्तक्षेप के लिए यूएनएससी से संपर्क नहीं किया, उन्होंने दुनिया के सामने दोहराया कि कश्मीर एक द्विपक्षीय मुद्दा है तथा इसमें वैश्विक शक्तियों की भागीदारी की आवश्यकता नहीं थी। इसने वैश्विक राजनीति में भारत के दृढ़ और असमझौतावादी कूटनीतिक रवैये का मंच तैयार किया।
  • कृषि
    • देश को एकजुट करने का उनका “जय जवान जय किसान” का आह्वान देश के सच्चे उद्धारकर्ताओं, किसानों और सैनिकों को एकजुट करने में बहुत मददगार था तथा उसने भारत के सभी नागरिकों से उनका समर्थन करने का आह्वान किया।
    • प्रधान मंत्री ने महसूस किया कि निरंतर सूखे के बाद भारत की खाद्य सुरक्षा जरूरतों को प्राथमिकता दिया जाना आवश्यक है। इसलिए, उन्होंने हरित क्रांति को बढ़ावा दिया तथा राष्ट्र को खाद्यान्न में आत्म-निर्वाह के पथ पर रखा।
  • राजनीतिक
    • शुरुआती झटकों के बावजूद, उन्होंने दक्षिणी राज्यों में भाषायी समस्याओं को हल करने में मदद की तथा यह सुनिश्चित किया कि सरकार अंग्रेजी को भाषा के रूप में इस्तेमाल करना जारी रखे तथा उन पर हिंदी न थोपी जाए।
    • गृह मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने असम और पंजाब राज्य में सभी वर्गों के लोगों की स्वीकार्यता के आधार पर प्रसिद्ध “शास्त्री फॉर्मूला” बनाया।
  • आर्थिक
    • लाल बहादुर शास्त्री ने रेल मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल में रेलवे के उन्नयन और विद्युतीकरण की परियोजनाओं की शुरुआत की। यह भारत में रेलवे के आधुनिकीकरण की दिशा में उठाया गया पहला कदम था।

 

आलोचना:
  • पाकिस्तान से निपटने के लिए किए गए ताशकंद समझौते से बाहर आने में असमर्थता।
  • शुरूआत में आलोचकों द्वारा शास्त्रीजी पर निर्णय न लेने तथा सरकारी नीतियों को दिशा देने में विफल रहने या अपने कैबिनेट सहयोगियों का नेतृत्व करने और नियंत्रित करने में विफल रहने का आरोप लगाया गया था।
  • हालांकि, समय बीतने के साथ, शास्त्रीजी ने स्वयं को अधिक स्वावलंबी दिखाना तथा मुखर करना शुरू कर दिया था।

 

शास्त्री जी द्वारा जय जवान जय किसान का नारा:
  • प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 1965 में एक सार्वजनिक रैली के दौरान यह नारा दिया था| इस नारे ने उस भारत को बहुत प्रभावित किया जो एक तरफ सीमा पर पाकिस्तान (जय जवान) से लड़ रहा था तथा दूसरी तरफ घर (जय किसान) पर अन्न की भारी कमी से जूझ रहा था।

 

इस नारे का महत्व:
  • सरकार ने किसानों और सैनिकों के महत्व को पहचाना तथा स्वयं एक निर्णायक भूमिका निभाकर उन्हें प्रोत्साहित किया।
  • इसका उद्देश्य सीमा पर लड़ने वाले सैनिकों का मनोबल बढ़ाना तथा किसानों के श्रम को स्वीकार करना था।
  • इस नारे ने किसानों तथा सैनिकों को एक बडा मनोवैज्ञानिक प्रोत्साहन दिया।
  • श्वेत क्रांति पर केंद्र सरकार के द्वारा AMUL का गठन किया गया। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) की स्वायत्तता राष्ट्रीय नवाचार संस्थान सहित कई अन्य संगठनों के लिए एक संस्थागत संस्थान बन गई है। उस अर्थ में, शास्त्री जी एक महान संस्थान निर्माता थे।
  • यह शास्त्री जी का निर्णायक नेतृत्व था जिसने भारत की स्थिति को मजबूत करने में मदद की। उन्होनें पश्चिमी पाकिस्तान पर आक्रमण करने का साहसिक कदम उठाने का आदेश दिया।
  • जब खाद्यान्न उत्पादन में 1/5 की कमी आई, तो खाद्य सहायता ने भारत को बड़े पैमाने पर भुखमरी से बचाया। इस कमी को दूर करने के लिए, शास्त्री ने विशेषज्ञों से दीर्घकालिक रणनीति तैयार करने के लिए कहा। उन्होंने हरित क्रांति तथा श्वेत क्रांति दोनों का मार्गदर्शन देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • उन्होंने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की स्थापना में मदद की तथा फसल उत्पादकता बढ़ाने के लिए संकर बीजों का प्रयोग किया।
  • बाद में पीएम अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा इस नारे को बदल दिया गया तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के महत्व को रेखांकित करने के लिएजय जवान जय किसान जय विज्ञान“का नारा दिया।

 

इंदिरा गांधी का काल:

 

रिचय:

शास्त्री जी की मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकारी का पद रिक्त हो गया था, लेकिन पुनः सिंडिकेट ने इंदिरा गांधी का समर्थन किया तथा रिक्त पद को पूरा कर दिया।

भारत की तत्कालीन समस्याएं :

 

  • राजनीतिक:
    • पंजाब में अनुचित गतिविधियां जोरों पर थी तथा नागा एवं मिजो के क्षेत्रों में भी विद्रोह आरम्भ हो गया था।
    • प्रशासन के प्रति जनता में अविश्वास बढ़ रहा था।
    • गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध जैसी मांगों को लेकर सांप्रदायिक ताकतें अपने चरम पर थीं।
    • संसद में लगातार अशांति और अनुशासनहीनता के साथ कुछ विपक्षी सदस्यों ने संसदीय मर्यादा की पूर्ण अवहेलना की।
  • आर्थिक:
    • अर्थव्यवस्था को मंदी तथा निर्यात और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट का सामना करना पड़ा।
    • भयंकर सूखे के कारण मुद्रास्फीति और भोजन की गंभीर कमी हो गई।
    • बजट घाटा बढ़ रहा था, जो चौथी पंचवर्षीय योजना को संकट में डाल रहा था।
    • 1962 और 1965 के युद्धों तथा पाकिस्तान-चीन धुरी के कारण सैन्य खर्चों और संसाधनों के विभाजन में तीव्र वृद्धि हुई।
    • विकास का पूंजीवादी स्वरूप आर्थिक विषमता बढ़ा रहा था।
  • विदेशी मामले:
    • पीएल-480 सहायता कार्यक्रम के तहत अमेरिका से गेहूं के आयात पर भारत अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए काफी निर्भर था।
    • विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा आर्थिक सहायता की तत्काल आवश्यकता थी।

