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राज्य विधानमंडल: भाग VI- अनुच्छेद168 से 212 (उड़ान)

राज्य विधानमंडल: भाग VI- अनुच्छेद168 से 212 (उड़ान)

राज्य विधानमंडल का गठन:
  • राज्य विधानमंडल के गठन में कोई एकरूपता नहीं है।
  • केवल 6 राज्यों के विधानमंडल में दो सदन हैं,ये राज्य हैं- आंध्र प्रदेश ,तेलंगाना ,उत्तर प्रदेश ,बिहार, महाराष्ट्र और कर्नाटक।
  • राज्य विधानमंडल का गठन राज्यपाल एवं विधानसभा से मिलकर होता है, और जिन राज्यों में द्विसदनीय व्यवस्था है वहां, विधानमंडल में राज्यपाल, विधान परिषद और विधानसभा होते हैं।

अनुच्छेद 169: संसद एक विधान परिषद को (यदि यह पहले से है) विघटित कर सकती है और इसका गठन भी कर सकती है यदि संबंधित राज्य की विधानसभा इस संबंध में संकल्प पारित करे। संसद का यह अधिनियम अनुच्छेद 368 के प्रयोजनों हेतु संविधान का संशोधन नहीं माना जाएगा और सामान्य विधान की तरह (अर्थात साधारण बहुमत से) पारित किया जाएगा।

विधानसभा का गठन

संख्या

• विधानसभा के प्रतिनिधियों को प्रत्यक्ष मतदान से वयस्क मताधिकार के द्वारा निर्वाचित किया जाता है।

• इसकी अधिकतम संख्या 500 और निम्नतम संख्या 60 तय की गई है।

• अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम एवं गोवा के मामले में यह संख्या 30 तय की गई है।

• मिजोरम– 40 व नागालैंड-46

• सिक्किम और नागालैंड के कुछ सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से भी चुने जाते हैं।

Note: सभी राज्यों के विधानसभा के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं, सिक्किम और नागालैंड को छोड़ कर।

नामित सदस्य
  • संविधान के अनुच्छेद 334 के तहत राज्यपाल आंग्ल भारतीय समुदाय में से एक सदस्य को नामित कर सकता है। 104वें संविधान संशोधन (2019) ने एंग्लोइंडियंस को दिए गए इस आरक्षण को समाप्त कर दिया।
क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्र
  • प्रत्यक्ष निर्वाचन के लिए।
  • हर राज्य को क्षेत्रीय विभाजन के आधार पर बांट दिया गया है। इन चुनाव क्षेत्रों का निर्धारण राज्य को आवंटित सीटों की संख्या और जनसंख्या के अनुपात से तय किया जाता है। संविधान में यह सुनिश्चित किया गया है कि राज्य के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों को सामान प्रतिनिधित्व मिले।
प्रत्येक जनगणना के बाद पुनर्निर्धारण
  • प्रत्येक राज्य के विधानसभा क्षेत्रों के हिसाब से सीटों का निर्धारण और हर राज्य का निर्वाचन क्षेत्रों के हिसाब से विभाजन होता है।
  • संसद को अधिकार है कि वह संबंधित मामले का निर्धारण करें।

अनुसूचित जाति/ जनजाति के लिए स्थानों का आरक्षण

  • संविधान में राज्य की जनसंख्या के अनुपात के आधार पर प्रत्येक राज्य की विधानसभा के लिए अनुसूचित जाति /जनजाति के सदस्यों हेतु सीटों की व्यवस्था की गई है।
  • मूल रूप से यह आरक्षण 10 वर्ष के लिए था लेकिन इस व्यवस्था को हर बार 10 वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया।
  • 104वें संशोधन अधिनियम, 2019 द्वारा इसे 2030 तक के लिए बढ़ा दिया गया है।

Note: अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए सीटों का आरक्षण केवल लोकसभा और राज्य विधानसभा में है, राज्यसभा और राज्यविधान परिषद में नहीं।

कार्यकाल

  • सामान्य कार्यकाल 5 वर्ष का है किंतु संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत संसद द्वारा आपातकालीन स्थिति में इसका कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है।
  • राज्य के राज्यपाल इसे किसी भी समय भंग कर सकते हैं।

विधान परिषद का गठन
संख्या o विधान परिषद में अधिकतम सदस्यों की संख्या विधानसभा सदस्यों की एक तिहाई निर्धारित की गई है।

o जिसमें न्यूनतम सदस्यों की संख्या 40 निश्चित की गई है।

o सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते हैं।

o यद्यपि संविधान ने परिषद की अधिकतम एवं न्यूनतम संख्या तय कर दी है, परंतु इसकी वास्तविक संख्या का निर्धारण संसद द्वारा किया जाता है।

निर्वाचन के सिद्धांत

विधान परिषद के कुल सदस्यों में से 5/ 6 सदस्यों का अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव होता है।

1/ 3 सदस्य स्थानीय निकायों जैसेनगर पालिका, जिला बोर्ड आदि के द्वारा चुने जाते हैं।

1/3 सदस्यों का चुनाव विधानसभा के सदस्यों द्वारा किया जाता है।

1/12 सदस्यों को राज्य में रह रहे, 3 वर्षों की स्नातक डिग्री प्राप्त करने वाले मतदाता निर्वाचित करते हैं।

1/12 सदस्यों का निर्वाचन 3 वर्ष से अध्यापन कर रहे लोग चुनते हैं लेकिन यह अध्यापक माध्यमिक स्कूलों से कम के नहीं होने चाहिए।

1/6 सदस्यों का नामांकन राज्यपाल द्वारा उन लोगों के बीच से किया जाता है जिन्हेंसाहित्य, ज्ञान, कला, सहकारिता, आंदोलन और समाज सेवा का विशेष ज्ञान व व्यावहारिक अनुभव हो।

• राज्यपाल द्वारा नामित किए गए सदस्यों के अलावा,सदस्य एकल संक्रमणीय मत के द्वारा समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के माध्यम से चुने जाते हैं।

कार्यकाल • विधानपरिषद एक सतत् सदन है अर्थात स्थाई अंग जो विघटित नहीं होता है।

• लेकिन इसके एक तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष में सेवानिवृत्त होते रहते हैं।

• सेवानिवृत्त सदस्य भी पुनर्चुनाव और राज्यपाल द्वारा दोबारा नामांकन हेतु योग्य होते हैं।

राज्य विधानमंडल की सदस्यता

अर्हताएं

विधानमंडल का सदस्य चुने जाने के लिए संविधान में उल्लिखित किसी व्यक्ति की अर्हताएं निम्नलिखित हैं:

  • उसे भारत का नागरिक होना चाहिए;
  • उसे चुनाव आयोग द्वारा अधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष शपथ लेनी पड़ती है;
  • विधानपरिषद के लिए कम से कम आयु 30 वर्ष होनी चाहिए जबकि
  • विधानसभा के लिए उसकी आयु कम से कम 25 वर्ष होनी चाहिए।
  • उसमें संसद द्वारा निर्धारित अन्य अहर्ताएं भी होनी चाहिए।
जनप्रतिनिधित्व अधिनियम1951 के तहत संसद ने निम्नलिखित अतिरिक्त अहर्ताओं का निर्धारण किया है:

• विधान परिषद में निर्वाचित होने वाला व्यक्ति विधानसभा का निर्वाचन होने की अर्हता रखता हो और उसमें राज्यपाल द्वारा नामित होने के लिए संबंधित राज्य का निवासी होना चाहिए।

• विधानसभा सदस्य बनने वाला व्यक्ति संबंधित राज्य के निर्वाचन क्षेत्र में मतदाता भी होना चाहिए।

• अनुसूचित जाति /जनजाति का सदस्य होना चाहिए यदि वह अनुसूचित जाति /जनजाति की सीट के लिए चुनाव लड़ता है। यद्यपि अनुसूचित जाति या जनजाति का सदस्य उस सीट के लिए भी चुनाव लड़ सकता है जो उसके लिए आरक्षित न हो।

निरर्हताएं

संविधान के अनुसार:

• यदि वह केंद्र या राज्य सरकार के तहत किसी लाभ के पद पर है।

• यदि वह विकृत चित्त है और सक्षम न्यायालय की ऐसी घोषणा विद्यमान है।

• यदि वह अनुन्मोचित दिवालिया हो।

• यदि वह भारत का नागरिक न हो या उसने विदेश में कहीं स्वेच्छा से नागरिकता अर्जित कर ली हो।

• यदि संसद द्वारा निर्मित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन निरर्हित कर दिया जाता है।

Note:उपरोक्त निरर्हताओं के संबंध में किसी सदस्य के प्रति यदि प्रश्न उठे तो राज्यपाल का निर्णय अंतिम होगा। हालांकि इस मामले में वह चुनाव आयोग की सलाह लेकर काम करता है।