 

इंदिरा गांधी सरकार की प्रतिक्रियायें:
  • राजनीतिक:
    • उन्होंने पंजाबी सूबे की मांग को प्रभावी ढंग से निपटाया तथा नागा और मिजो विद्रोहियों से बातचीत करने की इच्छा दिखाई एवं नागा विद्रोहियों की स्वायत्तता की मांग को स्वीकार किया।
    • गोहत्या पर प्रतिबंध की मांग के विरुद्ध अडिग रहीं।
  • आर्थिक:
    • प्रारम्भ में उनके प्रशासनिक व्यय कम नहीं हो पाए जोकि वित्तीय स्थिति के लिए काफी आवश्यक था, लेकिन वह सूखे और अकाल की समस्या से निपटने में सफल रही।
    • रूपये का अवमूल्यन: अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते भारत सरकार ने रुपये का अवमूल्यन किया। लेकिन निर्यात बढ़ाने और विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के अपने घोषित उद्देश्यों में अवमूल्यन विफल रहा।
  • विदेशी मामले:
    • तत्कालीन परिस्थितियों में अमेरिकी गेहूं, वित्तीय सहायता और पूंजीगत निवेश की अत्यधिक आवश्यकता थी, इसलिए उन्होंने प्रारम्भ में संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ पुल बनाने की कोशिश की। अमेरिका ने PL-480 के साथ भारत से समझौता किया तथा 900 मिलियन डॉलर की वित्तीय सहायता प्रदान की। लेकिन भारत के लिए वास्तविक प्रेषण अनियमित थे।
    • अमेरिका की शर्तों के साथ, भारत ने अपनी कृषि नीति और वियतनाम पर अपनी स्थिति को बदल दिया। भारत ने इस कमजोर स्थिति से बाहर निकलने का फैसला किया।
    • उन्होंने वियतनाम में अमेरिकी कार्यवाही के विषय में सोवियत संघ के साथ एक संयुक्त ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए।
    • भारत ने पीएल-480 रुपये के फंड से वित्त पोषित करने के लिए भारत-अमेरिकी एजुकेशनल फाउंडेशन के अमेरिकी प्रस्ताव पर सहमति जताई, लेकिन विभिन्न मोर्चों से आलोचना के बाद इस प्रस्ताव को छोड़ दिया गया।
  • दूसरे देशों के साथ संबंध:
    • अमेरिका और पश्चिम यूरोपीय देशों से निकलने वाले नव-उपनिवेशवाद के खतरे का मुकाबला करने के लिए गुटनिरपेक्षता का समर्थन किया ।
    • उन्होंने चीन के साथ बातचीत करने की इच्छा भी व्यक्त की।

 

लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चौथे आम चुनाव:
  • 61% मतदान के साथ लोगों में असाधारण राजनीतिक जागृति हुई।
  • गुटबाजी ने केंद्र और राज्यों को घेरना शुरू कर दिया।
  • अब केंद्रीय नेतृत्व, केंद्र में अपनी स्थिति सुरक्षित करने के लिए राज्यों में प्रभावी समूहों का समर्थन करने लगे।
  • कुछ राज्यों में कांग्रेस-विरोधी मोर्चों के गठन के पश्चात् विपक्षी दल एक साथ आ गए।

 

चुनाव के नतीजे:
  • यद्यपि कांग्रेस ने संसद में अपना बहुमत हासिल कर लिया, लेकिन उसने आठ राज्यों की विधानसभाओं में अपना बहुमत खो भी दिया।
  • कांग्रेस के पतन से सांप्रदायिक, सामंती, दक्षिणपंथी और क्षेत्रीय दलों को लाभ मिला।

 

दीर्घकालिक परिणाम:
  • 1967 के चुनावों ने भारतीय राजनीति में अमीर और मध्यम किसानों को अधिक महत्व देने की शुरुआत की।
  • उस दौर की गठबंधन सरकारों की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता दलबदल की राजनीति की शुरुआत थी।

 

गठबंधन सरकारें:
  • राज्यों में कांग्रेस को पार्टियों, समूहों और निर्दलीय लोगों की बहुलता के चलते हटा दिया गया था यहां तक कि कई राज्यों में कांग्रेस ने स्वयं गठबंधन की सरकार बनाई।
  • विफलता:
    • तमिलनाडु में DMK सरकार और उड़ीसा में निर्दलीय सरकार को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में गठबंधन सरकारें बेहद अस्थिर साबित हुईं और पार्टियों के मध्य संघर्ष तथा विधायकों की निष्ठा में कमी के कारण लंबे समय तक सत्ता में नहीं रह सकीं।
    • छोटे और निर्दलीय दलों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
    • कांग्रेस को यह स्पष्ट हो गया था कि उसे स्वयं का नवीनीकरण करना चाहिए, क्योंकि नेहरू काल के दौरान स्वतंत्रता संग्राम में उसकी भूमिका या उपलब्धियों के आधार पर उसे समर्थन नहीं मिल सकता।
    • इन चुनावों ने कांग्रेस के अंदर शक्ति संतुलन बदल दिया था।
    • इसके कईं नेताओं के चुनाव हार जाने से सिंडिकेट का प्रभुत्व समाप्त हो गया।
    • इंदिरा गांधी की भूमिका मजबूत हुई।

 

1971 के आम चुनावों के दौरान
  • जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को शासकों के प्रिवी पर्स को खत्म करने से इनकार कर दिया तो लोकसभा भंग कर दी गई तथा 1971 में चुनाव समय से एक साल पहले कराए गए।
  • गैर-कम्युनिस्ट विपक्षी दलों {कांग्रेस (ओ), जनसंघ, ​​स्वतंत्र और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी)} ने महागठबंधन बनाया।
  • इस दौरान ‘गरीबी हटाओ’ का नारा भी दिया गया।
  • 1971 के चुनावों के नतीजे बड़ी विजय के रूप में सामने आए।
  • मतदान की प्रकृति:
    • जनसमूह का राजनीतिकरण किया गया। धार्मिक, जातिगत और क्षेत्रीय बाधाओं के आधार पर लोगों के वोटों को बांट दिया गया।
    • चुनावों से यह भी पता चला कि एक बार राष्ट्रीय मुद्दे उठाए जाने के बाद, वोट बैंक और संरक्षण की राजनीति अपेक्षाकृत अप्रासंगिक हो गई थी।
  • हालाँकि, बांग्लादेश संकट के कारण 1971 के जनादेश की पूर्ति नहीं हो पाई (विदेश नीति अनुभाग में बांग्लादेश युद्ध को कवर किया गया है)।