दलबदल के आधार पर निरर्हता • संविधान की 10वीं अनुसूची के प्रावधानों के तहत निरर्हता घोषित किया गया है।

Note: संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत यदि निरर्हता का मामला उठे तो विधानपरिषद के मामले में सभापति एवं विधानसभा के मामले में अध्यक्ष (राज्यपाल नहीं) फैसला करेगा।

• किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू मामला में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि सभापति /अध्यक्ष का फैसला न्यायिक समीक्षा की परिधि में आता है।

शपथ या प्रतिज्ञान 1. विधानमंडल के प्रत्येक सदन का प्रत्येक सदस्य सदन में सीट ग्रहण करने से पहले राज्यपाल या उसके द्वारा इस कार्य के लिए नियुक्त व्यक्ति के समक्ष शपथ या प्रतिज्ञान लेगा।

2. बिना शपथ लिए कोई भी सदस्य सदन में न तो मत दे सकता है और न ही कार्यवाही में भाग ले सकता है।

स्थानों का रिक्त होना

o दोहरी सदस्यता: एक व्यक्ति एक समय में विधानमंडल के दोनों सदनों का सदस्य नहीं हो सकता यदि कोई व्यक्ति दोनों सदनों के लिए निर्वाचित होता है तो राज्य विधानमंडल द्वारा निर्मित विधि के उपबधों के तहत एक सदन से उसकी सीट रिक्त हो जाएगी।

o निरर्हता जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत या संविधान के तहत या संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत।

o त्यागपत्र कोई सदस्य अपना लिखित इस्तीफा विधान परिषद के मामले में सभापति और विधानसभा के मामले में अध्यक्ष को दे सकता है। त्यागपत्र स्वीकार होने पर उसका पद रिक्त हो जाएगा।

o अनुपस्थिति यदि कोई सदस्य बिना पूर्व अनुमति के 60 दिन तक बैठकों से अनुपस्थित रहता है तो सदन उसके पद को रिक्त घोषित कर सकता है।

o अन्य मामले: किसी सदस्य का पद रिक्त हो सकता है; यदि न्यायालय द्वारा उसके निर्वाचन को अमान्य ठहरा दिया जाए, यदि उसे सदन से निष्कासित कर दिया जाए, यदि वह राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के पद पर निर्वाचित हो जाए और यदि वह किसी राज्य का राज्यपाल निर्वाचित हो जाए।

विधानमंडल के पीठासीन अधिकारी :
  • विधानसभा: अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सभापति का पैनल।
  • विधानपरिषद: सभापति, उपसभापति और उपसभाध्यक्ष का पैनल।

विधानसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष

विधानसभा के सदस्य अपने सदस्यों के बीच से ही अध्यक्ष का निर्वाचन करते हैं। सामान्यतः विधान सभा के कार्यकाल तक अध्यक्ष का पद होता है। अध्यक्ष के निर्वाचन के बाद उपाध्यक्ष का निर्वाचन होता है। हालांकि वह निम्नलिखित तीन मामलों में अपना पद रिक्त करता है (दोनों पर लागू):

  • यदि उसकी विधानसभा सदस्यता समाप्त हो जाए।
  • अध्यक्ष, उपाध्यक्ष को अपना लिखित में त्यागपत्र दे या उपाध्यक्ष, अध्यक्ष को लिखित में अपना त्यागपत्र दे।
  • यदि विधानसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जाए। इस तरह का कोई प्रस्ताव केवल 14 दिन की पूर्व सूचना के बाद ही लाया जा सकता है।

अध्यक्ष के कार्य एवं शक्तियां

o कार्यवाही एवं अन्य कार्यों को सुनिश्चित करने के लिए वह व्यवस्था एवं शिष्टाचार बनाए रखता है।

o भारत के संविधान का, सभा के नियमों एवं कार्य संचालन की कार्यवाही में, असेंबली में इसकी पूर्व परंपराओं का, और उसके उपबंधों का अंतिम व्याख्याकर्ता है।

o कोरम की अनुपस्थिति में वह विधानसभा की बैठक को स्थगित या निलंबित कर सकता है।

o प्रथम मामले में वह मत नहीं देता लेकिन बराबर मत होने की स्थिति में वह निर्णायक मत दे सकता है।

o सदन के नेता के आग्रह पर वह गुप्त बैठक को अनुमति प्रदान कर सकता है।

o वह इस बात का निर्णय करता है कि कोई विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं। इस प्रश्न पर उसका निर्णय अंतिम होता है।

o दसवीं अनुसूची के उपबंधों के आधार पर किसी सदस्य की निरर्हता को लेकर उठे किसी विवाद पर फैसला देता है।

o वह विधानसभा की सभी समितियों के अध्यक्ष की नियुक्ति करता है और उनके कार्यों का पर्यवेक्षण करता है वह स्वयं कार्यमंत्रणा समिति, नियम समिति एवं सामान्य उद्देश्य समिति का अध्यक्ष होता है।

उपाध्यक्ष o उपाध्यक्ष, अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसके सभी कार्यों को करता है यदि विधानसभा सत्र के दौरान अध्यक्ष अनुपस्थित हो तो वह उसी तरह कार्य करता है। दोनों मामलों में उसकी शक्तियां अध्यक्ष के समान रहती हैं।

सभापति का पैनल:

o विधानसभा अध्यक्ष सदस्यों के बीच से सभापति पैनल का गठन करता है, उनमें से कोई भी एक अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति में सभा की कार्यवाही संपन्न कराता है। जब वह पीठासीन होता है तो, उस समय उसे अध्यक्ष के समान अधिकार प्राप्त होते हैं। वह सभापति के नए पैनल के गठन तक कार्यरत रहता है।

o Note:यदि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष दोनों की सीटें खाली हैं तो पैनल के सदस्य बैठक की अध्यक्षता नहीं कर सकते। उस स्थिति में सदन को अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का निर्वाचन करना आवश्यक होगा।

विधानसभा के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष तथा विधानपरिषद के सभापति एवं उपसभापति के वेतन और भत्ते राज्य विधानमंडल द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। इन्हें राज्य की संचित निधि पर भारित किया जाता है और इसलिए इन पर राज्य विधानमंडल द्वारा वार्षिक मतदान नहीं किया जा सकता।

विधान परिषद का सभापति एवं उपसभापति:
  • विधान परिषद के सदस्य अपने बीच से ही सभापति को चुनते हैं सभापति निम्नलिखित तीन मामलों में पद छोड़ सकता है(दोनों पर लागू):
  • यदि उसकी सदस्यता समाप्त हो जाए।
  • यदि सभापति, उपसभापति को लिखित त्यागपत्र दे या उपसभापति, सभापति को लिखित त्यागपत्र दे।
  • यदि विधान परिषद में उपस्थित तत्कालीन सदस्य बहुमत से उसे हटाने का संकल्प पास कर दें। इस तरह का प्रस्ताव 14 दिनों की पूर्व सूचना के बाद ही लाया जा सकता है।
  • पीठासीन अधिकारी के रूप में परिषद के सभापति की शक्तियां एवं कार्य विधानसभा के अध्यक्ष की तरह है हालांकि सभापति को एक विशेष अधिकार प्राप्त नहीं है जो अध्यक्ष को है कि अध्यक्ष यह तय करता है कि कोई विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं और उसका फैसला अंतिम होता है जबकि यह शक्ति उपसभापति/ उपाध्यक्ष को प्राप्त नहीं है।
उपसभापति
  • सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति

ही कार्यभार संभालता है।

उपसभापति का पैनल:

  • सभापति सदस्यों के बीच से सभापति पैनल का गठन करता है उनमें से कोई भी एक सभापति एवं उपसभापति की अनुपस्थिति में सभा की कार्यवाही संपन्न कराता है। जब वह पीठासीन होता है तो उस समय उसे सभापति के समान अधिकार प्राप्त होते हैं वह सभापति के नए पैनल के गठन तक कार्यरत रहता है।
  • Note: यदि सभापति और उपसभापति की दोनों सीटें खाली हैं तो पैनल के सदस्य बैठक की अध्यक्षता नहीं कर सकते। उस स्थिति में सदन को सभापति और उपसभापति का निर्वाचन करना आवश्यक होगा।

विधानसभा के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष तथा विधान परिषद के सभापति एवं उपसभापति के वेतन-भत्ते राज्य विधान मंडल द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। इन्हें राज्य की संचित निधि पर भारित किया जाता है और इसलिए इन पर राज्य विधानमंडल द्वारा वार्षिक मतदान नहीं किया जा सकता।