 

भारत में आपातकाल (1975-77)

परिचय:

  • 26 जून, 1975 को, राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने संविधान के अनुच्छेद 352 को आंतरिक आपातकाल की स्थिति घोषित करने के लिए प्रयोग किया।
  • राष्ट्रपति ने अपनी घोषणा में कहा, “आंतरिक अशांति से भारत की सुरक्षा को खतरा है”।
  • 26 जून, 1975 और 21 मार्च, 1977 से आपातकाल लागू था ।

 

आपातकाल के लिए उत्तरदायी घटनाएँ

1967 के बाद इंदिरा गांधी एक अद्वितीय नेता के रूप में उभरीं। लेकिन इस अवधि में भी पार्टी के सदस्यों के बीच मतभेद के साथ-साथ बढ़ते भ्रष्टाचार, आर्थिक तथा खाद्य संकट के रूप में कई बाहरी तनाव भी दिखाई दिए गए ।

आर्थिक मुद्दे
  • मंदी, बढ़ती बेरोजगारी अनियंत्रित महंगाई तथा खाद्यान्नों की कमी के सम्मिलन ने एक गंभीर आर्थिक संकट पैदा कर दिया।
  • बांग्लादेश की मुक्ति के लिए भारत का समर्थन, में भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पर गंभीर प्रभाव पड़ा और यह खाली हो गया तथा अधिक से अधिक संसाधनों को रक्षा में लगा दिया गया।
  • 1972 और 73 में मानसून की लगातार गिरावट ने भारत में खाद्यान्न की उपलब्धता और ईंधन की कीमतों को प्रभावित किया।
  • मई 1974 में देश के विभिन्न हिस्सों में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी तथा आर्थिक मंदी के कारण औद्योगिक अशांति और हड़तालों की शुरुआत हो गई थी जो अखिल भारतीय रेलवे में अपने चरमोत्कर्ष पर थी।
राजनीतिक मुद्दें
  • एक राजनीतिक संगठन के रूप में कांग्रेस के पतन की शुरूआत हो गई।
  • राजनीतिक संकट से निपटने की सरकार की क्षमता भ्रष्टाचार से प्रभावित थी।
  • एक और परिणाम यह था कि कांग्रेस के 3 प्रमुख सामाजिक समूहों से उसकी दूरी बढ़ती जा रही थी|
  • मूल्य वृद्धि और भ्रष्टाचार के कारण मध्यम वर्ग कांग्रेस के खिलाफ हो गया।
  • धनी किसानों ने भूमि सुधारों के खतरे के कारण कांग्रेस का विरोध करना शुरू कर दिया।
  • समाजवाद, बैंकों के राष्ट्रीयकरण तथा कोयला, खनन और एकाधिकार विरोधी उपायों के कारण पूंजीवादी कांग्रेस के खिलाफ हो गए।
  • इस चरण में मार्क्सवादी गतिविधियों का उदय भी देखा गया क्योंकि वे संसदीय राजनीति में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए हिंसक तरीकों का सहारा लिया।
न्यायपालिका के साथ द्वंद
  • इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने संसद में संविधान संशोधन किया कि यह डीपीएसपी(DPSPs) को प्रभावी करते हुए मौलिक अधिकारों का हनन कर सकता है।
  • बाद में, केसवानंद भारती मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि संविधान की कुछ मूलभूत विशेषताएं हैं, जिनमें संशोधन नहीं किया जा सकता है।
  • प्रतिक्रियास्वरूप, केंद्र सरकार ने मुख्य न्यायाधीश के रूप में सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठतम न्यायाधीश की नियुक्ति की दीर्घकालिक स्थिति को बदल दिया। 1973 में, सरकार ने तीन न्यायाधीशों की वरिष्ठता को किनारे कर न्यायमूर्ति ए.एन. रे को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्ति किया गया।
राज नारायण केस
  • राज नारायण एक समाजवादी थे जिन्हें यूपी के रायबरेली संसदीय क्षेत्र में श्रीमती गांधी ने हराया था।
  • स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश बनाम राज नारायण मामले में उन्होंने इस आधार पर इंदिरा गांधी के चुनाव को चुनौती देते हुए याचिका दायर की कि उन्होंने अपने चुनाव अभियान में अनुचित लाभ प्राप्त करने के लिए सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया।
  • 12 जून 1975 को, न्यायमूर्ति जगमोहन लाई सिन्हा ने उन्हें चुनाव प्रचार के लिए सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का दोषी पाया। अदालत ने उनके चुनाव को शून्य घोषित कर दिया तथा 6 साल तक उनके किसी भी चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी गई।
  • चूंकि, वह सांसद नहीं थीं, इसलिए वह प्रधानमंत्री का पद भी बरकरार नहीं रख सकीं। अदालत ने उन्हें प्रधान मंत्री पद के उत्तराधिकारी को ढूंढने के लिए कुछ और समय देने की अनुमति दी।
  • लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर आंशिक रोक लगाने का आदेश दिया तथा विपक्ष ने उनके इस्तीफे के लिए दबाव डाला।
गुजरात और बिहार में अशांति
  • जनवरी 1974 में, गुजरात में छात्रों ने बढ़ती कीमतों, बेरोजगारी तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन किए।
  • जून 1975 में गुजरात में विधानसभा चुनाव हुए तथा उसमें कांग्रेस की हार हुई।
  • मार्च 1974 में बिहार में छात्रों द्वारा इसी तरह का आंदोलन शुरू किया गया था।
  • कुछ समय के बाद जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने आंदोलन का नेतृत्व किया तथा संपूर्ण क्रांति ’का आह्वान किया।
  • इस प्रकार, छात्रों के आंदोलन ने एक राजनीतिक स्वरूप ग्रहण कर लिया।
जय प्रकाश (जेपी) आंदोलन / संपूर्ण क्रांति
  • जेपी आंदोलन स्वतंत्रता के पश्चात भारत के राजनीतिक जीवन के महत्वपूर्ण आंदोलनों में से एक था।
  • जयप्रकाश नारायण ने देश में व्याप्त व्यापक असंतोष को एक आंदोलन के रूप में परिवर्तित किया।
  • जेपी या ‘लोकनायक’ के नाम से प्रसिद्ध जय प्रकाश नारायण भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे।
  • जेपी ने बिहार आंदोलन की शुरुआत की जो 1974 में बिहार में छात्रों द्वारा शुरू किया गया जहाँ पर जयप्रकाश नारायण ने इन छात्रों को सही नेतृत्व प्रदान किया।
  • यह आंदोलन गुजरात में छात्रों के विरोध से प्रेरित था। (हमने उपरोक्त बिंदुओं पर गुजरात और बिहार आंदोलन वाले चैप्टर में चर्चा की है)
  • 5 जून, 1974 को पटना के गांधी मैदान में 5 लाख लोगों की एक विशाल सभा को संबोधित करते हुए, उन्होंने व्यापक भ्रष्टाचार, आर्थिक संकट और मंहगाई के विरोध में संपूर्ण क्रांति (सम्पूर्ण क्रांति) नामक क्रांतिकारी कार्यक्रम की शुरुआत की।
  • जेपी आंदोलन के दौरान, लोगों ने पूरे राज्य में समानांतर सरकारें स्थापित कीं तथा करों का भुगतान नहीं किया। जेपी आंदोलन को छात्रों, मध्यम वर्ग, व्यापारियों और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग से व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ। जेपी आंदोलन को लगभग सभी गैर-वाम राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त हुआ।
  • जेपी आंदोलन तेजी से देश के अन्य हिस्से में फैल गया – इसका मुख्य कारण यह था कि इसने लोगों को यह महसूस कराया कि सत्ता में परिवर्तन तथा भारत के राजनीतिक जीवन की नई शुरुआत ही भारत के लोकतंत्र को बचा सकती है।
संपूर्ण क्रांति(Total Revolution)-