राज्य विधानमंडल सत्र

आहूत करना
  • राज्य विधानमंडल के प्रत्येक सदन को राज्यपाल बैठक का बुलावा भेजता है।
  • दोनों सत्रों के बीच 6 माह से अधिक का समय नहीं होना चाहिए।
स्थगन
  • बैठक को किसी समय विशेष के लिए स्थगित भी किया जा सकता है। यह समय घंटों, दिनों या हफ्तों का भी हो सकता है।
  • अनिश्चित काल तक स्थगन का अर्थ है कि चालू सत्र को अनिश्चित काल तक के लिए समाप्त कर देना।
  • उपरोक्त दोनों तरह के स्थगन का अधिकार सदन के पीठासीन अधिकारी को है।
सत्रावसान
  • पीठासीन अधिकारी अध्यक्ष या सभापति कार्य संपन्न होने पर सत्र के अनिश्चित काल के लिए स्थगन की घोषणा करते हैं। इसके कुछ दिन बाद अध्यक्ष या सभापति सत्रावसान की अधिसूचना जारी करता है। हालांकि सत्र के बीच में भी राज्यपाल सत्रावसान की घोषणा कर सकता है। स्थगन के विपरीत सत्रावसान सदन के सत्र को समाप्त करता है।
विघटन
  • एक स्थायी सदन होने के कारण विधान परिषद कभी विघटित नहीं हो सकती।

विघटन पर अधिनियमों का व्यपगमन

  • व्यपगत होने वाले कुछ विधेयक:
  • अधिनियम व्यपगत या लैप्स हो जाएंगे जो विधानसभा में लंबित हो या विधान परिषद द्वारा प्रेषित हो।
  • वह अधिनियम जो विधानसभा में पास हो जाते हैं किंतु विधान परिषद में लंबित रहते हैं।
  • अधिनियम जो व्यपगत नहीं होते:
  • वह अधिनियम व्यपगत नहीं होंगे जो विधान परिषद में लंबित हो किंतु विधानसभा द्वारा प्रेषित न हो।
  • विधानसभा (एक सदनात्मक) या दोनों सदनों (द्वि सदनात्मक) द्वारा पारित विधेयक लेकिन राज्यपाल या राष्ट्रपति की सहमति के लिए लंबित।
कोरम (गणपूर्ति)
  • किसी भी कार्य को करने के लिए उपस्थित सदस्यों की एक न्यूनतम संख्या को कोरम कहते हैं। यह सदन में 10 सदस्य या कुल सदस्यों का दसवां हिस्सा पीठासीन अधिकारी सहित होता है, इनमें से जो भी ज्यादा हो।
  • यदि सदन की बैठक के दौरान कोरम ना हो तो यह पीठासीन अधिकारी का कर्तव्य है कि सदन को स्थगित करें या कोरम पूरा होने तक सदन को स्थगित रखें।
सदन में मतदान
  • किसी भी सदन की बैठक में सभी मामलों को उपस्थित सदस्यों के बहुमत के आधार पर तय किया जाता है।
  • विशेष बहुमत: विधान परिषद के गठन अथवा स्थगन के लिए अनिवार्य होता है।
  • पूर्ण बहुमत: विधानसभा अध्यक्ष को हटाना या विधान परिषद के सभापति को हटाना।
  • पीठासीन अधिकारी (विधानसभा अध्यक्ष या विधान परिषद के मामले में सभापति) पहले मामले में मत नहीं दे सकते लेकिन बराबर मतों की स्थिति में निर्णायक मत दे सकते हैं।
विधानमंडल में भाषा
  • संविधान के अनुसार: विधानमंडल में कामकाज संपन्न कराने के लिए कार्यालयी भाषा या उस राज्य के लिए हिंदी अथवा अंग्रेजी की घोषणा की जाती है।
  • हालांकि पीठासीन अधिकारी किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकता है।
  • राज्य विधानमंडल यह निर्णय लेने को स्वतंत्र है कि सदन में अंग्रेजी भाषा का उपयोग जारी रखा जाए या नहीं। ऐसा संविधान के प्रारंभ होने के 15 वर्ष बाद (1965) से किया जा सकता है।
मंत्रियों एवं महाधिवक्ता के अधिकार
  • सदन का सदस्य होने के नाते प्रत्येक मंत्री एवं महाधिवक्ता को यह अधिकार है कि वह सदन की कार्यवाही में भाग ले, बोले एवं सदन से संबद्ध समिति जिसके लिए वह सदस्य के रूप में नामित है उसमें वोट देने के अधिकार के बिना भी भाग ले।