 

  • सामाजिक क्रांति – समाज में समानता और भाईचारा स्थापित करना।
  • आर्थिक क्रांति – अर्थव्यवस्था का विकेंद्रीकरण और गांव को विकास की इकाई के रूप में लेकर आर्थिक समानता लाने के प्रयास करना।
  • राजनीतिक क्रांति – राजनीतिक भ्रष्टाचार को समाप्त करना, राजनीति का विकेंद्रीकरण करना और उन्हें अधिक अधिकार देकर सार्वजनिक भागीदार बनाना।
  • सांस्क्रतिक क्रांति – भारतीय संस्कृति का बचाव और आम आदमी में सांस्कृतिक मूल्यों का उत्थान।
  • विचार क्रांति – सोचने के तरीके में क्रांति।
  • आध्यात्मिक क्रांति – नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करना, और भौतिकता को आध्यात्मिकता की ओर मोड़ना।.
  • शैक्षिक क्रांति – शिक्षा व्यवसाय को आधारित बनाना और शिक्षा प्रणाली को बदलना।

 

आंदोलन की प्रमुख खामियां(Major Flaws of Movement)-
  • आंदोलन के उद्देश्य अस्पष्ट, अव्यावहारिक थे ।
  • सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक विषय-वस्तु और आंदोलन के कार्यक्रम तथा नीतियों को ठीक से परिभाषित नहीं किया गया ।
  • जेपी आंदोलन द्वारा अपनाए गए आंदोलन के तरीके, कुछ जगहों पर असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक थे।
  • यह आंदोलन अपने आप में बहुत सारे विषम समूहों का गठबंधन था-आरएसएस, जनसंघ, आनंद मार्ग, नक्सल समूह आदि ।
  • JP आंदोलन ने संसाधनों के समीकरण जैसे कट्टरपंथी परिवर्तनों की अवधारणा करने की कोशिश नहीं की; नतीजतन, इसका सामाजिक आधार किसान और श्रमिक वर्ग (को नहीं छूने तक सीमित) से अछूता रहा।
  • हालांकि, 1974 के अंत तक आंदोलन की संगठनात्मक संरचनाओं के अभाव के कारण JP आंदोलन समाप्त हो गया।
आपातकाल का आरोप (Imposition of Emergency) –
  • इन सभी कारकों ने विशेष रूप से राज नारायण केस और जे पी आंदोलन ने 26 जून, 1975 को आंतरिक गड़बड़ी के खतरे के आधार पर आपातकाल की स्थिति को लागू करने में निर्णायक भूमिका निभाई, संविधान का अनुच्छेद 352 लागू किया।
  • एक बार आपातकाल की घोषणा हो जाने के बाद शक्तियों का संघीय वितरण निलंबित रहता है और सभी शक्तियां केंद्र सरकार में केंद्रित हो जाती हैं । यहां तक कि ऐसी अवधि के दौरान मौलिक अधिकारों में भी कटौती हो जाती है ।
  • केंद्र सरकार ने सभी शक्तियों का दुरुपयोग किया, समाचार पत्रों के दफ्तरों की बिजली काट दी गई, विपक्षी दलों के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
आपातकाल का प्रभाव(Impact of Emergency)
  • सरकार ने “प्रेस सेंसरशिप” के माध्यम से प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया और इसे प्रकाशित करने से पहले इसकी स्वीकृति प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया।
  • विरोध, हड़ताल और सार्वजनिक आंदोलन की अनुमति नहीं थी।
  • संवैधानिक उपचार का मौलिक अधिकार निलंबित कर दिया गया ।
  • सामाजिक और सांप्रदायिक सद्भाव में गड़बड़ी की आशंका पर आर.एस.एस., जमात-ए-इस्लामी जैसे धार्मिक और सांस्कृतिक संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
  • सरकार ने निवारक निरोध( preventive detention) प्रावधान का दुरुपयोग किया, विपक्षी दलों के राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया ।
  • निवारक निरोध के तहत गिरफ्तार व्यक्ति इस तरह के कदम को चुनौती नहीं दे सकते क्योंकि संवैधानिक उपचार का अधिकार निलंबित हो जाता है।
  • आपातकालीन शासन के दौरान ऐसी कठोर परिस्थितियों के कारण, जिन लोगों को पद्म श्री और अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, उन्होंने लोकतंत्र के निलंबन के विरोध में इन सम्मानों को वापस कर दिया।
  • यातना और हिरासत में होने वाली मौतें, गरीब लोगों का मनमाना स्थानांतरण, आपात स्थिति के दौरान जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए अनिवार्य नसबंदी लागू करना ।
  • बिना सरकारी पद के लोगों ने प्रशासन की शक्तियों का दुरुपयोग किया और सरकार के कामकाज में दखल दिया।
जबरन नसबंदी(Forced Sterilisation)
  • आपातकाल के दौरान, नागरिक स्वतंत्रता को निलंबित कर दिया गया था। इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी ने एक पाँच सूत्री कार्यक्रम तैयार किया था जिसमें परिवार नियोजन, वनीकरण, दहेज उन्मूलन, झुग्गी-झोपड़ी की सफाई और अशिक्षा को दूर करना शामिल था।
  • इसके बाद नसबंदी तथाकथित “बाध्यकारी” (मजबूरी और अनुनय के संयोजन) कर दी गई ।
  • जल्दबाजी और विपरीत परिस्थितियों में नसबंदी कराई गई, बाद में संक्रमण से कई पुरुषों और महिलाओं की मौत हो गई ।
  • इस प्रकार, निर्दोष भारतीय जनता को अभद्रता, क्रूरता और निर्दयता के रूप में चिह्नित इस अपमानजनक कृत्यो का शिकार होना पड़ा ।
  • जल्द ही जबरन नसबंदी तकनीक पर सार्वजनिक गुस्सा पूरे देश में दंगों का कारण बना। इंदिरा गांधी ने 1977 में इस अभियान पर रोक लगा दिया।
  • यह 1977 के आम चुनावों में प्रधानमंत्री के पद से उनके हार के प्रमुख कारणों में से एक माना जा सकता है।
आपातकाल के दौरान 20 सूत्री कार्यक्रम