विधानमंडल में विधायी प्रक्रिया

  1. साधारण विधेयक:

विधेयक का प्रारंभिक सदन
  • एक साधारण विधेयक विधानमंडल के किसी भी सदन में प्रारंभ हो सकता है (बहुसदनीय विधानमंडल व्यवस्था के अंतर्गत)।
  • विधेयक प्रारंभिक सदन में तीन स्तरों से गुजरता है प्रथम पाठन, द्वितीय पाठन तथा तृतीय पाठन।
  • जब विधानमंडल के दोनों सदन इसे इसके मूल रूप में या संशोधित कर पारित करते हैं तो इसे पारित माना जाता है। एक सदनीय व्यवस्था वाले विधानमंडल में इसे पारित कर सीधे राज्यपाल की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है

दूसरे सदन में विधेयक

  • दूसरे सदन में भी विधेयक उन तीनों स्तरों के बाद पारित होता है, जिन्हें प्रथम वाचन , द्वितीय वाचन एवं तृतीय वाचन कहा जाता है। जब कोई विधेयक विधानसभा से पारित होने के बाद विधान परिषद में भेजा जाता है, तो वहां चार विकल्प होते हैं:

• इसे उसी रूप में (बिना संशोधन के) पारित कर दिया जाए।

• कुछ संशोधनों के बाद पारित कर विचारार्थ इसे विधानसभा को भेज दिया जाए।

• विधेयक को अस्वीकृत कर दिया जाए।

• इस पर कोई कार्यवाही ना की जाए और विधेयक को 3 माह के लिए लंबित रखा जाए।

1. यदि विधान परिषद बिना संशोधन के विधेयक को पारित कर दे या विधानसभा उसके संशोधनों को मान ले तो विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित माना जाता है, जिसे राज्यपाल के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है।

2. इसके अतिरिक्त यदि विधानसभा परिषद के सुझाव को अस्वीकृत कर दे या विधान परिषद ही विधेयक को रोक दे या परिषद 3 महीने तक कोई कार्यवाही ना करें, तब विधानसभा फिर से इसे पारित कर विधान परिषद को भेज सकती है। यदि परिषद दोबारा विधेयक को अस्वीकृत कर दे या उसे उन संशोधनों के साथ पारित कर दें जो विधानसभा को अस्वीकार हो या 1 माह के भीतर पास ना करें तब इसे दोनों सदनों द्वारा पारित माना जाता है।

3. इस तरह साधारण विधेयक पारित करने के संदर्भ में विधानसभा को विशेष शक्ति प्राप्त है। विधान परिषद एक विधि को ज्यादा से ज्यादा 4 माह के लिए रोक सकती है। पहली बार में 3 माह के लिए और दूसरी बार में 1 माह के लिए।

4. संविधान में किसी विधेयक पर असहमति होने के मामले में दोनों सदनों की संयुक्त बैठक का प्रावधान नहीं रखा गया है।

राज्यपाल की स्वीकृति

5. राज्यपाल के पास चार विकल्प होते हैं:

1. वहां विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर दे,

2. वह विधेयक को अपनी स्वीकृति देने से रोके रखें,

3. वह सदन या सदनों के पास विधेयक को पुनर्विचार के लिए भेज दे, और

4. वह राष्ट्रपति के विचारार्थ विधेयक को सुरक्षित रख ले।

6. यदि राज्यपाल विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर दें तो विधेयक अधिनियम बन जाएगा, और संविधि की पुस्तक में दर्ज हो जाता है।

7. यदि राज्यपाल विधेयक को रोक लेता है तो विधेयक समाप्त हो जाता है और अधिनियम नहीं बनता।

8. यदि राज्यपाल विधेयक को पुनर्विचार के लिए भेजता है और दोबारा सदन या सदनों द्वारा इसे पारित कर दिया जाता है एवं पुनः राज्यपाल के पास स्वीकृत के लिए भेजा जाता है तो राज्यपाल को उसे मंजूरी देना अनिवार्य हो जाता है। इस तरह राज्यपाल के पास वैकल्पिक वीटो पावर होता है।

राष्ट्रपति की स्वीकृति

9. राष्ट्रपति के पास तीन विकल्प होते हैं:

• राष्ट्रपति अपनी स्वीकृति दे सकते हैं;

• राष्ट्रपति उसे रोक सकते हैं; तथा

• विधानमंडल के सदन या सदनों को पुनर्विचार हेतु भेज सकते हैं।

10. यदि राष्ट्रपति विधानमंडल के सदन या सदनों को पुनर्विचार के लिए भेजते हैं तो इस पर 6 माह के भीतर इस विधेयक पर पुनर्विचार आवश्यक है यदि विधेयक को उसके मूल रूप में या संशोधित कर दोबारा राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है तो संविधान में इस बात का उल्लेख नहीं है कि राष्ट्रपति इस विधेयक को मंजूरी दे या नहीं।

  1. धन विधेयक(अनुच्छेद 198, 199):

धन विधेयक के संबंध में:

  • धन विधेयक विधान परिषद में पेश नहीं किया जा सकता।
  • केवल राज्यपाल की सिफारिश के बाद ही विधानसभा में लाया जा सकता है।
  • इस तरह का कोई भी विधेयक सरकारी विधेयक होता है और सिर्फ एक मंत्री द्वारा ही लाया किया जा सकता है।

प्रक्रिया:

• विधानसभा द्वारा पारित होने के बाद एक धन विधेयक को विधान परिषद को विचारार्थ के लिए भेजा जाता है।

• विधान परिषद के पास धन विधेयक के संबंध में प्रतिबंधित शक्तियां हैं।

• वह न तो इसे अस्वीकार कर सकती है और न ही इसमें संशोधन कर सकती है।

• विधान परिषद केवल सिफारिश कर सकती है और 14 दिनों में विधेयक को लौटाना भी होता है।

• यदि विधानसभा किसी सिफारिश को मान लेती है तो विधेयक पारित मान लिया जाता है। यदि वह कोई सिफारिश नहीं मानती है तब भी इसे मूल रूप में दोनों सदनों द्वारा पारित मान लिया जाता है। यदि विधान परिषद 14 दिनों के भीतर विधानसभा को विधेयक ना लौटाए तो इसे दोनों सदनों द्वारा पारित मान लिया जाता है।

राज्यपाल की स्वीकृति अंततः जब एक धन विधेयक राज्यपाल के समक्ष पेश किया जाता है तब वह इस पर अपनी स्वीकृति दे सकता है, इसे रोक सकता है या राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकता है लेकिन राज्य विधानमंडल के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता।
राष्ट्रपति की स्वीकृति जब कोई धन विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ के लिए सुरक्षित रखा जाता है तो राष्ट्रपति या तो इसे स्वीकृति दे देता है या इसे रोक सकता है लेकिन इसे राज्य विधानमंडल के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता।

विधान परिषद की स्थिति

विधानसभा से समानता

  • साधारण विधेयकों को पेश करना और पारित करना। यद्यपि दोनों सदनों के बीच असहमति की स्थिति में विधानसभा ज्यादा प्रभावी होती है।
  • राज्यपाल द्वारा जारी अध्यादेश को स्वीकृति (अनुच्छेद 213) देना।
  • मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों का चयन: संविधान के अंतर्गत मुख्यमंत्री सहित अन्य सभी मंत्रियों को विधानमंडल के किसी एक सदन का सदस्य होना चाहिए। तथापि अपनी सदस्यता के बावजूद वह केवल विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
  • संवैधानिक निकायों- जैसे राज्य वित्त आयोग, राज्य लोक सेवा आयोग एवं भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्टों पर विचार करना।
  • राज्य लोक सेवा आयोग के न्याय क्षेत्र में वृद्धि।