जुलाई 1975 में इंदिरा गांधी ने 20 सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की थी |

  • भूमिहीन मजदूरों, छोटे किसानों और ग्रामीण कारीगरों के मौजूदा ऋणों का परिसमापन करना ।
  • भूमिहीन मजदूरों, छोटे किसानों और ग्रामीण कारीगरों के लिए वैकल्पिक ऋण का विस्तार करना।
  • बंधुआ मजदूरी समाप्त करना।
  • मौजूदा कृषि भूमि सीमा कानूनों को लागू करना।
  • भूमिहीन मजदूरों और कमजोर वर्गों को घर ,स्थल प्रदान करना
  • कृषि श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी में संशोधन करना।
  • कीमतों में कमी लाकर हथकरघा उद्योग को विशेष सहायता प्रदान करना|
  • कर चोरी और तस्करी को रोकना।
  • उत्पादन बढ़ाएं और आवश्यक वस्तुओं के वितरण को सुव्यवस्थित करना।
  • आयकर छूट की सीमा ,8000 रुपये तक बढ़ाना।
  • निवेश प्रक्रियाओं को उदार बनाना ।
आपातकाल के दौरान संवैधानिक संशोधन:

आपातकाल के दौरान 38 वें से 42 वें संशोधन पारित किए गए थे।

38 वां संशोधन(38th Amendment)

  • 38 वें संशोधन में आपातकाल की घोषणाओं की समीक्षा, अतिव्यापी घोषणाओं की न्यायिक समीक्षा, राष्ट्रपति या राज्यपालों द्वारा प्रख्यापित अध्यादेशों और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानूनों पर रोक लगा दी गई ।

39 वाँ संशोधन(39th Amendment)

  • 39वां संशोधन- इंदिरा गांधी मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले की पृष्ठभूमि के संशोधन में घोषणा की गई कि प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। इस संशोधन को न्यायिक समीक्षा से परे नौवीं अनुसूची में रखा गया था ।

41 वां संशोधन(41st Amendment)

  • 41 वें संशोधन में कहा गया है कि किसी भी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या राज्यपाल के खिलाफ उनके पद की शर्तों से पहले या उसके दौरान कोई आपराधिक कार्यवाही नहीं हो सकती ।

42 वाँ संशोधन(42nd Amendment)

  • 42 वां संशोधन:
    • संसद को संविधान बदलने के लिए असंयत शक्तियां दी |
    • केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को अमान्य कर दिया गया कि सरकार संविधान के मूल ढांचे को नहीं बदल सकती है।
    • भारत को एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, गणराज्य राष्ट्र घोषित किया गया और नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों को निर्धारित किया।
    • देश में विधायिका की अवधि 5 से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दी गई थी, इसके अलावा, आपात स्थिति के दौरान; चुनाव एक साल तक स्थगित किए जा सकते हैं।
  • प्रारंभ में, अधिकांश लोगों ने आपातकाल को स्वीकार कर लिया। लोगों की स्वीकार्यता में एक प्रमुख कारक इसका संवैधानिक, कानूनी और लौकिक चरित्र था ।
  • 1976 की शुरुआत से, आपातकाल अलोकप्रिय होने लगा ।
  • बुद्धिजीवियों का मानना है कि 42 वां संशोधन लोकतंत्र को कमजोर करने का प्रयास था-आपातकाल ने अपनी वैधता खोनी शुरू कर दी ।
  • आपातकाल की बढ़ती अलोकप्रियता का एक बड़ा कारण सत्ता के अतिरिक्त संवैधानिक केंद्र का विकास था-संजय गांधी की राजनीतिक शक्ति में वृद्धि ।
आपातकाल का अंत(End of Emergency) –
  • एक जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने घोषणा की थी कि लोकसभा के चुनाव मार्च में कराए जाएंगे ।
  • राजनीतिक कैदियों को रिहा करने का फैसला लिया गया ।
  • 16 मार्च 1977 को चुनाव हुए – कांग्रेस पराजित हुई ।
  • 21 मार्च 1977 को आपातकाल समाप्त हो गया ।
आपातकाल लगाने का सरकारी औचित्य(Government Justification for imposing Emergency)
  • भारत की स्थिरता, सुरक्षा, अखंडता और लोकतंत्र,JP आंदोलन के विघटनकारी चरित्र से खतरे में थी ।
  • गरीबों और वंचितों के हितों में तीव्र आर्थिक विकास के कार्यक्रम को लागू करने की जरूरत थी।
  • भारत को कमजोर और अस्थिर करने के उद्देश्य से विदेशों से हस्तक्षेप किया गया ।
आपातकाल की आलोचनाएँ(Criticisms of Emergency)
  • परिवार को आरोप की अधिसूचना दिए बिना ही पुलिस द्वारा लोगों को हिरासत में लेना ।
  • बंदियों और राजनीतिक बंदियों के साथ दुर्व्यवहार और प्रताड़ना ।
  • सरकारी प्रचार के लिए सार्वजनिक और निजी मीडिया संस्थानों का उपयोग ।
  • जबरन नसबंदी |
  • पुरानी दिल्ली के तुर्कमेन गेट और जामा मस्जिद क्षेत्र में झुग्गी और कम आय वाले आवास का विध्वंस ।
  • कानून का बड़े पैमाने पर अधिनियमन ।
आपातकाल का विश्लेषण(Analysis of Emergency)
  • इंदिरा गांधी ने आपातकाल की उद्घोषणा से पूरे देश और दुनिया को दंग कर दिया। इससे लाखों जिंदगियां प्रभावित हुईं और पूरा देश तूफान का केंद्र बन गया था जिसने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा । एक झटके के साथ ही धरती पर सबसे बड़ा लोकतंत्र तानाशाही के स्तर तक नीचे आ गया ।
  • आपातकाल 21 महीने (1975-1977) तक चला और यह भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला दौर रहा ।
  • साथ ही अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार निलंबित कर दिया गया ।
  • यह न्यायपालिका का सबसे काला दौर भी था जिसने भारतीय न्यायपालिका में अविश्वास को जन्म दिया ।
  • आपातकाल के दौरान उल्लंघन किए जाने वाले प्रमुख अधिकारों में से एक बंदी प्रत्यक्षीकरण(Habeas Corpus) भी था।
  • मई 1977 में, न्यायमूर्ति जे पी शाह (सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश) की अध्यक्षता में, जनता सरकार द्वारा आपातकाल के मद्देनजर किए गए अधिकार के दुरुपयोग, कदाचार और कार्रवाई के आरोप के कई पहलुओं की जांच के लिए एक जांच आयोग की नियुक्ति की गई थी ।
  • शाह आयोग ने गवाहों की गवाही के आधार पर तीन रिपोर्ट दी।
  • रिपोर्ट को सरकार ने स्वीकार कर लिया।
  • इसके बाद संवैधानिक (44 वां संशोधन) अधिनियम, 1978 आया जिसने राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किए गए अधिकांश बदलावों को उलट दिया ।
  • लेकिन आपातकाल की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के इस अंधेरे चरण के कारण भारतीय अपने अधिकारों के बारे में जागरूक हो गए और कुशलतापूर्वक मतदान करने के अपने अधिकार का उपयोग करने लगे ।
  • साथ ही गठबंधन सरकार का युग भी कुछ वर्षों बाद शुरू हुआ। गठबंधन सरकारों के कुछ फायदे भी हैं,यह निरंकुश शासन और एक पार्टी के एकाधिकार को दबा देता है ।

नक्सलीआंदोलन

 

पृष्ठभूमि(Background)-
  • CPM मूल रूप से क्रांतिकारी राजनीति और सुधारवादी संसदीय राजनीति के मतभेदों के आधार पर 1964 में संयुक्त CPI से अलग हो गई थी।
  • व्यावहारिक रूप से, सीपीएम ने 1967 के चुनावों के बाद, सशस्त्र संघर्ष को स्थगित करते हुए, संसदीय राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लिया और पश्चिम बंगाल में एक गठबंधन सरकार बनाई।
  • हालांकि पार्टी के युवा कार्यकर्ता पूरे देश के लिए एक क्रांतिकारी सशस्त्र संघर्ष चाहते थे । इसलिए CPM के इन विद्रोही नेताओं ने उत्तरी पश्चिम बंगाल के छोटे नक्सलबाड़ी इलाके में किसान विद्रोह शुरू किया।
  • CPM नेतृत्व ने बागी नेताओं को तत्काल निष्कासित कर नक्सलबाड़ी विद्रोह को दबा दिया।
  • CPM से अलग हुए नेताओं को नक्सली कहा जाने लगा।
CPI-ML और नक्सली आंदोलन का गठन
  • 1969 में चारू मजूमदार और कानू सान्याल के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी{Communist Party Marxist-Leninist (ML)} का गठन किया गया ।
  • यह कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में सशस्त्र किसानो को संगठित करने और शासक वर्गों के कार्यकर्ता (एजेंट) के रूप में पुलिसकर्मियों और प्रतिद्वंद्वी कम्युनिस्टों पर हमला करने में सफल रहा ।
  • नक्सली आंदोलन का एक उद्देश्य हिंसा के माध्यम से लोकतांत्रिक निर्वाचित सरकार को उखाड़ फेंकना और भारत में कम्युनिस्ट सरकार की स्थापना करना था ।
  • भले ही तत्कालीन सरकार और उसके बाद की सरकारें नक्सली खतरे को नियंत्रित करने के लिए प्रयासरत रहीं, लेकिन यह सफल नहीं हुई बल्कि यह देश के कई अन्य हिस्सों में फैल गई ।
  • अभी भी लगभग नौ राज्यों के 75 से अधिक जिले नक्सल आंदोलन से प्रभावित हैं।
भारत में सांप्रदायिकता की घटनाएं(COMMUNALISM EVENTS IN INDIA

पृष्ठभूमि(Background)-

  • सांप्रदायिकता की समस्या तब शुरू होती है जब किसी धर्म को राष्ट्रीय एकता और अस्मिता के आधार के रूप में देखा जाता है।
  • सांप्रदायिक राजनीति इस विचार पर आधारित है कि धर्म सामाजिक समुदाय का प्रमुख आधार है।
  • सांप्रदायिकता हमारे देश में लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौतियों में से एक थी और बनी हुई है । राष्ट्रों के संस्थापक धर्मनिरपेक्ष भारत चाहते थे, इसलिए उन्होंने कड़ाई से भारत के आधिकारिक धर्म की घोषणा करने से परहेज किया और विभिन्न धर्मों के सभी अनुयायियों को समान स्वतंत्रता प्रदान की ।
  • यहां हम सांप्रदायिक राजनीति की कुछ प्रमुख घटनाओं पर चर्चा करेंगे।
  • भारत में साम्प्रदायिक घटनाए
    • अयोध्या विवाद
    • सिख विरोधी दंगे
    • गुजरात दंगे 2002
    • मुजफ्फरनगर दंगे 2013
    • दिल्ली दंगे 2019

 