विधानसभा से असमानता

  • वित्त विधेयक सिर्फ विधानसभा में पेश किया जा सकता है, विधान परिषद वित्त विधेयक में न संशोधन और न ही इसे अस्वीकृत कर सकती है।
  • कोई विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं, यह तय करने का अधिकार विधानसभा के अध्यक्ष को है।
  • एक साधारण विधेयक को पास करने का अंतिम अधिकार विधानसभा को ही है कुछ मामलों में परिषद इसे अधिकतम 4 माह के लिए रोक सकती है पहली बार में विधेयक को 3 माह और दूसरी बार में 1 माह के लिए रोका जा सकता है।
  • विधान परिषद बजट पर सिर्फ बहस कर सकती है लेकिन अनुदान की मांग पर मतदान नहीं कर सकती, (यह विधानसभा का विशेष अधिकार है)।
  • विधान परिषद अविश्वास प्रस्ताव पारित कर मंत्री परिषद को नहीं हटा सकती।
  • जब एक साधारण विधेयक विधान परिषद से आया हो और विधानसभा में भेजा गया हो, यदि सभा अस्वीकृत कर दे तो विधेयक खत्म हो जाता है।
  • विधान परिषद के सदस्य भारत के राष्ट्रपति और राज्यसभा में राज्य के प्रतिनिधियों के चुनाव में भाग नहीं ले सकती।
  • संविधान संशोधन विधेयक में विधान परिषद प्रभावी रूप में कुछ नहीं कर सकती। इस मामले में भी विधानसभा ही अभिभावी रहती है।
  • अंततः विधान परिषद का अस्तित्व ही विधानसभा पर निर्भर करता है। विधानसभा की सिफारिश के बाद संसद विधान परिषद को समाप्त कर सकती है।

राज्य विधानमंडल के विशेषाधिकार
  • विशेषाधिकार राज्य विधानमंडल के सदनों, इसकी समितियों और इसके सदस्यों को मिलने वाले विशेष अधिकारों, उन्मुक्तियों और छूटों का योग है।
  • विशेषाधिकार इनकी कार्यवाहियों की स्वतंत्रता और प्रभाविता को सुनिश्चित करने के लिए अनिवार्य हैं।
  • यह उन व्यक्तियों को भी प्रदान किया गया है, जो राज्य विधानमंडल के सदन या इसकी किसी समिति की कार्यवाही में बोलने और भाग लेने के लिए अधिकृत हैं।

NOTE: यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि राज्य विधान मंडल के विशेषाधिकार राज्यपाल को प्राप्त नहीं होते हैं, जो कि राज्य विधानमंडल,का अभिन्न अंग है।

सामूहिक विशेषाधिकार

  • इसे यह अधिकार है कि यह अपने प्रतिवेदनों, वाद- विवाद और कार्यवाहीयों को प्रकाशित करें और यह अधिकार भी है कि अन्यों को इसके प्रकाशन से प्रतिबंधित करें।
  • यह अपरिचितों को इसकी कार्यवाइयों से अपवर्जित कर सकती है और कुछ महत्वपूर्ण मामलों में गुप्त बैठक कर सकती है।
  • यह अपने प्रक्रिया और कार्य संचालन नियमों में विनियमन कर सकती है और ऐसे मामलों पर निर्णय ले सकती है।
  • यह भर्त्सना, फटकार या कारावास (सदस्यों के मामले में निलंबन या निष्कासन कर सकती है) द्वारा विशेषाधिकारों के उल्लंघन या सभा की अवमानना के लिए सदस्यों सहित बाह्य व्यक्तियों को दंडित कर सकती है।
  • इसे सदस्य के पकड़े जाने, गिरफ्तार होने, दोषसिद्धि, कारावास और छोड़े जाने के संबंध में तत्काल सूचना प्राप्त करने का अधिकार है।
  • यह जांच प्रारंभ कर सकती है और साक्षियों को उपस्थित होने का आदेश दे सकती है और संगत पत्रों और रिकार्डों को भेज सकती है।
  • न्यायालय, सभा या इसकी समितियों की जांच नहीं कर सकती।
  • पीठासीन अधिकारी की अनुमति के बिना किसी व्यक्ति (सदस्य या बाह्य) को गिरफ्तार और किसी, विधिक प्रक्रिया (सिविल या आपराधिक) को सभा परिसर में नहीं किया जा सकता।

व्यक्तिगत विशेषाधिकार

• उन्हें सदन चलने के 40 दिन पहले और 40 दिन बाद तक गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। यह छूट केवल सिविल मामले में है और आपराधिक या प्रतिबंधित निषेध मामलों में नहीं है।

• राज्य विधान मंडल में उन्हें बोलने की स्वतंत्रता है। उसके द्वारा किसी कार्यवाही या समिति में दिए गए मत या विचार को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। यह स्वतंत्रता संविधान के उपबंधों और राज्य विधानमंडल की प्रक्रिया का विनियमन करने के लिए नियमों और अस्थाई आदेशों के अनुरूप है।

• वे न्यायिक सेवाओं से मुक्त होते हैं, जब सदन चल रहा हो, वे साक्ष्य देने या किसी मामले में बतौर गवाह उपस्थित होने से इंकार कर सकते हैं।

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