1990 के दशक में अयोध्या विवाद(Ayodhya Dispute 1990s)
  • अयोध्या में बाबरी मस्जिद के नाम से जानी जाने वाली मस्जिद को लेकर कई दशकों से विवाद चल रहा था, जिसे मुग़ल बादशाह बाबर के सेनापति मीर बाक़ी तशकंडी ने बनवाया था।
  • कुछ हिंदुओं का मानना है कि इसे भगवान राम के एक मंदिर को ध्वस्त करने के बाद बनाया गया था जिसे उनकी जन्मस्थली माना जाता है।
  • विवाद अदालत तक पहुंच गया और 1940 के दशक में मस्जिद को बंद कर दिया गया क्योंकि मामला अदालत के पास था । फरवरी 1986 में फैजाबाद जिला अदालत ने आदेश दिया कि बाबरी मस्जिद परिसर को खुला रखा जाए ताकि हिंदू लोग उस प्रतिमा की पूजा कर सकें जिसे वे मंदिर मानते थे।
  • दरवाजे का ताला खोलने के साथ ही दोनों तरफ सांप्रदायिक आधार पर लामबंदी शुरू हो गई । धीरे-धीरे स्थानीय मुद्दा राष्ट्रीय मुद्दा बन गया और सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया ।
  • दिसंबर, 1992 में हिंदू दक्षिणपंथी गुट जैसे विहिप, बजरंग दल आदि करसेवक राम मंदिर बनाने के लिए भक्तों द्वारा स्वैच्छिक सेवा के नाम पर अयोध्या पहुंचे।
  • इस बीच सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि विवादित स्थल खतरे में न पड़े। हालांकि, हजारों लोग वहां पहुंचे और 06 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया और इसके बाद बड़े पैमाने पर देश में सांप्रदायिक दंगे हुए, जिसमें बहुत से लोग मारे गए।
  • तब केंद्र सरकार ने राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया था और मस्जिद को गिराने के लिए परिस्थितियों की जांच हेतु लिब्रेहान आयोग नियुक्त किया था ।
  • तब से यह मुद्दा शीर्ष अदालत में लंबित था और अंत में सुप्रीम कोर्ट ने 9 नवंबर, 2019 को अपना फैसला सुनाया।
  • मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के नेतृत्व वाली पांच न्यायाधीशों की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए राम जन्मभूमि के पक्ष में फैसला सुनाया और कहा कि विवादित स्थल पर राम मंदिर होगा और मुसलमानों को उनकी मस्जिद के लिए 5 एकड़ जमीन दी जाएगी।
गुजरात दंगे, (Gujarat Riots) 2002
  • फरवरी और मार्च 2002 के महीनों में, गुजरात में इतिहास के सबसे बड़े सांप्रदायिक दंगों हुए। दंगों की शरुआत गोधरा स्टेशन से हुआ , जहां कारसेवकों के साथ अयोध्या से लौट रही ट्रेन की एक बोगी में आग लगा दी गई थी ।
  • जिसके फलस्वरूप हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच गुजरात के कई हिस्सों में बड़े पैमाने पर हिंसा फैलाई गई।

Note: सिख विरोधी दंगे, 1984 – (हम आगामी अध्याय,’ पंजाब मुद्दे में इस मुद्दे को शामिल करेंगे)

असम हिंसा (Assam violence (2012)):
  • आजीविका, जमीन और राजनीतिक शक्ति पर प्रतिस्पर्धा बढ़ने के कारण बोडो और बंगाली भाषी मुसलमानों के बीच अक्सर टकराव(झड़पें) होता था ।
  • 2012, में कोकराझार में दंगा हो गया था, जब अज्ञात बदमाशों ने जोयपुर में चार बोडो युवकों की हत्या कर दी थी ।
  • इसके बाद स्थानीय मुस्लिमों पर जवाबी हमले हुए जिसमें दो की मौत हो गई और उनमें से कई घायल हो गए । लगभग 80 लोग मारे गए, जिनमें से ज्यादातर बंगाली मुसलमान और कुछ बोडो थे । लगभग, 400,000 लोगों को अस्थायी शिविरों में विस्थापित किया गया ।
मुजफ्फरनगर दंगे(Muzzafarnagar Riots) (2013):
  • उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हिंदू जाटों और मुस्लिम समुदायों के बीच झड़पों में कम से कम 62 लोगों की मौत हो गई, 93 लोग घायल हो गए और 50,000 से अधिक विस्थापित हो गए।
  • पिछले 20 वर्षों में पहली बार राज्य में सेना तैनात किए जाने के साथ ही दंगे को “उत्तर प्रदेश के हाल के इतिहास में सबसे “भयानक हिंसा” के रूप में वर्णित किया गया है।
दिल्ली दंगे(Delhi Riots) 2019
  • 2019 में नई दिल्ली (राष्ट्रीय राजधानी) के इतिहास में सबसे बडी सांप्रदायिक हिंसा देखी गई ।
  • नई दिल्ली 2020 के दंगों का आधार नागरिकता (संशोधन) अधिनियम और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की पृष्ठभूमि में भ्रम उत्पन्न करना और सांप्रदायिक सद्भाव को अस्थिर करने पर आधारित है।
भोपाल गैस त्रासदी(BHOPAL GAS TRAGEDY)1984
  • 1970 में यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (UCIL), यूनियन कार्बाइड और कार्बन कॉर्पोरेशन ( अमेरिकी बहुराष्ट्रीय ) की सहायक कंपनी ने भोपाल में एक कीटनाशक संयंत्र की स्थापना की।
  • संयंत्र ने मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) का उपयोग करके एक कीटनाशक सेविन (कार्बेरिल) का उत्पादन किया। 1976 के बाद से इसमें कई मामूली लीक (leaks)की सूचना मिली थी लेकिन प्रशासन ने उनकी अनदेखी की ।
  • 2-3 दिसंबर, 1984 की रात को तीन टैंकों में संग्रहित 45 टन खतरनाक गैस मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC), भोपाल प्लांट के चारों ओर घनी आबादी वाले इलाकों में रिसाव होने लगी, जिससे हजारों लोगों की तुरंत मौत हो गई तथा स्थिति काफी भयानक हो गई जिसके फलस्वरूप10000 से अधिक लोगों ने भोपाल से निकल जाने का प्रयास किया।
  • उस दौरान राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे।
  • यह रासायनिक त्रासदी भारत के इतिहास में देखी गई सबसे खराब औद्योगिक आपदा थी और शायद उस समय दुनिया की सबसे खराब औद्योगिक आपदा थी ।
  • आधिकारिक अनुमानों के अनुसार, इसने 2259 लोगों की मृत्यु , 6 लाख लोग घायल हुए तथा कई स्थायी रूप से अक्षम हो गए।
  • हालांकि, अनौपचारिक रूप से ऐसा माना गया है कि इसमें लगभग 20,000 लोगों की मौत हुई ।
  • लगभग आधा मिलियन लोगों को श्वसन समस्याओं, आंखों में जलन या अंधापन, और विषाक्त गैस के संपर्क में आने के कारण अन्य विकृतियों का सामना करना पड़ा।
  • 2004 में दूषित भूजल के कारण, भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने राज्य को आदेश दिया कि ,भोपाल के निवासियों को स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति की जाए।
  • 2010 में, यूनियन कार्बाइड की भारत सहायक कंपनी के कई पूर्व अधिकारियों को भोपाल की एक अदालत ने आपदा के दौरान लापरवाही का दोषी ठहराया।
शाह बानो केस(SHAH BANO CASE)

पृष्ठभूमि(Background)-

  • इंदौर की रहने वाली 62 वर्षीय एक मुस्लिम महिला ‘शाहबानो’ जो 5 बच्चों की मां थी को उनके पति ने 1978 में तलाक दे दिया। उसने सुप्रीम कोर्ट में एक मुकदमा दायर कर अपने पति से मुआवजे की मांग की।
  • सुप्रीम कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 को लागू किया, जो सभी को अपनी जाति, वर्ग, पंथ या धर्म की परवाह किए बिना लागू होती है, और शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया, यह आदेश दिया कि उन्हें गुजारा भत्ता की तरह संरक्षण राशि( धन ) दिया जाए।
  • इस मामले को मील का पत्थर माना गया क्योंकि यह व्यक्तिगत कानून की व्याख्या के आधार पर मामलों का निर्णय लेने की सामान्य परिपाटी से एक कदम आगे था और समान नागरिक संहिता को लागू करने की आवश्यकता पर भी ध्यान देता था । इसमें विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों और धार्मिक सिद्धांतों के मामलों में लैंगिक समानता और दृढ़ता के मुद्दे को पहचानने और उनका समाधान करने की जरूरत पर भी ध्यान दिया गया ।
  • यह फैसला बहुत विवादास्पद हो गया और मुस्लिमों के विभिन्न वर्गों द्वारा कई विरोध प्रदर्शन हुए ।
  • मुसलमानों ने महसूस किया कि यह फैसला उनके धर्म पर हमला था, और उनके पास अपने धार्मिक व्यक्तिगत कानून होने का अधिकार था। इन विरोध प्रदर्शनों में सबसे आगे ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड था।
मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम,(The Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act,) 1986
  • मुसलमानों के दबाव में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने एक ऐसा कानून पेश किया जिसने सुप्रीम कोर्ट का फैसला सुरक्षित रखा।
  • संसद ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया जिसने उच्चतम न्यायालय के फैसले को निरस्त कर दिया।
  • इस अधिनियम ने इस्लामी कानून के प्रावधानों के अनुसार तलाक (iddat) के बाद केवल 90 दिनों की अवधि के लिए एक तलाकशुदा महिला को रखरखाव {संरक्षण राशि( धन )}की अनुमति दी ।
  • इसलिए पति द्वारा भरण-पोषण का भुगतान करने की जिम्मेदारी केवल इद्दत(iddat) की अवधि तक ही सीमित थी।
  • इस अधिनियम की कई विशेषज्ञों ने भारी आलोचना की क्योंकि यह महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने का एक बड़ा अवसर था, लेकिन कानून ने मुस्लिम महिलाओं के सामने असमानता और शोषण का समर्थन किया ।
  • कोर्ट के निर्देश के मुताबिक समान नागरिक संहिता के क्रियान्वयन पर काम करने के बजाय सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए संशोधन lकिया ।
  • विपक्षी दलों ने अधिनियम की आलोचना की और इसे मुस्लिम तुष्टीकरण और वोट बैंक की राजनीति के उद्देश्य से किया गया फैसला, घोषित किया।
बोफोर्स घोटाला(BOFORS SCAM )
  • राजीव गांधी के शासन के दौरान एक और बड़ी घटना रक्षा सौदों से संबंधित एक राजनीतिक घोटाला था।
  • 1980 और 1990 के दशक के दौरान, स्वीडन स्थित एक कंपनी बोफोर्स ने भारत को 410 होवित्जर की आपूर्ति करने के लिए समझोता किया । यह स्वीडन में अब तक का सबसे बड़ा हथियार सौदा था, इसलिए विकास परियोजनाओं के लिए लक्षित धन को ,इस अनुबंध में लगा दिया गया था ।
  • तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी सहित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कई राजनेताओं पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने बोफोर्स से अवैध रूप से रिश्वत प्राप्त किया ।
  • विपक्ष द्वारा जल्द ही ,घोटाले का इस्तेमाल राजीव गांधी पर हमला करने के लिए किया गया।
  • 1987 में कांग्रेस से इस्तीफा देने के बाद वीपी सिंह, जिन्होंने पहले वित्त मंत्री और फिर राजीव गांधी मंत्रिमंडल में रक्षा मंत्री के रूप में कार्य किया था, ने घोटाले और भ्रष्टाचार को 1989 में चुनाव के लिए अपने राजनीतिक अभियान का एक प्रमुख मुद्दा बना दिया।
  • 1989 के चुनाव में बोफोर्स और भ्रष्टाचार का मुद्दा फिर से उठाया गया। हालांकि, संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट ने राजीव गांधी को लगभग क्लीन चिट दे दी थी, लेकिन नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट ने बोफोर्स के अधिग्रहण की प्रक्रिया पर संदेह जताया ।
  • इन निष्कर्षों के मद्देनजर विपक्ष ने राजीव गांधी के इस्तीफे की मांग की। 1989 के चुनाव में कांग्रेस बहुमत हासिल करने में विफल रही और वीपी सिंह ने वाम दलों और BJP के बाहरी समर्थन से गठबंधन की सरकार बनाई।
शिक्षा पर राष्ट्रीय नीति,(NATIONAL POLICY ON EDUCATION) 1986

 

पृष्ठभूमि(Background):
  • मई 1986 में, प्रधान मंत्री राजीव गांधी द्वारा नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NPE) शुरू की गई थी।
  • इसे “असमानताओं को दूर करने और शिक्षा के अवसर को समान करने पर विशेष जोर” के रूप में नामित किया गया था।

उद्देश्यइस नीति का मुख्य उद्देश्य महिला, अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति समुदायों सहित सभी को अध्ययन करने के लिए समतुल्य अवसर प्रदान करना था।

NPE( 1986 ) की मुख्य विशेषताएं:
  • छात्रवृत्ति का विस्तार और प्रौढ़ शिक्षा को बढ़ावा देना।
  • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के अधिक शिक्षकों को रोजगार।
  • गरीब परिवारों को नियमित रूप से अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहन।
  • प्राथमिक शिक्षा के लिए, एनपीई को “बाल केंद्रित दृष्टिकोण”(“child centric approach”) कहा जाता है, फिर राष्ट्रव्यापी प्राथमिक स्कूलों का विस्तार करने के लिए “ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड”(“Operation Blackboard”) शुरू किया गया था ।
  • इस नीति के तहत इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के साथ मुक्त विश्वविद्यालय प्रणाली का विस्तार किया गया था, जिसे 1985 में बनाया गया था।
  • ग्रामीण भारत में जमीनी स्तर पर आर्थिक और सामाजिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिए महात्मा गांधी के दर्शन पर आधारित इस नीति को “ग्रामीण विश्वविद्यालय” मॉडल की मान्यता दी गई थी ।

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